गुजरात में दलित शोषण का इतिहास पुराना, लेकिन अब सोशल मीडिया बन रहा है हथियार

गुजरात में दलित शोषण का इतिहास पुराना, लेकिन अब सोशल मीडिया बन रहा है हथियार

खास बातें

  • जुलाई में ही उना में मरी गाय की खाल उतारने पर चार दलित युवक पीटे गए थे
  • गुजरात में सात फीसदी दलित, आमतौर पर नज़रअंदाज़ किए जाते रहे हैं
  • सोशल मीडिया की मदद से गुजरात के दलित देशभर के दलितों से जुड़ रहे हैं
अहमदाबाद:

जिन लोगों ने गुजरात के उना में मरी हुई गाय की खाल उतारने के 'अपराध' के लिए चार दलित युवकों की पिटाई करने के बाद उस घटना का वीडियो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपलोड किया था, उनका इरादा अपने 'कारनामे' का बखान कर अपनी ही 'विरुदावली' गाना था, लेकिन वह सोशल मीडिया ही था, जिसने उन्हें फंसा दिया, देशभर में इनके खिलाफ गुस्सा भड़का दिया, और एक के बाद एक राजनेताओं का उना दौरा होने लगा, ताकि वे पीड़ितों के साथ सहानुभूति और एकजुटता दिखा सकें...

उस वीडियो में दिखे भयावह दृश्यों ने भले ही इस वक्त उना को सुर्खियों में पहुंचा दिया हो, और हर नज़र को इसी शहर की तरफ घुमा दिया हो, लेकिन पश्चिमी गुजरात के सौराष्ट्र इलाके में दलितों पर इसी साल हुए बहुत-से हमलों में से यह सिर्फ एक घटना है...

जुलाई में ही राम सिंगरखिया को पोरबंदर जिले में ज़मीन के एक विवादित टुकड़े पर अरंडी के बीज बोने के लिए भीड़ ने काट-काटकर टुकड़े कर मार डाला था; और उससे कुछ ही दिन पहले, गोंडल जेल में बेद सागर राठौड़ ने खुदकुशी कर ली थी, जिसके घरवालों का आरोप था कि जेलर उसे परेशान किया करता था...

दलितों के खिलाफ भेदभाव गुजरात में दशकों से मौजूद रहा है, लेकिन सौराष्ट्र में यह चरम पर है, और इस क्षेत्र के सामंती इतिहास का ज्वलंत दस्तावेज़ है...

वर्ष 1956 में जिन लगभग 600 रजवाड़ों को भारतीय संघ में शामिल किया गया था, उनमें से 188 तो सौराष्ट्र के ही थे... लेकिन बड़ौदा के गायकवाड़, जिन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल बनवाए व अस्पृश्यता को खत्म करने की दिशा में काम किए, के अलावा सौराष्ट्र के अधिकतर राजपूत शासक इतने प्रगतिवादी नहीं थे...

उनकी रियासतों में, जिन्हें स्थानीय रूप से 'दरबार' कहा जाता है, न सिर्फ 'दूध पीती' (कन्या भ्रूणहत्या जैसा परिणाम देने वाली प्रथा, जिसमें पैदा होने के बाद बच्ची को दूध में डुबोकर मार डाला जाता है) जैसी रस्मों को निभाया गया, बल्कि वे लोग जातिप्रथा की 'पवित्रता' में भी विश्वास रखते हैं...
 


स्वतंत्रता के उपरांत वर्ष 1952 के सौराष्ट्र भूमि सुधार अधिनियम ने इलाके के सामाजिक स्वरूप को बदल डाला, और इसके तहत किराये पर काम करने वाले किसानों, मुख्यतः पटेलों, को ज़मीन पर कब्ज़े का अधिकार दे दिया गया, और उसके बाद उन्होंने कपास और मूंगफली जैसी 'कमाऊ' चीज़ों की खेती कर राज्य का सबसे रईस और सबसे प्रभावशाली समुदाय बनने में कामयाबी हासिल की...

