UPDATE: NDTV के करोड़ों दर्शकों का शुक्रिया: रैमॉन मैगसेसे अवॉर्ड पर रवीश कुमार

NDTV इंडिया के मैनेजिंग एडिटर रवीश कुमार रेमॉन मैगसेसे अवार्ड लेने के लिए फिलीपीन्स की राजधानी मनीला पहुंच चुके हैं. इस अवार्ड की घोषणा 2 अगस्‍त को हुई थी. NDTV के रवीश कुमार को यह सम्मान हिन्दी टीवी पत्रकारिता में उनके योगदान के लिए मिला है.

UPDATE: NDTV के करोड़ों दर्शकों का शुक्रिया: रैमॉन मैगसेसे अवॉर्ड पर रवीश कुमार

रवीश कुमार (फाइल फोटो)

NDTV इंडिया के मैनेजिंग एडिटर रवीश कुमार रेमॉन मैगसेसे अवार्ड लेने के लिए फिलीपीन्स की राजधानी मनीला पहुंचे. इस अवार्ड की घोषणा 2 अगस्‍त को हुई थी. NDTV के रवीश कुमार को यह सम्मान हिन्दी टीवी पत्रकारिता में उनके योगदान के लिए मिला है. 'रैमॉन मैगसेसे' को एशिया का नोबेल पुरस्कार भी कहा जाता है. यह पुरस्कार फिलीपीन्स के भूतपूर्व राष्ट्रपति रैमॉन मैगसेसे की याद में दिया जाता है. रवीश कुमार ने मैगसेसे अवॉर्ड के पहले स्‍पीच दी, जिसे आप NDTV इंडिया की वेबसाइट और फेसबुक पेज पर देख सकते हैं. रवीश कुमार 'लोकतंत्र को आगे बढ़ाने में सिटिज़न जर्नलिज़्म की ताकत' विषय पर अपनी बात रखी.

Sep 06, 2019 07:37 (IST)
मैं NDTV के करोड़ों दर्शकों का शुक्रिया अदा करता हूं. NDTV के सभी सहयोगी याद आ रहे हैं. डॉ प्रणय रॉय और राधिका रॉय ने कितना कुछ सहा है. मैं हिन्दी का पत्रकार हूं, मगर मराठी, गुजराती से लेकर मलयालम और बांग्लाभाषी दर्शकों ने भी मुझे ख़ूब प्यार दिया है. मैं सबका हूं. मुझे भारत के नागरिकों ने बनाया है. मेरे इतिहास के श्रेष्ठ शिक्षक हमेशा याद आते रहेंगे. मेरे आदर्श महानतम अनुपम मिश्र को याद करना चाहता हूं, जो मनीला चंडीप्रसाद भट्ट जी के साथ आए थे. अनुपम जी बहुत ही याद आते हैं. मेरा दोस्त अनुराग यहां है. मेरी बेटियां और मेरी जीवनसाथी. मैं नॉयना के पीछे चलकर यहां तक पहुंचा हूं. काबिल स्त्रियों के पीछे चला कीजिए. अच्छा नागरिक बना कीजिए.
Sep 06, 2019 07:37 (IST)
DEMOCRACY NEED MORE CITIZEN JOURNALISTS, MORE THAN THAT, DEMOCRACY NEEDS CITIZEN DEMOCRATIC.
Sep 06, 2019 07:37 (IST)
आज बड़े पैमाने पर सिटिज़न जर्नलिस्ट की ज़रूरत है, लेकिन उससे भी ज्यादा ज़रूत है सिटिज़न डेमोक्रेटिक की.
Sep 06, 2019 07:35 (IST)
महात्मा गांधी ने 12 अप्रैल, 1947 की प्रार्थनासभा में अख़बारों को लेकर एक बात कही थी. आज के डिवाइसिव मीडिया के लिए उनके प्रवचन काम आ सकते हैं. गांधी ने एक बड़े अख़बार के बारे में कहा, जिसमें ख़बर छपी थी कि कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में अब गांधी की कोई नहीं सुनता है. गांधी ने कहा था कि यदि अख़बार दुरुस्त नहीं रहेंगे, तो फिर हिन्दुस्तान की आज़ादी किस काम की. आज अख़बार डर गए हैं. वे अपनी आलोचना को देश की आलोचना बना देते हैं, जबकि मैं मेनस्ट्रीम मीडिया और खासकर न्यूज़ चैनलों की आलोचना अपने महान देश के हित के लिए ही कर रहा हूं. गांधी ने कहा था - आप इन निकम्मे अखबारों को फेंक दें. कुछ ख़बर सुननी हो, तो एक दूसरे से पूछ लें. अगर पढ़ना ही चाहें, तो सोच-समझकर अख़बार चुन लें, जो हिन्दुस्तानवासियों की सेवा के लिए चलाए जा रहे हों. जो हिन्दू और मुसलमान को मिलकर रहना सिखाते हों. भारत के अखबारों और चैनलों में हिन्दू-मुसलमान को लड़ाने-भड़काने की पत्रकारिता हो रही है. गांधी होते, तो यही कहते, जो उन्होंने 12 अप्रैल, 1947 को कहा था और जिसे मैं यहां आज दोहरा रहा हूं.
