जघन्य अपराधों के लिए मौत की सज़ा बर्बर नहीं : सुप्रीम कोर्ट

जघन्य अपराधों के लिए मौत की सज़ा बर्बर नहीं : सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली:

मुंबई बम धमाकों के दोषी याकूब मेमन की फांसी की सजा से सज़ा-ए-मौत को लेकर चल रही बहस के बीच सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि फांसी की सज़ा अमानवीय या बर्बर नहीं है और जघन्य अपराधों के मामले में जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है।

सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने यह टिप्पणी अपहरण एवं हत्या के एक मामले में फांसी की सज़ा पाए दोषी विक्रम सिंह की याचिका पर सुनवाई करते हुए दी। 16 साल के एक लड़के के अपहरण और हत्या के जुर्म में फांसी की सज़ा पाए विक्रम सिंह ने इस सज़ा के खिलाफ अपनी याचिका में तर्क दिया था कि मौत की सज़ा सिर्फ आतंकियों पर ही लागू होती है।

इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच में शामिल जस्टिस टीएस ठाकुर, जस्टिस आरके अग्रवाल और जस्टिस एके गोयल ने कहा, 'हत्या के मामले में फांसी की सज़ा दिया जाना दुर्लभ है, लेकिन अगर अदालत ने पाया कि यही सज़ा दी जानी चाहिए, तो उस पर सवाल उठाना मुश्किल है।' कोर्ट ने साथ ही कहा, 'यहां महत्वपूर्ण था कि दी गई सज़ा अपराध के अनुपात में ही होनी चाहिए।'

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'अपहरण के मामले में मौत की सज़ा को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीवन के अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए बर्बर या अमानवीय नहीं कहा जा सकता है।'

आपको बता दें कि भारत में मौत की सज़ा दुर्लभतम मामलों में ही दी जाती रही है, और यह सज़ा पाने वाले पिछले कुछ लोग आतंकवाद के ही आरोपी थे। इनमें साल 2001 में संसद पर हमले का दोषी अफज़ल गुरु और मुंबई हमले में शामिल पाकिस्तानी आतंकी आमिर अजमल कसाब अहम हैं।

गौरतलब है कि विक्रम सिंह को साल 2005 में स्कूली छात्र अभि वर्मा के अपहरण और हत्या के मामले में गिरफ्तार किया गया था। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने इस मामले में उसे फांसी की सज़ा सुनाई थी, जिस पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगाई थी।

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फिरौती के लिए अपहरण (धारा 364A) का दोषी ठहराए जाने पर मिली इस सज़ा के खिलाफ उसने अपील की थी। आईपीसी की इस धारा के तहत दोषी को फांसी, उम्र कैद और जुर्माने की सज़ा दी सकती है।