लेकिन इसके बिल्कुल उलट, सवर्णों के प्रभुत्व वाली नौकरशाही और राजनैतिक नेतृत्व ने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि कहीं सरकारी रिकॉर्ड में आदिवासियों और दलित खेतिहरों के नाम कोई ज़मीन दर्ज न हो जाए, जबकि वह उन्हें आवंटित की जा चुकी थी... इस तरह की धोखाधड़ी को बरकरार रखने की कोशिशें लगातार जारी रहीं... गुजरात में 12,500 गांव ऐसे हैं, जिनमें दलित बसते हैं... वर्ष 1996 में उत्तरी गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले में बसे इन्हीं में से 250 गांवों में एनजीओ नवसर्जन ट्रस्ट द्वारा किए गए एक सर्वे में पाया गया था कि सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों के लिए अलग से रखी गई 6,000 एकड़ ज़मीन चार दशक बीत जाने के बावजूद दलितों के नाम स्थानांतरित नहीं की गई है... इस ज़मीन के बड़े हिस्सों पर ऊंची जातियों वाले किसानों द्वारा गैरकानूनी तरीके से खेती की जा रही है... इस सर्वे के बाद जब नवसर्जन ट्रस्ट मामले को लेकर कोर्ट पहुंच गया, तब जाकर राज्य सरकार को आदेश दिए गए कि ये ज़मीनें उनके जायज़ हकदारों को सौंपी जाएं...

'60 के दशक में सौराष्ट्र में दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों ने जबरन लगभग दो लाख एकड़ गोचर (चरागाह) पर कब्ज़ा कर लिया था, जो दरअसल सरकार ने रजवाड़ों से हासिल की थी... इस आंदोलन के समय दलित पहली बार पटेलों के खिलाफ सामने आए थे, जो धीरे-धीरे 'दरबारों' की जगह इलाके का सबसे प्रभावी समुदाय बनते जा रहे थे...

आमने-सामने होने का अगला मौका लगभग एक-चौथाई सदी के बाद आया... क्षत्रियों, हरिजनों, आदिवासियों और मुस्लिमों (KHAM) का गठजोड़ बनाकर कांग्रेस को 1980 के चुनाव में मिली कामयाबी ने गुजरात की राजनीति से वैश्यों, ब्राह्मणों और पाटीदारों का एकाधिकार तोड़कर रख दिया... इतिहास में पहली बार गुजरात के एक दलित योगेंद्र मकवाना को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह दी गई, और गृह राज्यमंत्री बनाया गया, और उधर गुजरात मंत्रिमंडल में भी पहली बार एक आदिवासी अमरसिंह चौधरी को कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल किया गया...

इसके बाद आगड़ी जातियों ने 1981 और 1985 में किए आरक्षण-विरोधी आंदोलनों के ज़रिये पलटवार किया, जिनके दौरान 300 से भी अधिक दलित मार डाले गए... लेकिन अगले तीन दशक से भी अधिक समय तक संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण ने गुजरात के दलितों की आर्थिक स्थिति में सुधार में महती भूमिका निभाई... फिर 2000 के दशक के मध्य तक आते-आते ये लाभ दिखने बंद होते चले गए, और अनुसूचित जातियों के खिलाफ होते अपराधों में लगातार बढ़ोतरी दिखाई देने लगी...

सूचना के अधिकार के तहत राज्य पुलिस से हासिल किए गए जवाब से पता चलता है कि वर्ष 2004 में जाति से जुड़े हमलों की वारदात में नौ दलितों की मौत हुई और 24 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया... लेकिन वर्ष 2014 तक आते-आते ये आंकड़े 27 हत्याओं और 74 बलात्कारों में तब्दील हो गए, दोनों ही तरह की वारदात में लगभग 200 फीसदी बढ़ोतरी है... (लेकिन चौंकाने वाला तथ्य यह है कि जातिगत अत्याचार अधिनियम के तहत दर्ज होने वाले मामलों में दोषसिद्धि का प्रतिशत चार फीसदी पर बेहद कम है...)
 

समाजविज्ञानी अच्युत याज्ञनिक NDTV से बातचीत में इसका दोष युवा व पढ़े-लिखे गुजरातियों में उपजी कुंठा को देते हैं, जो दरअसल राज्य में विकास के लिए अपनाए गए उस मॉडल से आई, जिसने मोटी पूंजी वाले उद्योग स्थापित करवाए, और जिनसे अकुशल श्रमिकों के लिए तो रोज़गार पैदा हुए, लेकिन पढ़े-लिखों के लिए नौकरियां उत्पन्न नहीं हुईं... इन हालात में आरक्षण नीतियों की वजह से फायदा उठाते दिखने वाले, लेकिन वास्तव में दलित उनकी भड़ास का निशाना बन गए...