Sep 06, 2019 07:33 (IST)
मैं ऐसे किसी दौर या देश को नहीं जानता, जो ख़बरों के बग़ैर धड़क सकता है. किसी भी देश को ज़िंदादिल होने के लिए सूचनाओं की प्रामाणिकता बहुत ज़रूरी है. सूचनाएं सही और प्रामाणिक नहीं होंगी, तो नागरिकों के बीच का भरोसा कमज़ोर होगा. इसलिए एक बार फिर सिटिज़न जर्नलिज़्म की ज़रूरत तेज़ हो गई है. वह सिटिजन जर्नलिज्म, जो मेनस्ट्रीम मीडिया की कारोबारी स्ट्रेटेजी से अलग है. इस हताशा की स्थिति में भी कई लोग इस गैप को भर रहे हैं. कॉमेडी से लेकर इन्डिविजुअल यूट्यूब शो के ज़रिये सिटिजिन जर्नलिज़्म के एसेंस को ज़िंदा किए हुए हैं. उनकी ताकत का असर यह है कि भारत के लोकतंत्र में अभी सब कुछ एकतरफा नहीं हुआ है. जनता सूचना के क्षेत्र में अपने स्पेस की लड़ाई लड़ रही है, भले ही वह जीत नहीं पाई है.
Sep 06, 2019 07:29 (IST)
आज़ादी के समय भी तो ऐसा ही था. बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, डॉ अम्बेडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी, पीर मुहम्मद मूनिस - अनगिनत नाम हैं. ये सब सिटिज़न जर्नलिस्ट थे. 1917 ईस्वी में चंपारण सत्याग्रह के समय महात्मा गांधी ने कुछ दिनों के लिए प्रेस को आने से रोक दिया. उन्हें पत्र लिखा कि आप चंपारण सत्याग्रह से दूर रहें. गांधी ख़ुद किसानों से उनकी बात सुनने लगे. चंपारण में गांधी के आस-पास पब्लिक न्यूज़रूम बनाकर बैठ गई. वह अपनी शिकायतें प्रमाण के साथ उन्हें बताने लगी. उसके बाद भारत की आज़ादी की लड़ाई का इतिहास आप सबके सामने है.
Sep 06, 2019 07:29 (IST)
हम इस मोड़ पर हैं, जहां लोगों को सरकार तक पहुंचने के लिए मीडिया के बैरिकेड से लड़ना ही होगा. वर्ना उसकी आवाज़ व्हॉट्सऐप के इनबॉक्स में घूमती रह जाएगी. पहले लोगों को नागरिक बनना होगा, फिर स्टेट को बताना होगा कि उसका एक काम यह भी है कि वह हमारी नागरिकता के लिए ज़रूरी निर्भीकता का माहौल बनाए. स्टेट को क्वेश्चन करने का माहौल बनाने की ज़िम्मेदारी भी सरकार की है. एक सरकार का मूल्यांकन आप तभी कर सकते हैं, जब उसके दौर में मीडिया स्वतंत्र हो. इन्फॉरमेशन के बाद अब अगला अटैक इतिहास पर हो रहा है, जिससे हमें ताकत मिलती है, प्रेरणा मिलती है. उस इतिहास को छीना जा रहा है.
Sep 06, 2019 07:27 (IST)
यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि आज सिटिज़न जर्नलिस्ट होने के लिए आपको स्टेट और स्टेट की तरह बर्ताव करने वाले सिटिज़न से भी जूझना होगा. चुनौती सिर्फ स्टेट नहीं है, स्टेट जैसे हो चुके लोग भी हैं. सांप्रदायिकता और अंध-राष्ट्रवाद से लैस भीड़ के बीच दूसरे नागरिक भी डर जाते हैं. उनका जोखिम बढ़ जाता है. आपको अपने मोबाइल पर यह मैसेज देखकर घर से निकलना होता है कि मैसेज भेजने वाला मुझे लिंच कर देना चाहता है. आज का सिटिज़न दोहरे दबाव में हैं. उसके सामने चुनौती है कि वह इस मीडिया से कैसे लड़े. जो दिन-रात उसी के नाम पर अपना धंधा करता है.
