यह ख़बर 06 मार्च, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : मत के निर्णय पर कैसे पहुंचता है युवा?

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार।
दो पार्टी मुख्यालयों को छोड़ दें तो आपके देश में इतनी शांति तो है ही कि कुछ और मसलों पर बात हो सकती है। मीडिया के अलग−अलग माध्यमों में चुनाव छाने लगा है। टीवी और टि्वटर की दीवार टूट गई है। दोनों एक दूसरे को देखकर रंग बदलने लगे हैं। सोशल मीडिया पर दलों के हिसाब से खेमे बन गए हैं और हर घटना पर सत्यवादी दलीलें पैदा की जा रही हैं। इसी के साथ तमाम राजनीतिक दल तमाम कमियों के बावजूद कई अच्छी बातें भी कह रहे हैं। नया नज़रिया पेश करने का दावा कर रहे हैं, मगर हमारा सवाल कुछ और है।

एक आदर्श चुनाव की स्थिति क्या होनी चाहिए कि सिर्फ़ मतदान का प्रतिशत ही बढ़े उसी का गौरवगान हो या मतदान प्रतिशत की चिंता छोड़ मुद्दों को समझने में भागीदारी करे। इसके लिए साधन क्या हैं, भाषण विज्ञापन, घोषणापत्र या मीडिया।

क्या पर्याप्त जानकारी न होने की स्थिति में वोट देने से नहीं बचना चाहिए। यह सही नहीं है कि हमारा मतदाता सोच समझ कर मतदान नहीं करता। अगर इसके उलट कुछ कहेंगे तो आपको इतनी डांट पड़ेगी कि आप खंडन कर फिर यही कहेंगे कि वोटर से समझदार कोई नहीं होता।
लेकिन, हम यह सवाल इस लिए उठा रहे हैं कि सालभर से रैलियां हो रही हैं सैकड़ों करोड़ रुपये विज्ञापन पर फूंके जा चुके हैं, लेकिन किसी ने अभी तक घोषणापत्र जारी नहीं किया है।

रैलियों में नेता अलग−अलग मुद्दे उठाते हैं, मगर इस तरह से किसी एक मुद्दे के प्रति व्यापक समझ नहीं बन पाती। नेताओं का भाषण बीए पासकोर्स के नोट्स की तरह होता है। इंट्रो में इतिहास बीच में नारेबाज़ी एकाध स्मरण एकाध विद्वानों के मंतव्य और अंत में यानी कंक्लूजन में हम महान। भाव से ज्यादा भंगिमाएं और भंगिमाओं में भावुकता। नेताओं के अलावा मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी यही करता है। हर पक्ष के दावे हैं। उन दावों का कोई परीक्षण नहीं है।

2014 के चुनाव में दस करोड़ नए मतदाता हैं। दो करोड़ तीस लाख मतदाता ऐसे हैं जो 18 से 19 साल के हैं। सारे दलों की इन पर नज़र है। वैसे बाकी सत्तर करोड़ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। बदलाव की चाह उनमें भी युवाओं से कम नहीं है। आज हम इस नए मतदाता के छोटे से हिस्से के साथ बात करेंगे। हिन्दुस्तान की सामाजिक आर्थिक विविधता के अनुरूप हमारा सैंपल भी विविध है, मैं पूरी तरह से दावा नहीं कर सकता मगर 18 से 24 साल के इन मतदाताओं से बात कर कुछ तो अंदाज़ा मिल ही सकता है कि पुरानी और नई पार्टियों के बारे में क्या सोच रहे हैं। आज इंडियन एक्सप्रेस में राहुल वर्मा और प्रदीप छिब्बर का एक लेख पढ़ा।  

ये दोनों अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया बर्कले के पॉलिटिकल साइंस विभाग से जुड़े हैं। इन्होंने 1996 से 2009 के चुनावी आंकड़ों का विश्लेषण कर बताया है कि एक मतदाता अलग-अलग राजनीतिक दलों में इस आधार पर फ़र्क करता है कि वंचित सामाजिक समूहों के लिए उसके पास क्या योजनाएं हैं।
किसी पार्टी की सरकार की राज्य के इन मामलों में नीतियां क्या होंगी। राहुल और प्रदीप इस धारणा को तोड़ रहे हैं कि भारत का चुनाव विचारों नीतियों और विज़न के आधार पर नहीं होता। इस लेख में बताया गया है कि सामाजिक सुरक्षा के नियमों का विरोध करने वाले ज़्यादातर लोग ऊंची जाति में होते हैं। दलित और मुस्लिम ऐसी सरकारी योजनाओं को काफ़ी महत्व देते हैं। एक तरह से नागरिक अपने धर्म या जाति के हिसाब से अपना नज़रिया बनाता है कि सामाजिक सुरक्षा की स्कीम चले या नहीं।

कई लोग सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को सब्सिडी, तुष्टीकरण और करदाताओं के पैसे के दुरुपयोग की नज़र से देखते हैं हमारा सवाल है कि क्या इस बार का मतदाता और दस करोड़ नए मतदाता बिल्कुल नए नज़र से चुनाव में भागीदारी करेंगे। उसके लिए इन सवालों के अलावा वे कौन से सवाल होंगे जो उनके फैसले को इधर से उधर कर देंगे। राहुल वर्मा और प्रदीप छिब्बर ने डॉ अंबेडकर का एक उद्धरण दिया है।

सिर्फ मतदाता होना काफ़ी नहीं है। कानून निर्माता होना भी ज़रूरी है। अन्यथा जो कानून बनाने वाले होंगे वो उनके मास्टर हो जाएंगे तो महज़ मतदाता होंगे।

पिछले दो साल में 22 राज्यों में चुनाव हुए हैं जहां मत प्रतिशत में काफी वृद्धि हुई है। यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने इंडियन एक्सप्रेस में ही लिखा है कि चार साल पहले 18−19 साल के युवा मतदाताओं में से दस−बारह प्रतिशत ही रजिस्टर्ड होते थे। अब यह प्रतिशत काफी बढ़ गया है। मतदान करने वालों में महिलाओं का प्रतिशत काफी बढ़ा है। इसके लिए चुनाव आयोग ने वोटर जागरूकता के लगातार कार्यक्रम चलाए हैं। यहां तक कि चुनाव आयोग अब स्वयं मतदाता के घर मतदान की पर्ची भिजवाने लगा है।

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जब भी आपको लगे कि इंडिया में कुछ हुआ नहीं तो कम से कम आप इन दो महीनों के लिए चुनाव आयोग पर गर्व कर सकते हैं। ठीक ठाक फील करेंगे। तो आज इसी पर गपास्टक करेंगे कि नया मतदाता अपना फैसला कैसे करने वाला है। हार जीत की बात नहीं करेंगे मगर समझेंगे इस जानदार मतदाता के फैसले की प्रक्रिया गूगल से गुज़रती है या टीवी से या सुनी सुनाई बातों से या कौन जीतेगा टाइप के सर्वे से। प्राइम टाइम...