नवसर्जन ट्रस्ट के संस्थापक मार्टिन मैकवान का कहना है कि यह धारणा गलत है कि दलित धीरे-धीरे सारा फायदा पाते जा रहे हैं... उन्होंने NDTV को बताया कि राज्य के विभिन्न सरकारी विभागों में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 64,000 रिक्तियां ऐसी हैं, जिन्हें अब तक भरा नहीं गया है, और यह बात सरकार द्वारा पिछले साल जारी किए गए आंकड़ों से ही पता चली है... दलित नेताओं का कहना है कि यह दरअसल उन्हें और उनके परिवारों को उन्हीं पेशों और व्यवसायों - उदाहरण के लिए हाथों से मैला उठाना व जानवरों की खाल उतारना - में लगाए रखने की साज़िश है, जो शोषण करने वाली व्यवस्था के बूते उन पर लादे गए थे, ताकि उनका सामाजिक स्तर न बदल पाए...

लेकिन यह वह एकमात्र कारण नहीं है, जिसकी वजह से गुजरात के दलित मानते हैं कि राज्य उनके विरुद्ध पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर काम करती है... समुदाय से जुड़े कार्यकर्ताओं द्वारा दायर की गई कई आरटीआई के ज़रिये पता चला है कि वर्ष 2001 से सरकार ने दलितों के मसीहा डॉ भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित करने के लिए एक भी रुपया जारी नहीं किया है... और इस साल राज्य सरकार ने उत्तरी गुजरात के लगभग 40 गांवों में दलितों के लिए अलग श्मशान घाट बनाए जाने की खातिर पैसा जारी कर दिया है, जिससे यह पक्का हो जाए कि जाति के दायरे धुंधले न पड़ें...

गुजरात की कुल आबादी में दलित सिर्फ सात फीसदी हैं, और 15 फीसदी के राष्ट्रीय औसत से लगभग आधे हैं... इसका एक अर्थ यह रहा है कि वे चुनावी नतीजों को कतई प्रभावित नहीं कर सकते, और इसीलिए राजनैतिक दल उनकी उपेक्षा करते रहे हैं, लेकिन अब यह बदल रहा है... गुजरात के दलित अब अपने अधिकारों को लेकर ज़्यादा ज़ोर देने लगे हैं, और देशभर में फैले समुदाय के अन्य लोगों से जुड़े भी रहने लगे हैं, कुछ हद तक सोशल मीडिया के ज़रिये... भेदभाव से जुड़ा कोई भी मामला तुरंत बांटा जाता है, और तकलीफ को सामूहिक रूप से महसूस किया जाने लगा है... बहुत-से लोगों का मानना है कि अब उना की वारदात और उससे पहले जनवरी में हैदराबाद में हुई रोहित वेमुला की आत्महत्या के मुद्दे अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब में होने जा रहे चुनावों में दलित वोटों के बड़े हिस्से को प्रभावित कर सकते हैं...

खैर, इस राजनैतिक समीकरणों के इतर सुधार की भी बेहद ज़रूरत है... साढ़े बारह साल तक गुजरात की गद्दी संभाल चुके और अब देश के प्रधानमंत्री पद पर बैठे नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2007 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'कर्मयोग' में लिखा था, "वाल्मीकि समुदाय (दलित उपजाति) के लिए शौचालयों को साफ करने का काम आध्यात्मिक अनुभव ही होता होगा...", जिससे उनके जाति व्यवस्था की वकालत करते होने के संकेत मिलते हैं...

पिछले एक दशक में जारी रहे इसी राजनैतिक खिलवाड़ ने गुजरात के दलितों के विरोध प्रकट करने के इरादे को मजबूत कर दिया है... उना हमले के बाद से लगभग 30 दलित खुदकुशी की कोशिश कर चुके हैं, ताकि उनकी तकलीफों की तरफ ध्यान दिया जाए... खुदकुशी या उसकी कोशिश को अब हताशा से नहीं, गुस्से से उपजे कदम के रूप में देखा जाना चाहिए, इस बात से कोई मूर्ख ही इंकार करेगा...

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