Sep 06, 2019 07:27 (IST)
मुझे चंडीगढ़ की उस लड़की का मैसेज अब भी याद है. वह 'Prime Time' देख रही थी और उसके पिता TV बंद कर रहे थे. उसने अपने पिता की बात नहीं मानी और 'Prime Time' देखा. वह भारत के लोकतंत्र की सिटिज़न है. जब तक वह लड़की है, लोकतंत्र अपनी चुनौतियों को पार कर लेगा. उन बहुत से लोगों का ज़िक्र करना चाहता हूं, जिन्होंने पहले ट्रोल किया, गालियां दीं, मगर बाद में ख़ुद लिखकर मुझसे माफ़ी मांगी. अगर मुझे लाखों गालियां आई हैं, तो मेरे पास ऐसे हज़ारों मैसेज भी आए हैं. महाराष्ट्र के उस लड़के का मैसेज याद है, जो अपनी दुकान पर TV पर चल रहे नफरत वाले डिबेट से घबरा उठता है और अकेले कहीं जा बैठता है. जब घर में वह मेरा शो चलाता है, तो उसके पिता और भाई बंद कर देते हैं कि मैं देशद्रोही हूं. मेनस्ट्रीम मीडिया और आईटी सेल ने मेरे खिलाफ यह कैम्पेन चलाया है. आप समझ सकते हैं कि इस तरह के कैम्पेन से घरों में स्क्रीनिंग होने लगी है.
Sep 06, 2019 07:26 (IST)
'Prime Time' अक्सर लोगों के भेजे गए मैसेज के आधार पर बनने लगा है. ये व्हॉट्सऐप का रिवर्स इस्तेमाल था. एक तरफ राजनीतिक दल का आईटी सेल लाखों की संख्या में सांप्रदायिकता और ज़ेनोफोबिया फैलाने वाले मैसेज जा रहे थे, तो दूसरी तरफ से असली ख़बरों के मैसेज मुझ तक पहुंच रहे थे. मेरा न्यूज़रूम NDTV के न्यूज़रूम से शिफ्ट होकर लोगों के बीच चला गया है. यही भारत के लोकतंत्र की उम्मीद हैं, क्योंकि इन्होंने न तो सरकार से उम्मीद छोड़ी है और न ही सरकार से सवाल करने का रास्ता अभी बंद किया है. तभी तो वे मेनस्ट्रीम में अपने लिए खिड़की ढूंढ रहे हैं. जब यूनिवर्सिटी की रैंकिंग के झूठे सपने दिखाए जा रहे थे, तब कॉलेजों के छात्र अपने क्लासरूम और टीचर की संख्या मुझे भेजने लगे. 10,000 छात्रों पर 10-20 शिक्षकों वाले कॉलेज तक मैं कैसे पहुंच पाता, अगर लोग नहीं आते. जर्नलिज़्म इज़ नेवर कम्प्लीट विदाउट सिटिज़न एंड सिटिज़नशिप. मीडिया जिस दौर में स्टेट के हिसाब से सिटिज़न को डिफाइन कर रहा था, उसी दौर में सिटिज़न अपने हिसाब से मुझे डिफाइन करने लगे. डेमोक्रेसी में उम्मीदों के कैक्टस के फूल खिलने लगे.
Sep 06, 2019 07:26 (IST)
'Prime Time' का मिजाज़ (नेचर) बदल गया. हज़ारों नौजवानों के मैसेज आने लगे कि सेंट्रल गर्वनमेंट और स्टेट गर्वनमेंट सरकारी नौकरी की परीक्षा दो से तीन साल में भी पूरी नहीं करती हैं. जिन परीक्षाओं के रिज़ल्ट आ जाते हैं, उनमें भी अप्वाइंटमेंट लेटर जारी नहीं करती हैं. अगर मैं सारी परीक्षाओं में शामिल नौजवानों की संख्या का हिसाब लगाऊं, तो रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहे नौजवानों की संख्या एक करोड़ तक चली जाती है. 'Prime Time' की 'जॉब सीरीज़' का असर होने लगा और देखते-देखते कई परीक्षाओं के रिज़ल्ट निकले और अप्वाइंटमेंट लेटर मिला. जिस स्टेट से मैं आता हूं, वहां 2014 की परीक्षा का परिणाम 2018 तक नहीं आया था. बस मेरा व्हॉट्सऐप नंबर पब्लिक न्यूज़रूम में बदल गया. सरकार और पार्टी सिस्टम में जब मेरे सीक्रेट सोर्स किनारा करने लगे, तब पब्लिक मेरे लिए ओपन सोर्स बन गई.
