यह ख़बर 05 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

योजना आयोग के नए स्वरूप के खिलाफ गोलबंद हुए विपक्षी दल

नई दिल्ली:

संसद की शीतकालीन सत्र में साध्वी निरंजन ज्योति के आपत्तिजनक बयान के मुद्दे पर बनी विपक्षी एकता अब और भी महत्वपूर्ण मुद्दों में दिखने लगी है। योजना आयोग के नए स्वरूप को लेकर रविवार को बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक के लिए विपक्षी पार्टियों ने नए सिरे से गोलबंदी कर ली है। प्रधानमंत्री निवास पर होने वाली ये बैठक दो हिस्सों में होगी। पहले सत्र में प्रधानमंत्री नए आयोग के बारे में मुख्यमंत्रियों के सुझाव सुनेंगे और दूसरे सत्र में अन्य मुद्दों पर चर्चा होगी।
 
विपक्षी एकता की पहल कांग्रेस ने की है। कांग्रेस को इस बात पर एतराज है कि बिना राज्य सरकारों से सलाह-मशविरा किए प्रधानमंत्री ने लाल किले से योजना आयोग को समाप्त करने का एलान कैसे कर दिया। कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इसके बाद प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर विरोध भी जताया था और कहा था कि ये संघीय ढांचे के खिलाफ है। अब रविवार की बैठक के लिए विपक्ष की साझा रणनीति बनी है। कांग्रेस की ओर से अन्य विपक्षी दलों के मुख्यमंत्रियों से संपर्क किया गया है।
 
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार को इस बात के लिए मनाया गया है कि वे रविवार की बैठक में योजना आयोग को पुनर्गठित करने के फैसले का विरोध करें।
 
दरअसल, योजना आयोग कांग्रेस के लिए भावनात्मक मुद्दा है। गुजरात के हरिपुरा में 1938 नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अध्यक्षता में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार योजना आयोग जैसी संस्था का खाका सामने रखा गया था। ब्रिटिश राज में भी 1944 से 1946 तक योजना बोर्ड ने काम किया। भारत के स्वतंत्र होने के बाद मार्च 1950 में पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता में योजना आयोग की स्थापना की गई थी। यही वजह है कि चाहे यूपीए सरकार के वक्त भी योजना आयोग को खत्म करने की बात की गई है, मगर अब जब ऐसा होने जा रहा है, कांग्रेस इसे संघीय ढांचे पर हमला बता रही है।
 
वैसे ये तय माना जा रहा है विपक्ष के विरोध के बावजूद मोदी सरकार योजना आयोग की जगह दूसरी संस्था को लाने की अपनी योजना को पूरा करेगी। पर ये भी तय है कि योजना आयोग का सिर्फ रुप-रंग और नाम ही बदलेगा। ये संस्था कोई दूसरा चोला ओढ़ कर पहले की तरह काम करती रहेगी। इसके काम में भी कोई अधिक परिवर्तन नहीं होगा।
 
लेकिन इसके विरोध के लिए सभी विपक्षी दलों का साथ आना सरकार के लिए एक नई मुश्किल पैदा कर सकता है। खासतौर से तब जबकि राज्य सभा में उसका बहुमत नहीं है और समाजवादी परिवार इकट्ठा हो रहा है। तृणमूल कांग्रेस के तेवर बेहद तीखे हैं और लोक सभा चुनाव में करारी हार से लड़खड़ाई कांग्रेस भी सरकार को ज्यादा रियायत देने के मूड में नहीं है।


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