मध्यप्रदेश में आदिवासी दिहाड़ी मज़दूर की मौत, वैक्सीन ट्रायल के थे प्रतिभागी ... परिजनों ने उठाए वैक्सीन पर सवाल

मध्य प्रदेश से हमने बताया था कि कैसे जिन लोगों को कोविड वैक्सिन के ट्रायल में शामिल किया गया उन्हें सहमति पत्र नहीं दिया गया. कइयों को यह साफ जानकारी तक नहीं थी कि वे ट्रायल का इंजेक्शन ले रहे हैं.

भोपाल:

मध्य प्रदेश से NDTV ने बताया था कि कैसे जिन लोगों को कोविड वैक्सिन (Covid vaccine) के ट्रायल में शामिल किया गया उन्हें सहमति पत्र नहीं दिया गया. कइयों को यह साफ जानकारी तक नहीं थी कि वे ट्रायल का इंजेक्शन ले रहे हैं. इस रिपोर्ट के संदर्भ में दीपक की मौत की कहानी भी अहम हो जाती है. हम नहीं कहते और कह सकते हैं कि दीपक की मौत वैक्सीन से हुई या किसी और चीज़ से. वो वैक्सीन के ट्रायल में शामिल थे और उनकी मौत किसी दूसरे कारण से भी हुई तो उनके परिजनों को क्यों नहीं बताया गया. क्या इसलिए कि दीपक दिहाड़ी मज़दूर थे, क्या ऐसा किसी पढ़े लिखे या नेता के साथ होता?

45 साल के दीपक मरावी मज़दूरी करते थे और टीला जमालपुरा की सूबेदार कॉलोनी में किराये के इसी एक कमरे में तीन बच्चों के साथ रहते थे. दीपक ने कोरोना वैक्सीन ट्रायल में हिस्सा लिया था. पहले डोज़ के बाद ही तबीयत खराब हो गई और अस्पताल पहुंचने से पहले दीपक की मौत हो गई. दीपक को टीका लगा था या प्लेसिबो हम नहीं बता सकते. 12 दिसंबर से 21 दिसंबर के बीच दीपक के साथ क्या हुआ, हमारे लिए बताना मुश्किल है. पत्नी अब दूसरों से खाना मांग कर बच्चों का पेट भर रही हैं.

उनकी पत्नी वैजयंती मरावी का कहना है, ''वो इंजेक्शन लगवा कर आए, 7 दिन तक ठीक थे खाना खा रहे थे, इसके बाद चक्कर आ रहे थे. मैंने कहा चलते नहीं बन रहा आराम करो, खाना थोड़ा थोड़ा खा रहे थे. 21 को उल्टी होने लगी झाग निकल रहा था. मैंने कहा डॉक्टर के पास चलो वो जिद में रहे कहे कहीं नहीं जाउंगा मुझे आराम करने दो मुझसे चलते नहीं बन रहा, कुछ बीमारी नहीं थी. उनकी मौत वैक्सीन से हुई है, हमें कहीं से कोई मदद नहीं मिली, कोई नहीं आया. वो पीठे में काम करते थे वहीं किसी ने कहा होगा. मैंने कहा था वैक्सीन मत लगवाना ये खतरे का काम है. हमारे पास कुछ नहीं बचा.''

जैसा कि पत्नी ने बताया कि दीपक ने भी तबीयत खराब होने पर डाक्टर के पास जाने में देरी की लेकिन जिस व्यक्ति को टीका दिया गया हो उसकी तबीयत पर नज़र रखने का काम किसका था? क्या दीपक जैसे कम पढ़े लिखे लोगों को किसी भी वैक्सीन का टीका लगाने के बाद उनके हाल पर छोड़ा जा सकता है. इस दौरान वैक्सीन लगाने के बाद उनकी पूछताछ तो की गई होगी, इसका डिटेल हासिल करना मुश्किल हो रहा है क्योंकि कंपनी को हम दो बार लिख चुके हैं और जवाब नहीं आया है. पत्नी के पास प्रेस ही एक ज़रिया है कि वह अपने सवाल का जवाब कंपनी और सरकार से मांग सके.