Sep 06, 2019 07:25 (IST)
ठीक उसी समय में, जब न्यूज़ चैनलों से आम लोग ग़ायब कर दिए गए, और उन पर डिबेट शो के ज़रिये पोलिटिकल एजेंडा थोपा जाने लगा, एक तरह के नैरेटिव से लोगों को घेरा जाने लगा, उसी समय में लोग इस घेरे को तोड़ने का प्रयास भी कर रहे थे. गालियों और धमकियों के बीच ऐसे मैसेज की संख्या बढ़ने लगी, जिनमें लोग सरकार से डिमांड कर रहे थे. मैं लोगों की समस्याओं से ट्रोल किया जाने लगा. क्या आप नहीं बोलेंगे, क्या आप सरकार से डरते हैं...? मैंने उन्हें सुनना शुरू कर दिया.
Sep 06, 2019 07:23 (IST)
जब रूलिंग पार्टी ने मेरे शो का बहिष्कार किया था, तब मेरे सारे रास्ते बंद हो गए थे. उस समय यही वे लोग थे, जिन्होंने अपनी समस्याओं से मेरे शो को भर दिया. जिस मेनस्ट्रीम मीडिया ने सिटिज़न जर्नलिज़्म के नाम पर ज़र्नलिज़्म और सत्ता के खिलाफ बोलने वाले तक को आउटसोर्स किया था, जिससे लोगों के बीच मीडिया का भ्रम बना रहे, सिटिज़न के इस समूह ने मुझे मेनस्ट्रीम मीडिया में सिटिज़न जर्नलिस्ट बना दिया. मीडिया का यही भविष्य होना है. उसके पत्रकारों को सिटिज़िन जर्नलिस्ट बनना है, ताकि लोग सिटिज़न बन सकें.
Sep 06, 2019 07:23 (IST)
मुझे हर दिन व्हॉट्सएप पर 500 से 1,000 मैसेज आते हैं. कभी-कभी यह संख्या ज़्यादा भी होती है. हर दूसरे मैसेज में लोग अपनी समस्या के साथ पत्रकारिता का मतलब भी लिखते हैं. मेनस्ट्रीम न्यूज़ मीडिया भले ही पत्रकारिता भूल गया है, लेकिन जनता को याद है कि पत्रकारिता की परिभाषा कैसी होनी चाहिए. जब भी मैं अपना व्हॉट्सएप खोलता हूं, यह देखने के लिए कि मेरे ऑफिस के ग्रुप में किस तरह की सूचना आई है, मैं वहां तक पहुंच ही नहीं पाता. मैं हज़ारों लोगों की सूचना को देखने में ही उलझ जाता हूं, इसलिए मैं अपने व्हॉट्सएप को पब्लिक न्यूज़रूम कहता हूं. देशभर में मेरे नंबर को ट्रोल ने वायरल किया कि मुझे गाली दी जाए. गालियां आईं, धमकियां भी आईं. आ रही हैं, लेकिन उसी नंबर पर लोग भी आए. अपनी और इलाके की ख़बरों को लेकर. ये वे ख़बरें हैं, जो न्यूज़ चैनलों की परिभाषा के हिसाब से ख़त्म हो चुकी हैं, मगर उन्हीं चैनलों को देखने वाले ये लोग जब ख़ुद परेशानी में पड़ते हैं, तो उन्हें पत्रकार का मतलब पता होता है. उनके ज़हन से पत्रकारिता का मतलब अभी समाप्त नहीं हुआ है.
Sep 06, 2019 07:22 (IST)
जब स्टेट और मीडिया एक होकर सिटिज़न को कंट्रोल करने लगें, तब क्या कोई सिटिज़न जर्नलिस्ट के रूप में एक्ट कर सकता है...? सिटिज़न बने रहने और उसके अधिकारों को एक्सरसाइज़ करने के लिए ईको-सिस्टम भी उसी डेमोक्रेसी को प्रोवाइड कराना होता है. अगर कोर्ट, पुलिस और मीडिया होस्टाइल हो जाएं, फिर सोसायटी का वह हिस्सा, जो स्टेट बन चुका है, आपको एक्सक्लूड करने लगे, तो हर तरह से निहत्था होकर एक नागरिक किस हद तक लड़ सकता है...? नागरिक फिर भी लड़ रहा है.
