सिर्फ नाम का रह गया मध्य प्रदेश का पहला कैशलेस गांव, अब सब कुछ नकदी में ही होता है लेन-देन

साल भर पहले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 25 किलोमीटर दूर बड़झिरी राज्य का पहला कैशलेस गांव बना

सिर्फ नाम का रह गया मध्य प्रदेश का पहला कैशलेस गांव, अब सब कुछ नकदी में ही होता है लेन-देन

खास बातें

  • भोपाल से सिहोर जाने वाली सड़क पर बसा है बड़झिरी गांव.
  • बिजली और इंटरनेट की तकलीफ से जूझ रहा है ये गांव.
  • गांव के 2000 लोगों को बैंक ऑफ बड़ौदा ने कार्ड बांटे
भोपाल:

साल भर पहले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 25 किलोमीटर दूर बड़झिरी राज्य का पहला कैशलेस गांव बना. राज्य के वित्तमंत्री जयंत मलैया ने इसे आजादी के बाद दूसरी लड़ाई बताई लेकिन साल भर बाद गांव की तस्वीर जस की तस है.  दुकानों में पीओएस मशीनें दुकानदारों ने महीनों पहले ही अंदर रख दी. गांव को बैंक ऑफ बड़ौदा ने गोद लिया था लेकिन गांव बिजली और इंटरनेट की तकलीफों से जूझ रहा है. गांव में 2000 ग्रामीणों के बैंक खाते खोलकर उन्हें डेबिट कार्ड दिये गये थे लेकिन कई लोगों ने इसका कभी इस्तेमाल नहीं किया. 

बिजली और इंटरनेट की तकलीफ से जूझ रहा है ये गांव
भोपाल से सिहोर जाने वाली सड़क पर बसा है बड़झिरी. गांव में घुसते ही, बैंक ऑफ बड़ौदा का एटीएम सेंटर बताता है कि गांव साल भर पहले कैशलेस घोषित हुआ था. बैंक मित्र वीरेन्द्र ने बताया कि दो दिन से एटीएम ख़राब पड़ा था.  तकरीबन तीन सौ घरों वाले गांव की आबादी ढाई तीन हजार के करीब है. गांव के अधिकतर लोग खेती से जुडे हैं. जब गांव डिजिटल बना तो कई दुकानों में पीओएस मशीनें दी गईं.  जनरल स्टोर में भी मशीन आई, पेटीएम भी लिया गया.  एक दुकान के मालिक कहना है कि लगभग सारे लोग नकद देकर ही सामान खरीदते हैं.

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पीओएस मशीन का इस्तेमाल नहीं हो रहा है
जीतेन्द्र सोलंकी नामक शख्स ने पीओएस मशीन को अलमारी में रख दिया है. उन्होंने बताया कि 'तीन महीने तक पीओएस चला उसके बाद उसका इस्तेमाल कम होता गया. जून से मशीन का कोई इस्तेमाल नहीं हुआ है. तकनीकी दिक्कतों की वजह से हमें भी मुश्किल होती है. ग्राहक भी बच्चों को भेज रहे हैं, दस रुपये के सामान में कार्ड कहां लेंगे.'

इसी गांव में विश्राम मीणा मोबाइल रिचार्ज करते हैं, फोन बेचते हैं.  इनकी भी पीओएस मशीन धूल खाती मिली. इनके दुकान में भी डिजिटल लेन-देन अब ना के बराबर होता है. जीतेन्द्र हार्डवेयर, खेती से जुड़े सामान बेचते हैं, कृषि सेवा केन्द्र भी चलाते हैं. उनका कहना है कि "लोगों को आइडिया नहीं है कि डिजिटल पेमेंट कैसे होता है. लोग अब भी नकदी पर भरोसा करते हैं .कहते हैं डिजिटल पेमेंट पर लगने वाले चार्ज की वजह से भी लोग कार्ड का इस्तेमाल कम करते हैं. यहां किसान आते हैं, मुश्किल से 15 परसेंट मशीन से पैसे आते हैं. सब कैश पर यकीन करते हैं. पेटीएम में 3 परसेंट चार्ज लगता है इसलिये लोग कैश देते हैं." 

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अब गांव में सब कैश में ही होता है
गांव में ग्राहकों, किसानों की भी अपनी दलील है.  कोई कहता है कैश लेन-देन उसकी आदत है, तो किसी के पास कार्ड ही नहीं है. दुर्गेश ने कहा "मुझे लगा ही नहीं कभी कि कार्ड का इस्तेमाल करूं, कैश का काम करता हूं. करना नहीं चाहता, कैश दिया खेल खत्म." वहीं मांगीराम जो खेतिहर मज़दूर हैं उनका कहना है कि उनके पास कार्ड ही नहीं है. ना खेती ना बाड़ी क्या करेंगे, आधार बड़ी मुश्किल से बनवाया है, फोन भी नहीं है.  वहीं गोरालाल ने कहा "हम कार्ड से पेमेंट नहीं करते हैं, हमारे पास फोन भी नहीं है.  सब नकद होता है. मेहनत करते हैं, मजदूरी करते हैं. यहां कोई धंधा ही नहीं है."

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गांव के 2000 लोगों को बैंक ऑफ बड़ौदा ने कार्ड बांटे
गांव के सरपंच के भाई का कहना है कि "यहां अशिक्षा और गरीबी की वजह से अधिकतर लेन-देन नकदी में ही होता है. गांव में पानी की भारी किल्लत है, जिससे लोगों के पास वैसे भी नकद कम है. छोटे तालाब में जलस्तर सूखा है, बोरिंग 600 फीट तक है. पानी सूख जाता है. कैशलेश से पहले हमें पानी की ज़रूरत है." गांव को नकदी से मुक्त रखने के लिये यहां बैंक ऑफ बड़ौदा ने ग्राहक सेवा केन्द्र भी खोल रखा है. बताया गया कि शुरूआत में ही 2000 लोगों को कार्ड दिया गये, लेकिन फिलहाल बड़झिरी के लिये कैशलेस गांव का तमगा दूर की कौड़ी ही दिख रहा है.
 


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