पत्नी आस पड़ोस में झाड़ू पोंछा लगा लेती हैं, खाना दूसरों से कभी कभार मांगती है ताकी बच्चों का पेट भर सके मेरा घर बार उजड़ गया खाने को नहीं रहा. दीपक की पोस्ट मार्टम रिपोर्ट पुलिस ने परिवार वालों को नहीं दी लेकिन जब अर्ज़ी लगाने पर अस्पताल को दे दी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार संदेहास्पद पॉयज़निंग की बात कही गई है. पॉयज़निंग कैसे हुई, किस स्टेज पर हुई इसकी जानकारी न इसमें है और न हमारे पास जवाब है. परिवार और पड़ोसियों ने इसे ऐसे समझा कि दीपक तो बिल्कुल ठीक था, कोई परेशानी नहीं थी तो वह ज़हर क्यों खाएगा.

मकान मालिक राधेश्याम कहते हैं वो बढ़िया रहते थे, मैंने बीमारी का नहीं सुना ना वो बीमार हुआ. पड़ोसी आशु श्रीवास्तव ने बताया वैक्सीन लगी है वो बीमार हुए उनका देहांत हो गया उन्हें कोई बीमारी नहीं थी. उनके दूसरे पड़ोसी राजेन्द्र ने कहा पहले कभी तबीयत खराब नहीं हुई, एकदम स्ट्रॉन्ग थे. वो अच्छा खासा खा पी रहे थे. हम सरकार से यही कहना चाह रहे हैं बहुत स्थिति खराब है आज उनका छोटा लड़का मजदूरी करने गया है, कोई साथ नहीं दे रहा है.

हम जानते हैं पड़ोसी का जवाब पर्याप्त नहीं हो सकता है इसलिए हम संदेहास्पद पॉयज़निंग को समझने के लिए मेडिको लीगल विभाग की डॉ. गीता रानी गुप्ता के पास गए. उन्होंने कैमरे पर तो कुछ नहीं कहा लेकिन ये ज़रूर बताया कि उन्हें भी नहीं पता था कि दीपक ट्रायल में प्रतिभागी थे, उन्हें किसी ने इस बारे में बताया तक नहीं.

मामले की पड़ताल में 200 से ज्यादा पन्नों का एक गोपनीय दस्तावेज भी हमें मिला. इसके पेज नंबर 57 पर किसी डॉक्टर की राय है कि ये मामला खुदकुशी का हो सकता है. आपको हमने बताया था कि पोस्टरमार्टम की रिपोर्ट परिवार को न देकर अस्पताल को दी गई.

इस डॉक्टर ने खुदकुशी जब लिख दिया है तो क्या इसकी सूचना पुलिस को नहीं दी जानी चाहिए थी? इसे जांच का विषय क्यों नहीं माना गया. क्या इसलिए कि दीपक एक मज़दूर था.