Sep 06, 2019 07:22 (IST)
भारत में लोगों के बीच लोकतंत्र ख़ूब ज़िंदा है. हर दिन सरकार के खिलाफ ज़ोरदार प्रदर्शन हो रहे हैं, मगर मीडिया अब इन प्रदर्शनों की स्क्रीनिंग करने लगा है. इनकी अब ख़बरें नहीं बनती. उसके लिए प्रदर्शन करना, एक फालतू काम है. बगैर डेमॉन्स्ट्रेशन के कोई भी डेमोक्रेसी डेमोक्रेसी नहीं हो सकती है. इन प्रदर्शनों में शामिल लाखों लोग अब खुद वीडियो बनाने लगे हैं. फोन से बनाए गए उस वीडियो में खुद ही रिपोर्टर बन जाते हैं और घटनास्थल का ब्योरा देने लगते हैं, जिसे बाद में प्रदर्शन में आए लोगों के व्हॉट्सऐप ग्रुप में चलाया जाता है. इन्फॉरमेशन का मीडिया उन्हें जिस नागरिकता का पाठ पढ़ा रहा है, उसमें नागरिक का मतलब यह नहीं कि वह सरकार के खिलाफ नारेबाज़ी करे. इसलिए नागरिक अपने होने का मतलब बचाए रखने के लिए व्हॉट्सएप ग्रुप के लिए वीडियो बना रहा है. आंदोलन करने वाले सिटिज़न जर्नलिज़्म करने लगते हैं. अपना वीडियो बनाकर यूट्यूब पर डालने लगते हैं.
Sep 06, 2019 07:22 (IST)
भारत में बहुत कुछ शानदार है, एक महान देश है, उसकी उपलब्धियां आज भी दुनिया के सामने नज़ीर हैं, लेकिन इसके मेनस्ट्रीम और TV मीडिया का ज़्यादतर हिस्सा गटर हो गया है. भारत के नागरिकों में लोकतंत्र का जज़्बा बहुत ख़ूब है, लेकिन न्यूज़ चैनलों का मीडिया उस जज़्बे को हर रात कुचलने आ जाता है. भारत में शाम तो सूरज डूबने से होती है, लेकिन रात का अंधेरा न्यूज चैनलों पर प्रसारित ख़बरों से फैलता है.
Sep 06, 2019 07:20 (IST)
जब मेनस्ट्रीम मीडिया में विपक्ष और असहमति गाली बन जाए, तब असली संकट नागरिक पर ही आता है. दुर्भाग्य से इस काम में न्यूज़ चैनलों की आवाज़ सबसे कर्कश और ऊंची है. एंकर अब बोलता नहीं है, चीखता है.
Sep 06, 2019 07:20 (IST)
यह स्टेट के नैरेटिव को पवित्र-सूचना (प्योर इन्फॉरमेशन) मानने लगा है. अगर आप इस मीडिया के ज़रिये किसी डेमोक्रेसी को समझने का प्रयास करेंगे, तो यह एक ऐसे लोकतंत्र की तस्वीर बनाता है, जहां सारी सूचनाओं का रंग एक है. यह रंग सत्ता के रंग से मेल खाता है. कई सौ चैनल हैं, मगर सारे चैनलों पर एक ही अंदाज़ में एक ही प्रकार की सूचना है. एक तरह से सवाल फ्रेम किए जा रहे हैं, ताकि सूचना के नाम पर धारणा फैलाई जा सके. इन्फॉरमेशन में धारणा ही सूचना है. (perception is the new information), जिसमें हर दिन नागरिकों को डराया जाता है, उनके बीच असुरक्षा पैदा की जाती है कि बोलने पर आपके अधिकार ले लिए जाएंगे. इस मीडिया के लिए विपक्ष एक गंदा शब्द है.
Sep 06, 2019 07:19 (IST)
भारत का मेनस्ट्रीम मीडिया पढ़े-लिखे नागरिकों को दिन-रात पोस्ट-इलिटरेट करने में लगा है. वह अंधविश्वास से घिरे नागरिकों को सचेत और समर्थ नागरिक बनाने का प्रयास छोड़ चुका है. अंध-राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता उसके सिलेबस का हिस्सा हैं.
Sep 06, 2019 07:17 (IST)
जब मीडिया ही सिटिज़न के खिलाफ हो जाए, तो फिर सिटिज़न को मीडिया बनना ही पड़ेगा. यह जानते हुए कि स्टेट कंट्रोल के इस दौर में सिटिज़न और सिटिज़न जर्नलिज़्म दोनों के ख़तरे बहुत बड़े हैं और सफ़लता बहुत दूर नज़र आती है. उसके लिए स्टेट के भीतर से इन्फॉरमेशन हासिल करने के दरवाज़े पूरी तरह बंद हैं. मेनस्ट्रीम मीडिया सिटिज़न जर्नलिज़्म में कॉस्ट कटिंग और प्रॉफिट का स्कोप बनाना चाहता है और इसके लिए उसका सरकार का PR होना ज़रूरी है. सिटिज़न जर्नलिज़्म संघर्ष कर रहा है कि कैसे वह जनता के सपोर्ट पर सरकार और विज्ञापन के जाल से बाहर रह सके.
