यह ख़बर 11 अगस्त, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : क्या कहती है सोशल मीडिया के धुरंधर मोदी की चुप्पी?

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

महाराष्ट्र सदन में 11 शिवसैनिक एक मुस्लिम कैन्टीन वाले के मुंह में रोटी ठूंसकर हुड़दंग मचा देते हैं, जबकि वह कैन्टीनकर्मी लगातार यह कहकर रोकने की कोशिश कर रहा है कि पाक महीने रमज़ान के दौरान उसने रोज़ा रखा हुआ है, और महान संचारक खुद भी चुप्पी साधे रहते हैं, और उनका ट्विटर एकाउंट भी शांत रहता है... पुणे में एक निर्दोष मुस्लिम इंजीनियर की हत्या सिर्फ मुस्लिम टोपी पहनने और दाढ़ी बढ़ाने के 'अपराध' में कर दी जाती है, और सोशल मीडिया के धुरंधर के पास अपने फेसबुक एकाउंट पर कहने के लिए अंग्रेज़ी में तो छोड़िए, हिन्दी में भी कुछ नहीं, कतई कुछ नहीं होता... केरल में मोदी को लेकर मज़ाक करने वाले 19 बच्चों - सभी मुस्लिम - को पुलिस धर लेती है, और मोदी के पास स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को लेकर कहने के लिए कुछ भी नहीं... उनके समर्थक उनके बचाव में कहते हैं कि ये सब घटनाएं कांग्रेस-शासित प्रदेशों में हुई हैं, तथा प्रधानमंत्री सिर्फ इसलिए खामोश हैं, ताकि हमारे 'सहयोगात्मक संघीय' ढांचे के हितों को हानि न पहुंचे। यही तर्क तृणमूल कांग्रेस के सांसद तापस पाल के घृणित बयान के समय उनकी चुप्पी के लिए भी दिया गया था। वहां भी सरकार बीजेपीकी नहीं है। तो फिर उस स्थिति में वह सिर्फ बदायूं में हुए रेप और हत्याओं के मामले में ही क्यों बोले, जबकि वहां भी समाजवादी पार्टी, बीजेपी नहीं, सत्ता में है... क्या इसलिए, क्योंकि 'मौलाना' मुलायम को निशाना बनाना आसान है।

मोदी की सरकार के एक मंत्री पर बलात्कार का आरोप लगता है - और प्रधानमंत्री अड़ियलपन से मंत्री जी को निकालना तो दूर, निलंबित करने से भी इनकार कर देते हैं। और जब तेलंगाना विधानसभा का एक बीजेपी सदस्य टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा जैसी सम्माननीय महिला और युवाओं की प्रेरणास्रोत के खिलाफ निंदनीय और अपमानजनक बयान देता है, प्रधानमंत्री कार्यालय की चुप्पी कानों को बेतरह चुभती है। क्या यह इत्तफाक है कि सानिया एक मुस्लिम है - और क्या मोदी जी के विचार अपने विधायक जैसे ही हैं कि चूंकि सानिया ने एक पाकिस्तानी से निकाह करने का दुस्साहस किया, इसलिए उसे निकाल दिया जाना चाहिए। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि 700 मासूम फिलस्तीनियों के नरसंहार पर उनके चेहरों पर कतई सहानुभूति नहीं झलकती? जो शख्स प्रत्येक चुनावी मंच पर कांग्रेस के 'बिकाऊपन' के बारे में गरजता था, और इसी बारे में बेतहाशा ट्वीट करता था, क्या उसने अपने मोबाइल को साइलेंट मोड में कर लिया है, और लैपटॉप को ताला लगा दिया है? क्या ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि वह अपने कामकाज के बोझ तले कुछ ज़्यादा दब गए हैं, जैसा कि उनके समर्थकों का दावा है? या फिर यह उनकी बेबसी का प्रतीक है?

