गुजरात में दलित संघर्ष का नया चेहरा : जिग्नेश मेवाणी

गुजरात में दलित संघर्ष का नया चेहरा : जिग्नेश मेवाणी

खास बातें

  • जिग्नेश मेवाणी को नए जमाने का अग्रेसिव दलित नेता कहा जा रहा है
  • दूसरे युवा नेताओं की तरह इनके पास घूमने के लिए बड़ी कार नहीं है
  • उन्होंने अंग्रेजी में ग्रेजुएशन किया है और साहित्य के भी शौकीन हैं
अहमदाबाद:

गुजरात में पिछले एक साल में तीन युवा नेता उभरे हैं, जिन्होंने अपने-अपने समुदाय को एक नए सिरे से जोड़ा है. सबसे पहले आए हार्दिक पटेल, फिर आए ओबीसी एकता की बात लेकर हार्दिक के मुकाबले में खड़े रहने अल्पेश ठाकोर और अब सबसे अंत में आए हैं 35 वर्षीय जिग्नेश मेवाणी, जिन्हें नए जमाने का अग्रेसिव दलित नेता कहा जा रहा है.

इन सबमें जिग्नेश सबसे अलग हैं. दूसरे युवा नेताओं की तरह इनके पास न घूमने के लिए बड़ी कार है (हार्दिक पटेल फॉरच्यूनर में तो अल्पेश ठाकोर जगुआर में घूमते हैं) न ही भीड़ जमा करने के लिए समाज के लोगों का पैसा, लेकिन इनके पास मेहनत, लगन और अपने समाज को समानता और न्याय दिलाने के लिए मन में जुनून है. जिग्नेश ज्यादातर दोस्तों के दुपहिया वाहनों में ही अब भी घूमता है.

उन्होंने अंग्रेजी विषय के साथ ग्रेजुएशन किया है और साहित्य के भी उतने ही शौकीन हैं. आरटीआई जैसे कानूनों का गहन अभ्यास भी किया. पहली बार जिग्नेश से कब मिला याद नहीं, लेकिन दलित और गरीबों पर कैसे अन्याय हो रहा है इसकी खबरें लेकर लगातार कई सालों से मिलता रहा. बीच में जाने-माने गुजराती शायर मरीज़ पर भी किताब लिखी.

दलित अधिकारों को लेकर चेतना तो हमेशा से ही रही तो उन्होंने कानून की पढ़ाई भी शुरू कर दी. उसी वक्त दूसरे मानव अधिकार कार्यकर्ता मुकुल सिन्हा से भी संपर्क में आया. उनके साथ मिलकर कानूनी लड़ाइयों में शामिल होता रहा. हमेशा से मजाकिया स्वभाव, लेकिन मजाक में भी दलितों के प्रति अन्याय को लेकर गुस्सा लगातार झलकता रहता है.

2012 में जब सुरेन्द्र नगर के थानगढ़ में पुलिस फायरिंग में 15, 16 और 26 साल के तीन युवाओं की मौत हुई तो लोगों का गुस्सा फूट पड़ा. उन्होंने वहां हो रहे आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. लगातार राज्य में दलितों के लिए बने कानूनों का अभ्यास किया और कैसे कानून सिर्फ कागजों में है और हकीकत में उनका पालन नहीं हो रहा है इसे लेकर कोर्ट में कानूनी लड़ाई लड़ने के साथ ही मीडिया और समाज में कैसे जागृति लाई जाए वह इसे लेकर कार्यरत रहे.


वह हमेशा कहते हैं कि राज्य में विधवाओं को, दलितों को, गरीबों को जमीन देने के प्रावधान है, लेकिन कोई सरकार दे नहीं रही और इसके लिए कोर्ट में और अन्य फोरम में लगातार वह अपनी बात रखकर लड़ाई लड़ते रहे.

वह दलित हैं, लेकिन अगर अपने परिवार में भी सफाई जैसा काम कर रहे किसी कर्मचारी के साथ कोई दुर्व्यवहार करता है तो भी परिवार में ही लड़ पड़ते हैं. दलितों में भी जिस तरह जाति व्यवस्था है उससे बेहद खफा हैं. कहते हैं हम वैसे जाति प्रथा के सबसे बड़े शिकार हैं, लेकिन फिर भी आपस में भी जातिया डाले बैठे हैं.

वह वैचारिक तौर पर काफी कुछ साम्यवादी (कम्युनिस्ट) विचार रखते हैं. राजनैतिक तौर पर आम आदमी पार्टी से जुड़े हैं. आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता भी हैं, लेकिन कहते हैं कि दलित मुद्दों पर संघर्ष किसी राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ता के तौर पर नहीं, लेकिन एक दलित कार्यकर्ता के तौर पर ही लड़ना चाहते हैं. उन्होंने कहा, मैं इस आन्दोलन में कहीं भी आम आदमी पार्टी का जिक्र नहीं करूंगा. इस पूरे आंदोलन के दौरान मीडिया में जहां भी चर्चा के लिए गए तो आग्रह किया कि उन्हें सिर्फ दलित कार्यकर्ता ही कहा जाए.

तबीयत बेहद खराब रहती है. रीढ़ की हड्डी की समस्या से परेशान हैं, जिसकी वजह से काफी दिक्कत आती है. इसीलिए जब उन्होंने पदयात्रा की घोषणा की तो कई लोगों को आश्चर्य हुआ कि कैसे कर पाएंगे. पदयात्रा के दौरान लगातार वायरल फीवर से पीड़ित रहे, लेकिन पदयात्रा जारी है. कुछ हो जाए तो परवाह नहीं, लेकिन अगर समाज में परिवर्तन आया तो बड़ी उपलब्धि होगी.

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