Sep 06, 2019 07:16 (IST)
आज कोई लड़की कश्मीर में 'बगदाद बर्निंग' की तरह ब्लॉग लिख दे, तो मेनस्ट्रीम मीडिया उसे एन्टी-नेशनल बताने लगेगा. मीडिया लगातार सिटिज़न जर्नलिज़्म के स्पेस को एन्टी-नेशनल के नाम पर डि-लेजिटिमाइज़ करने लगा है, क्योंकि उसका इंटरेस्ट अब जर्नलिज़्म में नहीं है. ज़र्नलिज़्म के नाम पर मीडिया स्टेट का कम्प्राडोर है, एजेंट है. मेरे ख़्याल से सिटिज़न ज़र्नलिज़्म की कल्पना का बीज इसी वक्त के लिए है, जब मीडिया या मेनस्ट्रीम जर्नलिज़्म सूचना के खिलाफ हो जाए. उसे हर वह आदमी देश के खिलाफ नज़र आने लगे, जो सूचना पाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है. मेनस्ट्रीम मीडिया नागरिकों को सूचना से वंचित करने लगे. असमहति की आवाज़ को गद्दार कहने लगे. इसीलिए यह टेस्टिंग टाइम है.
Sep 06, 2019 07:16 (IST)
अब आप इस संदर्भ में आज के विषय के टॉपिक को फ्रेम कीजिए. यह तो वही मीडिया है, जिसने अपने खर्चे में कटौती के लिए 'सिटिज़न जर्नलिज़्म' को गढ़ना शुरू किया था. इसके ज़रिये मीडिया ने अपने रिस्क को आउटसोर्स कर दिया. मेनस्ट्रीम मीडिया के भीतर सिटिज़न जर्नलिज़्म और मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर के सिटिज़न जर्नलिज़्म दोनों अलग चीज़ें हैं. लेकिन जब सोशल मीडिया के शुरुआती दौर में लोग सवाल करने लगे, तो यही मीडिया सोशल मीडिया के खिलाफ हो गया. न्यूज़रूम के भीतर ब्लॉग और वेबसाइट बंद किए जाने लगे. आज भी कई सारे न्यूज़रूम में पत्रकारों को पर्सनल ओपिनियन लिखने की अनुमति नहीं है. यह अलग बात है कि उसी दौरान बगदाद बर्निंग ब्लॉग के ज़रिये 24 साल की छात्रा रिवरबेंड (असल नाम सार्वजनिक नहीं किया गया) की इराक पर हुए हमले, युद्ध और तबाही की रोज की स्थिति ब्लॉग पोस्ट की शक्ल में आ रही थी और जिसे साल 2005 में 'Baghdad Burning: Girl Blog from Iraq' शीर्षक से किताब की शक्ल में पेश किया गया, तो दुनिया के प्रमुख मीडिया संस्थानों ने माना कि जो काम सोशल मीडिया के ज़रिये एक लड़की ने किया, वह हमारे पत्रकार भी नहीं कर पाते. यह सिटिजन ज़र्नलिज़्म है, जो मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर हुआ.
Sep 06, 2019 07:15 (IST)
दूसरी तरफ, जब 'कश्मीर टाइम्स' की अनुराधा भसीन भारत के सुप्रीम कोर्ट जाती हैं, तो उनके खिलाफ प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया कोर्ट चला जाता है. यह कहने कि कश्मीर घाटी में मीडिया पर लगे बैन का वह समर्थन करता है. मेरी राय में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और पाकिस्तान के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी का दफ्तर एक ही बिल्डिंग में होना चाहिए. गनीमत है कि एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कश्मीर में मीडिया पर लगी रोक की निंदा की और प्रेस कांउंसिल ऑफ इंडिया की भी आलोचना की. पी.सी.आई. बाद में स्वतंत्रता के साथ हो गया. दोनों देशों के नागरिकों को सोचना चाहिए, लोकतंत्र एक सीरियस बिज़नेस है. प्रोपेगंडा के ज़रिये क्या वह एक दूसरे में भरोसा पैदा कर पाएंगे...? होली नहीं है कि इधर से गुब्बारा मारा, तो उधर से गुब्बारा मार दिया. वैसे, भारत के न्यूज़ चैनल परमाणु हमले के समय बचने की तैयारी का लेक्चर दे रहे हैं. बता रहे हैं कि परमाणु हमले के वक्त बेसमेंट में छिप जाएं. आप हंसें नहीं. वे अपना काम काफी सीरियसली कर रहे हैं.