भले ही वह कितना ही चाहते रहें कि सब लोग अतीत को भूलकर भविष्य की ओर निहारें (जैसा कि राज्यसभा में धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस का जवाब देते हुए उन्होंने अपील की थी), अतीत इस समय तक 7, रेसकोर्स रोड को डराना बंद नहीं करेगा, जब तक वह वर्ष 2002 के नरसंहार के लिए अपनी जिम्मेदारी कबूल नहीं करते, कम से कम उन्हें सकारात्मक उत्तरदायित्व तो स्वीकार करना ही होगा। यह उन पर वार करने का हथियार नहीं है, बल्कि यह उन विधवाओं की गुहार है, जो आज भी रो रही हैं, उन मांओं का क्रन्दन है, जो अपने सपूतों को अब कभी न देख पाएंगी, उस नवविवाहिता की चीख है, जिसके गर्भाशय को धारदार हथियारों से चीरकर उसके भ्रूण को हवा में उछाल दिया गया था। दोबारा मेलमिलाप की खातिर किसी भी प्रकार की प्रक्रिया शुरू करने के लिए कम से कम शालीनता से सकारात्मक उत्तरदायित्व स्वीकार करना ही होगा। सभी पीड़ितों, जो आज तक पीड़ा के साथ ही जी रहे हैं, के लिए वास्तविक संवेदना जतानी होगी, अपना घर-बार और आजीविका खो चुके लोगों के लिए व्यापक पुनर्वास कार्यक्रम चलाना होगा, यानि उन तक पहुंच बनानी ही होगी, और साथ ही उस भयावह वारदात को अंजाम देने और दिलवाने वालों को दंडित करना होगा। बेगम जाफरी को 'उन शब्दों' के लिए दिलासा देना ही होगा, जो उनके मरहूम शौहर के मुताबिक फोन करने पर मुख्यमंत्री ने कहे थे, "क्या, वे अब तक तुम तक नहीं पहुंचे...?"

ये वे ज़ख्म हैं, जो सिर्फ भूल जाने या दूसरों से भूलने के लिए कह देने भर से नहीं भरने वाले। माफी पाने के लिए वास्तविक पश्चात्ताप की आवश्यकता होती है, पीड़ितों की तुलना कुत्ते के पिल्लों से करने की नहीं।

मोदी का समर्थन करने वाले निश्चित रूप से अदालतों द्वारा मोदी को 'बरी' कर दिए जाने की बात कहेंगे, लेकिन उन्हें बरी नहीं किया गया है। एक स्थानीय अदालत ने कहा है कि कार्यवाही आगे नहीं बढ़ सकती, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित की गई स्पेशल इन्वेस्टिगशन टीम (एसआईटी) ने कहा है कि वे उनके खिलाफ कोई 'अभियोजनयोग्य सबूत' नहीं खोज सके। उन्होंने यह नहीं कहा है कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है, बल्कि उन्होंने सिर्फ इतना कहा है कि वे कोई सबूत ढूंढने में नाकाम रहे हैं।

दूसरी ओर, एसआईटी का गठन करने वाली सुप्रीम द्वारा ही नियुक्त एमिकस क्यूरी ने कोर्ट को रिपोर्ट करते हुए कुछ अलग ही बात की। उन्होंने कहा कि मोदी के खिलाफ अपराधों की ओर से आंखें मूंदे रखने तथा उचित कार्रवाई नहीं करने, दोनों के निंदनीय सबूत मिले हैं। सो, दो स्तरों पर अङियोज्यता तय की जा सकती है, जिनमें से एक है कानूनी पहलू, और दूसरा है नैतिक पहलू। एक ओर, जहां हो सकता है कि न्यायपालिका के उच्च पदों से कानूनी उत्तरदायित्व को लेकर कोई अलग ही फैसला आए, लेकिन नैतिक आधार पर मामला शीशे की तरह साफ है - वह नृशंस नरसंहार उनके सामने हुआ, सो, कुछ ज़िम्मेदारी मुख्यमंत्री की बननी ही चाहिए।

कोई भी नीतिवान व्यक्ति बेझिझक नैतिक उत्तरदायित्व स्वीकार कर लेता, कोई भी नीतिवान व्यक्ति कम से कम अपने सबसे करीबी व्यक्ति को मंत्री के रूप में नियुक्त नहीं करता, जिसे दोषी करार दिया जा चुका हो, और वस्तुतः आजीवान कारावास की सज़ा सुनाई जा चुकी हो। लोकिन मोदी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते - नैतिक ज़िम्मेदारी भी नहीं। बल्कि, उन्होंने नरसंहार शुरू होने के एक महीने बाद तक तो राहत और पुनर्वास कार्यक्रमों के बारे में भी बात तक नहीं की। तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा लगभग हड़काए जाने के बाद ही उन्होंने कुछ असम्बद्ध कमद उठाने शुरू किए। नैतिक कर्तव्यों का निर्वहन करने में बरती गई इसी लापरवाही के कारण ही गुजराती समाज इतनी बुरी तरह बंटा हुआ है कि अहमदाबाद और वड़ोदरा जैसे शहरों में मुस्लिम इलाकों को आमतौर पर 'पाकिस्तान' कहकर पुकारा जाता है।

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इस सांप्रदायिक बंटवारे ने मोदी को चुनावों में जोरदार फायदा पहुंचाया है - पहले गुजरात में, और अब पूरे देश में, लेकिन देश ने नुकसान उठाया है। यह नुकसान जारी रहेगा... और यही कीमत चुकानी पड़ती है, जब नेतृत्व में नैतिकता का अभाव हो।

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