क्या इच्छा मृत्यु का हक़ मिलना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू, केंद्र ने किया विरोध

कौमा जैसी स्थिति में मृत्यु शैया पर लेटे व्यक्ति, जिसके जीवन की सभी आस खत्म हो चुकी हों, के लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाकर उसे मरने दिया जाए?

क्या इच्छा मृत्यु का हक़ मिलना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू, केंद्र ने किया विरोध

इच्छा मृत्यु को देश में अनुमति मिलनी चाहिए या नहीं, इस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है

खास बातें

  • फरवरी, 2015 में सुप्रीम कोर्ट में एक एनजीओ ने दाखिल की थी याचिका
  • 5 जजों की संविधान पीठ कर रही है इच्छा मृत्यु मामले में सुनवाई
  • केंद्र सरकार ने कोर्ट में इच्छा मृत्यु की मांग का विरोध किया है
नई दिल्ली:

कौमा जैसी स्थिति में मृत्यु शैया पर लेटे व्यक्ति, जिसके जीवन की सभी आस खत्म हो चुकी हों, के लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटाकर उसे मरने दिया जाए? लाइलाज बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को उसके परिजनों की सहमति से एक शांत मौत दी जाए, इन्हीं मुद्दों पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई है. हालांकि केंद्र सरकार ने इच्छा मृत्यु का विरोध किया है.
इच्छा मृत्यु को लेकर दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने सवाल उठाया कि क्या किसी व्यक्ति को उसकी मर्जी के खिलाफ कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम पर जीने को मजूबर कर सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि आजकल मध्यम वर्ग में वृद्ध लोगों को बोझ समझा जाता है ऐसे में इच्छा मृत्यु में कई दिक्कते हैं.

सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ये भी सवाल उठाया कि जब सम्मान से जीने को अधिकार माना जाता है तो क्यों न सम्मान के साथ मरने को भी माना जाए. क्या इच्छा मृत्यु मौलिक अधिकार के दायरे में आएगा?

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मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण की तरफ से कहा गया कि अगर ऐसी स्थिति आ गई कि व्यक्ति बिना सपोर्ट सिस्टम के नहीं रह सकता तो ऐसे में डॉक्टर की एक टीम का गठन किया जाना चाहिए जो ये तय करे कि क्या बिना कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम वो बच सकता है या नहीं. क्योंकि ये मेरा अधिकार है कि मैं कृत्रिम सपोर्ट सिस्टम लेना चाहता हूं या नहीं.

प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि लॉ कमीशन में अपनी रिपोर्ट में कहा कि पैसिव इथोनेशिया कि इजाजत तो दे सकते हैं लेकिन लिविंग विल की नहीं. आप किसी को उसकी इक्छा के बिना जीने के लिए मजबूर कर रहे हैं. भारत एक ऐसा देश है जहां डॉक्टर की संख्या और हॉस्पिटल पहले ही कम हैं ऐसे में एक ऐसे व्यक्ति के लिए डॉक्टर लगाया जाना कहां तक उचित है जो व्यक्ति खुद जीना नहीं चाहता. ये सुनवाई बुधवार को भी जारी रहेगी.

फरवरी, 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया यानी इच्छा मृत्यु की एक याचिका को संविधान पीठ में भेज दिया था जिसमें ऐसे व्यक्ति की बात की गई थी जो बीमार है और मेडिकल ऑपनियन के मुताबिक उसके बचने की संभावना नहीं है.
तत्कालीन चीफ जस्टिस पी. सदाशिवम की अगुवाई वाली बेंच ने ये फैसला एक गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज की याचिका पर लिया था जिसमें कहा गया था कि एक व्यक्ति मरणांतक बीमारी से पीड़ित हो तो उसे दिए गए मेडिकल सपोर्ट को हटाकर पीड़ा से मुक्ति दी जानी चाहिए जिसे पैसिव यूथेनेशिया कहा जाता है.

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सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब में कहा था कि इच्छा मृत्यु और खुदकुशी दोनों भारत में गैरकानूनी हैं और इसी के साथ दो जजों की बेंच केपी रतनम बनाम केंद्र सरकार के फैसले को पलट दिया था. कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है. लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अरूणा रामचंद्र शॉनबाग बनाम केंद्र सरकार मामले में कहा कि कोर्ट की कड़ी निगरानी में आसाधारण परिस्थितियों में पैसिव यूथेनेशिया दिया जा सकता है.

एक्टिव और पैसिव यूथेनेशिया में अंतर ये होता है कि एक्टिव में मरीज की मृत्यु के लिए कुछ किया जाए जबकि पैसिव यूथेनेशिया में मरीज की जान बचाने के लिए कुछ ना किया जाए.


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