भोपाल डीआईजी इरशाद वली का कहना है हमारे पास ऐसी कोई जानकारी नहीं है, आएगी तो हम जांच करेंगे. जब पीएम रिपोर्ट आती है, विसरा रखा है मर्ग कायम करके जांच करेंगे तब समझ आएगा कि कोई कारण है जिसकी वजह से सुसाइड किया तभी हम बता पाएंगे कि क्या हुआ, सुसाइड अगर होगा अगर परिवार में कोई मामला हुआ तो ये हम ही बता पाएंगे.
      हमारा सवाल है कि दीपक की मौत को लेकर अस्पताल कंपनी या सरकार की क्या भूमिका होनी चाहिए, क्या चुप रह कर साधारण परिवारों के प्रश्नों को अधूरा छोड़ कर हम वैज्ञानिक चेतना का निर्माण कर सकते हैं जो हमारा संवैधानिक दायित्व भी है
     International Association of Bioethics के पूर्व अध्यक्ष अनंत भान कहते हैं, इसे सीरियस एडवर्स इवेंट माना जाएगा कई बार क्लीनिकल ट्रायल में ये होता है लेकिन ऐसी स्थिति में रेगुलटर को तुरंत देखना पड़ेगा, ड्यू प्रोसेस है जिसमें इथिक्स कमेटी, उनको देखना होगा कि वैक्सीन से कोई लिंकेज तो नहीं है ... मेरे हिसाब से ट्रांसपेरेंसी होना बहुत जरूरी है. 
    यही नहीं 4 जनवरी की रिपोर्ट में आप एक अन्य तरह की गंभीर लापरवाही देख चुके हैं। NDTV यूनियन कार्बाइड के आसपास टिंबर फैक्ट्री, शंकर नगर, ओडिया नगर जैसे इलाकों में गई और कई लोगों से बात करने पर पता चला कि उन्हें पता ही नहींं था कि वे वैक्सीन के मानव परीक्षण में हिस्सा थे।उन्हें केवल यह बताया गया था कि इंजेक्शन (वैक्सीन) कोरोनावायरस से संक्रमित होने से बचाएगा। यहां तक कि कइयो को सूचित सहमति यानी इंफोर्मेंड कंसेंट का पेपर नहीं दिया गया जो अनिवार्य रुप से दी जानी चाहिए थी.


 जैसे आरा मिल में काम करने वाले जीतेंद्र नरवारिया कहते हैं कि कि जबसे वैक्सीन लगवाया बीमार पड़ गये,  अस्पताल ने सुध नहीं ली काम नहीं कर पा रहे हैं, पछता रहे हैं कि अस्पताल गये क्यों.हम समझते हैं कि टीका लगाने से ही जीतेंद्र को यह शिकायत नहीं हुई होगी लेकिन यह बताता है कि ट्रायल में शामिल लोगों के प्रति संस्थाओ का रैवाया कैसा है। क्या ऐसे साधारण लोगों को आश्वास्त करना किसी की भी ज़िम्मेदारी नहीं है? ऐसे में इन बातों की क्या गंभीरता रह जाती है कि अस्पताल ने सरकार के सभी दिशा निर्देशों का पालन किया है। अस्पताल के डीन डॉ ए के दीक्षित ने कहा था कि कंसेंट फॉर्म की प्रति जो मांगता है उसे दे दिया जाता है. 

अब जिन्होंने कंसेंट फार्म मांगा उन्हें दिया गया। इसका क्या मतलब है? किसी गरीब और आम लोग को कैसे पता होगा कि कंसेट पेपर मांगना चाहिए? क्या उन्हें काउंसलिंग के दौरान बताया गया था कि आप मांगेंगे तभी देंगे और उसके बाद भी सावित्री सुनीता या जीतेंद्र ने कंसेंट पेपर की मांग नहीं की ?प्रतिभागियों ने हमें चार पन्नों की एक पुस्तिका दिखाई जो उन्हें दी गई है। ये और बात है कि कई लोग लिखना पढ़ना नहीं जानते.

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मध्यप्रदेश में ड्रग ट्रायल का इतिहास खौफनाक रहा है, 2010 में ड्रग ट्रायल के दौरान कई लोगों गंभीर रूप से बीमार हुए, अकेले इंदौर में दर्जनों की मौत हो गई. ऐसे में एक सवाल ये भी है कि 25 अक्टूबर  2010 को मप्र सरकार ने ड्रग ट्रायल पर रोक लगाई थी फिर किसकी अनुमति से वैक्सीन ट्रायल हुआ, और क्या इन मामलों में एथिक्स कमेटी की जिम्मेदारी नहीं है कि वो ट्रायल सबजेक्ट्स की रक्षा करे.

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