Sep 06, 2019 07:15 (IST)
यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के सारे पड़ोसी प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में निचले पायदान पर हैं. पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और भारत. नीचे की रैंकिंग में भी ये पड़ोसी हैं. पाकिस्तान में एक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी है, जो अपने न्यूज़ चैनलों को निर्देश देता है कि कश्मीर पर किस तरह से प्रोपेगंडा करना है. कैसे रिपोर्टिंग करनी है. इसे वैसे तो सरकारी भाषा में सलाह कहते हैं, मगर होता यह निर्देश ही है. बताया जाता है कि कैसे 15 अगस्त के दिन स्क्रीन को खाली रखना है, ताकि वे कश्मीर के समर्थन में काला दिवस मना सकें. जिसकी समस्या का पाकिस्तान भी एक बड़ा कारण है.
Sep 06, 2019 07:14 (IST)
कश्मीर में दूसरी कहानी है. वहां कई दिनों के लिए सूचना तंत्र बंद कर दिया गया. एक करोड़ से अधिक की आबादी को सरकार ने सूचना संसार से अलग कर दिया. इंटरनेट शटडाउन हो गया. मोबाइल फोन बंद हो गए. सरकार के अधिकारी प्रेस का काम करने लगे और प्रेस के लोग सरकार का काम करने लग गए. क्या आप बग़ैर कम्युनिकेशन और इन्फॉरमेशन के सिटिज़न की कल्पना कर सकते हैं...? क्या होगा, जब मीडिया, जिसका काम सूचना जुटाना है, सूचना के तमाम नेटवर्क के बंद होने का समर्थन करने लगे, और वह उस सिटिज़न के खिलाफ हो जाए, जो अपने स्तर पर सूचना ला रहा है या ला रही है या सूचना की मांग कर रहा है.
Sep 06, 2019 07:14 (IST)
दुनिया के कई देशों में यह स्टेट सिस्टम, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल है, और लोगों के बीच लेजिटिमाइज़ हो चुका है. फिर भी हम कश्मीर और हांगकांग के उदाहरण से समझ सकते हैं कि लोगों के बीच लोकतंत्र और नागरिकता की क्लासिक समझ अभी भी बची हुई है और वे उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं. आख़िर क्यों हांगकांग में लोकतंत्र के लिए लड़ने वाले लाखों लोगों का सोशल मीडिया पर विश्वास नहीं रहा. उन्हें उस भाषा पर भी विश्वास नहीं रहा, जिसे सरकारें जानती हैं. इसलिए उन्होंने अपनी नई भाषा गढ़ी और उसमें आंदोलन की रणनीति को कम्युनिकेट किया. यह नागरिक होने की रचनात्मक लड़ाई है. हांगकांग के नागरिक अपने अधिकारों को बचाने के लिए उन जगहों के समानांतर नई जगह पैदा कर रहे हैं, जहां लाखों लोग नए तरीके से बात करते हैं, नए तरीके से लड़ते हैं और पल भर में जमा हो जाते हैं. अपना ऐप बना लिया और मेट्रो के इलेक्ट्रॉनिक टिकट ख़रीदने की रणनीति बदल ली. फोन के सिमकार्ड का इस्तेमाल बदल लिया. कंट्रोल के इन सामानों को नागरिकों ने कबाड़ में बदल दिया. यह प्रोसेस बता रहा है कि स्टेट ने नागरिकता की लड़ाई अभी पूरी तरह नहीं जीती है. हांगकांग के लोग सूचना संसार के आधिकारिक नेटवर्क से ख़ुद ही अलग हो गए.
Sep 06, 2019 07:14 (IST)
न्यूज़ चैनलों की डिबेट की भाषा लगातार लोगों को राष्ट्रवाद के दायरे से बाहर निकालती रहती है. इतिहास और सामूहिक स्मृतियों को हटाकर उनकी जगह एक पार्टी का राष्ट्र और इतिहास लोगों पर थोपा जा रहा है. मीडिया की भाषा में दो तरह के नागरिक हैं - एक, नेशनल और दूसरा, एन्टी-नेशनल. एन्टी नेशनल वह है, जो सवाल करता है, असहमति रखता है. असहमति लोकतंत्र और नागरिकता की आत्मा है. उस आत्मा पर रोज़ हमला होता है. जब नागरिकता ख़तरे में हो या उसका मतलब ही बदल दिया जाए, तब उस नागरिक की पत्रकारिता कैसी होगी. नागरिक तो दोनों हैं. जो ख़ुद को नेशनल कहता है, और जो एन्टी-नेशनल कहा जाता है.
