ग्राउंड जीरो रिपोर्ट: भारत बंद में हुई हिंसा के बाद झूठे केस और गिरफ्तारी के साये में दलित, गांव पड़े हैं सुनसान

पुलिस की इन एफआईआर की वजह से जलितवाड़ा, गाजियाबाद जैसे दलित इलाकों में सड़कें सूनसान हो गई हैं. 

ग्राउंड जीरो रिपोर्ट: भारत बंद में हुई हिंसा के बाद झूठे केस और गिरफ्तारी के साये में दलित, गांव पड़े हैं सुनसान

बुलंदशहर के जाडोल में कई सारे दलित लोग अभी भी घर से भागे हुए हैं.

खास बातें

  • उत्तर प्रदेश में पुलिस पर लगे हैं झूठे मुकदमे दर्ज करने के आरोप.
  • बुलंदशहर के कई गांव हैं सुनसान.
  • 2 अप्रैल को भारत बंद के दौरान हिंसा हुई थी.
नई दिल्ली:

गाजियाबाद पुलिस द्वारा दर्ज किये गये दो शुरुआती एफआईआर में स्कूल का संचालन करने वाले एक ऐसे दलित सामाजिक कार्यकर्ता का नाम शामिल है, जिनके ऊपर दलितों के भारत बंद के दौरान दंगा फैलाने और हत्या करने का प्रयास करने के आरोप लगे हैं. इस 85 वर्षीय दलित सामाजिक कार्यकर्ता का नाम है श्रीराम हितैशी. 2 अप्रैल को दलितों के भारत बंद के दौरान हुई हिंसा के बाद ये एफआईआर दायर किए गए थे, जिस दिन दलित समूहों ने एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने जैसे प्रावधानों के खिलाफ सड़कों पर उतर भारत बंद का आह्वान किया था.  

हितैशी भारत बंद प्रदर्शन के दौरान उपस्थित थे, मगर वह अपने स्कूटर के साथ थे. उनका दावा है कि जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय में एक शांतिपूर्ण जुलूस था. वब करीब तीन सप्ताह पहले दिल का दौरा पड़ने की वजह से चलने में असमर्थ थे. उनका कहना है कि उनकी पीठ में अभी भी दर्द है, जिसकी वजह से वह घूम-फिर नहीं कर पा रहे हैं. बावजूद इसके उनका नाम एफआईआर में है. हितैषी का कहना है कि पुलिस ने एफआईआर में उनका नाम इसलिए दिया है क्योंकि यहां के सारे लोग से भाग गये हैं. वे लोग अपने घर पर भी नहीं सो रहे हैं. 

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भारत बंद के बाद उत्तर प्रदेश में 192 एफआईआर दर्ज किए गए थे. उत्तर प्रदेश पुलिस का कहना है कि राज्य में दो लोगों की मौत हुई और 20 घायल हुए. 114 पुलिसकर्मी भी घायल हो गए, और 2 अप्रैल के दिन 672 गिरफ्तारियां हुईं. 

गाजियाबाद पुलिस ने 13 एफआईआर दर्ज किये हैं, जिनमें 295 लोगों को नामित किया गया है. इनमें ज्यादातर दलित हैं. 32 वर्षीय संजय सिंह का नाम भी उसी एफआईआर में है, जिसमें हितैशी का नाम शामिल है. संजय के ऊपर भी भी ऐसे ही आरोप हैं. संजय सिंह के पिता कमल सिंह ने अस्पताल के दस्तावेजों को दिखाया और कहा कि उनके बेटे का तीन साल से तपेदिक का इलाज चल रहा है, और 2 अप्रैल को टीबी केंद्र से वह अपनी दवा लेने गया था. कमल सिंह का कहना है कि उनका बेटा महज एक दो मिनट के लिए ही चल-फिर कर सकता है. उसे दम फूलने लगता है. मैं नहीं कह सकता कि आखिर कैसे उसका नाम इस सूची में दिखाई दे रहा है?

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गाजियाबाद के नायफल में एक और दलित युवा जयचंद के ऊपर भी हत्या का प्रयास करने और आपराधिक धमकी देने का आरोप लगाया गया है. उसका कहना है कि पैर में कई सारे घाव होने की वजह से वह 2 अप्रैल को अपने घर पर ही था. वह चल पाने में भी असमर्थ था. मुझे डर है कि पुलिस मुझे किसी भी वक्त पकड़ सकती है. 
 
एनडीटीवी ने जब गाजियाबाद के ही कुछ और दलितों से बात की तो उन्होंने कहा कि वे भारत बंद प्रदर्शन में शामिल थे, मगर हिंसा में उनका किसी तरह का रोल नहीं है. पुलिस की प्राथमिकी में चेतन आनंद (व्यापारी), महेश वर्मा (वकील), मनोज रजौड़िया (फोटोग्राफर), रवि, संजय और विजय आदि के नाम भी शामिल हैं, जिनके ऊपर इसी तरह के संगीन आरोप हैं. आनंद का कहना है कि यह महज एक मार्च था, जिसमें न कोई लड़ाई हुई, न कोई घातक हमला किया गया, न ही कारों को जलाया गया. उन्होंने कहा कि हमने ऐसा कुछ नहीं किया. 

एक और कमजोर कड़ी इस मामले की यह है कि जसवंत सिंह के बेटे सूरज और बिन्नी का नाम भी इस एफआईआर में दर्ज है. पुलिस की जांच प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए जसवंत सिंह ने कहा कि उनके बेटों को उनके नीक नाम छोटू और जस्सी के नाम से दर्ज किया गया है. आगे सिंह ने कहा, किसी ने दुश्मनी से उनका नाम ले लिया और उन्हें जानबूझकर फंसाया गया है. 

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गाजियाबाद में एफआईआर में 5,000 अज्ञात लोगों के नाम भी शामिल हैं. खास बात है कि यह जन आंदोलन के दौरान पुलिस द्वारा उपयोग किया जाने वाला एक मानक अभ्यास है, क्योंकि इससे उन्हें आगे और गिरफ्तारी करने की अनुमति मिल जाती है. पुलिस की इन एफआईआर की वजह से जलितवाड़ा, गाजियाबाद जैसे दलित इलाकों में सड़कें सुनसान हो गई हैं. 

गाजियाबाद पुलिस का कहना है कि एफआईआर में 295 लोगों को फोटोग्राफी और वीडियो में मिले सबूत के आधार पर नामित किया गया है. लेकिन अगर विशेष जांच दल यानी कि एसआईटी इस आरोपियों की सूची में किसी तरह की गलती पाती है तो उन सबका नाम इस लिस्ट से हटा दिया जाएगा. 

हापुड़ शहर से 35 किलोमीटर दूर, गलत आरोपों की वजह से गिरफ्तारी के डर ने दलित महिलाओं को विरोध-प्रदर्शन करने के लिए मजबूर कर दिया है. ये दलित महिलाएं हर शाम को अपने घर से निकलती हैं और गलियों के प्रवेश द्वार पर समूह में खड़ी हो जाती हैं, ताकि पुलिस को प्रवेश करने से रोका जा सके. मनीष की मां बीना ने कहा कि जब वह घर पर बैठकर गाने सुन रहा था, तब पुलिस आई और उसे उठा कर अपने साथ ले गई. कम से कम मैं यह सुनिश्चित करना चाहती हूं कि अब पुलिस किसी और को न ले जा सके. 

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हापुर में हुए दंगे के लिए 42 एफआईआर दर्ज किए गए, जिनमें 30 लोगों को नामित किया गया. हैरान करने वाली बात है कि 20 साल के मनीष का नाम उन एफआईआर में नहीं है, फिर फिर उसे 2 अप्रैल की शाम को अपने घर से उठा लिया गया. मनीष के परिवार ने जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर याचिका में यह स्वीकार किया है कि उनका बेटा उस दिन के प्रदर्शन में शामिल था, मगर उसमें उनका कहना है कि हिंसा तब हुई, जब उनका बेटा जल्द ही घर वापस लौट चुका था. 

वहीं, उधर नोएडा में हर दिन सुबह 9.30 से शाम 6.30 तक वर्कशॉप में काम करने वाले राजकुमार को पुलिस ने उसके घर हापुर से 2 बजे गिरफ्तार कर लिया. राजकुमार के पिता नरेश चंद का कहना है कि पुलिस ने उनके साथ धक्का-मुक्की की, उन्हें गालियां दी और फिर उसे अपने साथ ले गये. 

इधर, 65 वर्षीय भोलेराम का कहना है कि उनका बेटा अमित 2 अप्रैल को पूरे दिन काम कर रहा था, लेकिन इसके बावजूद रात में पुलिस उसे उठा कर ले गई. दोनों अभी भी पुलिस की हिरासत में ही हैं, जबति उस रात 90 लोगों को हापुड़ पुलिस ने गिरफ्तार किया था. वहीं, हापुड़ पुलिस का कहना है कि प्रत्येक गिरफ्तारी फोटो या वीडियो में मिले सबूत के आधार पर की गई है. 

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वहीं, बुलंदशहर में हुई हिंसा के मद्देनजर तीन एफआईआर दर्ज किए गए और अब तक 86 लोगों को गिरफ्तार किया गया है. उनमें से एक एफआईआर में से एक 21 लोगों और 150 अज्ञात लोगों के नाम शामिल हैं. इस एफआईआर में ज्यादातर जाडोल गांव की घटना में शामिल लोगों को नामित किया गया है, जहां प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर पत्थर फेंके थे. 

हालांकि, उस गांव के लोग इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि पत्थरबाजी की घटना में पांच या दस लोग ही शामिल थे. मगर उन्होंने पुलिसिया कार्रवाई पर भी सवाल उठाए. साथ ही गांव वालों ने यह भी कहा कि पुलिस की कार्रवाई में गांव में घरों के कई दरवाजे भी टूट गये. कई मकानों को बंद कर दिया गया और कई महिलाओं ने अपने शरीर के घावों को भी दिखाया. उनका आरोप है कि पुलिस वालों ने ही उनके ऊपर हमला किया था. 

जाडोल गांव की 18 वर्षीय लड़की का कहना है कि पुलिस ने उनके सारी किताबें फेंक दी और कहा कि उन्हें पढ़ने का अधिकार नहीं है. उन्होंने अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया और उन्होंने मुझे मारा भी. 

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जाडोल पुलिस स्टेशन के चीफ सुखदेव सिंह ने एनडीटीवी को बताया कि वह पत्थरबाजी में घायल हो गये. उन्होंने आरोप लगाया कि यह पत्थरबाजी करीब 400 से अधिक लोगों द्वारा किया गया था, मगर पुलिस जांच के दौरान सभी ने इसकी जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया. गांव में टूटी हुए चीजों के बारे में पूछे जाने पर सिंह ने कहा कि लोगों ने खुद चीजों को तोड़ा होगा, मुझे नहीं पता है. 

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