Sep 06, 2019 07:14 (IST)
नागरिकता के लिए ज़रूरी है कि सूचनाओं की स्वतंत्रता और प्रामाणिकता हो. आज स्टेट का मीडिया और उसके बिज़नेस पर पूरा कंट्रोल हो चुका है. मीडिया पर कंट्रोल का मतलब है, आपकी नागरिकता का दायरा छोटा हो जाना. मीडिया अब सर्वेलान्स स्टेट का पार्ट है. वह अब फोर्थ एस्टेट नहीं है, बल्कि फर्स्ट एस्टेट है. प्राइवेट मीडिया और गर्वनमेंट मीडिया का अंतर मिट गया है. इसका काम ओपिनियन को डायवर्सिफाई नहीं करना है, बल्कि कंट्रोल करना है. ऐसा भारत सहित दुनिया के कई देशों में हो रहा है.
Sep 06, 2019 07:14 (IST)
नागरिक पत्रकारिता
यह समय नागरिक होने के इम्तिहान का है. नागरिकता को फिर से समझने का है और उसके लिए लड़ने का है. यह जानते हुए कि इस समय में नागरिकता पर चौतरफा हमला हो रहे हैं और सत्ता की निगरानी बढ़ती जा रही है, एक व्यक्ति और एक समूह के तौर पर जो इस हमले से ख़ुद को बचा लेगा और इस लड़ाई में मांज लेगा, वही नागरिक भविष्य के बेहतर समाज और सरकार की नई बुनियाद रखेगा. दुनिया ऐसे नागरिकों की ज़िद से भरी हुई है. नफ़रत के माहौल और सूचनाओं के सूखे में कोई है, जो इस रेगिस्तान में कैक्टस के फूल की तरह खिला हुआ है. रेत में खड़ा पेड़ कभी यह नहीं सोचता कि उसके यहां होने का क्या मतलब है, वह दूसरों के लिए खड़ा होता है, ताकि पता चले कि रेत में भी हरियाली होती है. जहां कहीं भी लोकतंत्र हरे-भरे मैदान से रेगिस्तान में सबवर्ट किया जा रहा है, वहां आज नागरिक होने और सूचना पर उसके अधिकारी होने की लड़ाई थोड़ी मुश्किल ज़रूर हो गई है. मगर असंभव नहीं है.
Sep 06, 2019 07:09 (IST)
ख़ैर, फिलीपीन्स के नंबर को उठाने से पहले अपने सहयोगियों से कहा कि ट्रोल की भाषा सुनाता हूं. मैंने फोन को स्पीकर फोन पर ऑन किया, लेकिन अच्छी-सी अंग्रेज़ी में एक महिला की आवाज़ थी, "May I please speak to Mr Ravish Kumar...?" हज़ारों ट्रोल में एक भी महिला की आवाज़ नहीं थी. मैंने फोन को स्पीकर फोन से हटा लिया. उस तरफ से आ रही आवाज़ मुझसे पूछ रही थी कि मुझे इस साल का रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार दिया जा रहा है. मैं नहीं आया हूं, मेरी साथ पूरी हिन्दी पत्रकारिता आई है, जिसकी हालत इन दिनों बहुत शर्मनाक है. गणेश शंकर विद्यार्थी और पीर मूनिस मोहम्मद की साहस वाली पत्रकारिता आज डरी-डरी-सी है. उसमें कोई दम नहीं है. अब मैं अपने विषय पर आता हूं.
Sep 06, 2019 07:08 (IST)
दो महीने पहले जब मैं 'Prime Time' की तैयारी में डूबा था, तभी सेलफोन पर फोन आया. कॉलर आईडी पर फिलीपीन्स फ्लैश कर रहा था. मुझे लगा कि किसी ट्रोल ने फोन किया है. यहां के नंबर से मुझे बहुत ट्रोल किया जाता है. अगर वाकई वे सारे ट्रोल यहीं रहते हैं, तो उनका भी स्वागत है, मैं आ गया हूं.
Sep 06, 2019 07:07 (IST)
नमस्कार, भारत चांद पर पहुंचने वाला है. गौरव के इस क्षण में मेरी नज़र चांद पर भी है और ज़मीन पर भी, जहां चांद से भी ज़्यादा गहरे गड्ढे हैं. दुनियाभर में सूरज की आग में जलते लोकतंत्र को चांद की ठंडक चाहिए. यह ठंडक आएगी सूचनाओं की पवित्रता और साहसिकता से, न कि नेताओं की ऊंची आवाज़ से. सूचना जितनी पवित्र होगी, नागरिकों के बीच भरोसा उतना ही गहरा होगा. देश सही सूचनाओं से बनता है. फेक न्यूज़, प्रोपेगंडा और झूठे इतिहास से भीड़ बनती है. रैमॉन मैगसेसे फाउंडेशन का शुक्रिया, मुझे हिन्दी में बोलने का मौका दिया, वरना मेरी मां समझ ही नहीं पातीं, कि क्या बोल रहा हूं. आपके पास अंग्रेज़ी में अनुवाद है और यहां सब-टाइटल हैं.