यह ख़बर 03 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : दहेज प्रताड़ना, कौन प्रताड़ित?

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार। आज की चर्चा क्या उस टेलीविजन सेट पर भी देखी जाएगी जो दहेज़ में आया है। वो भी उस सोफा सेट पर बैठ कर पूरा परिवार कैसे देखेगा जो क्या पता ससुराल वालों से वसूला गया हो और टाटा 407 से उतरा हो। लेकिन, दहेज़ और इससे जुड़ी यातनाओं पर बहस अगर सिर्फ अपनी कमाई से टीवी सेट खरीदने वाले ही देखेंगे तो ठीक बात नहीं होगी।

सबको देखना चाहिए। मुझे पता है मेरे दर्शकों के घर में न दहेज़ का टीवी सेट है न सोफा सेट। आप लोगों ने दहेज़ की राशि ठुकरा दी होगी और ससुराल से मिली फोकट की कार पर लिख भी दिया होगा दुल्हन ही दहेज़ है। मतलब दहेज़ चाहिए। कुछ न मिले तो दुल्हन ही दहेज़ बन कर आ जाए।

बस एक बार भारत चीन से आगे निकल जाए फिर उसके बाद लास्ट टाइम मेनी टाइम्स और फर्स्ट टाइम वोटर वाला युवा भारत दहेज़ को दफ़ना देगा। टिल देन यानी तब तक के लिए तो बहस कर ही सकते हैं कि हमारा समाज जो विश्व गुरु बनने की ख्वाहिश रखता है दहेज़ से क्यों हार जाता है। आखिर किस भारतीस संस्कृति के तहत यह प्रथा आज भी लड़कियों को गर्भ से लेकर गृह प्रवेश तक के मौकों पर मार रही है।

दहेज़ लेने वाला समाज आखिर काला धन कहां रखता होगा। स्वीस बैंक में रखता होगा या बाबा रामदेव को बता देता होगा कि यहां रख दिया है किसी से मत कहिएगा। एनिवे इज़ दि बेस्ट वे। आप सब जानते हैं कि दहेज़ के नाम पर विश्व गुरु बनने वाले भारत में हर घंटे एक औरत की हत्या कर दी जाती है। दहेज के मामलों की संख्या पिछले कई सालों में बढ़ती ही गई है। इस दहेज़ ने पारिवारिक यातना के इतने रूप पैदा किए जिससे हमारी फिल्मों और सीरीयलों में सास और ननद के किरदार काफी समृद्ध हो गए। इनका आशय यही है कि दहेज़ एक पारिवारिक और सामाजिक बुराई है। सब शामिल होते हैं। कह सकते हैं वर वधू पक्ष दोनों।

इससे पहले कि आज की बहस के कानूनी पहलू की तरफ प्रवेश करूं आपको सत्या रानी चड्ढा के बारे में बताता हूं। मैं भी नहीं जानता था। लाइवमिंट में नमिता भंडारे की एक रिपोर्ट पढ़ी जिसके मुताबिक सत्या रानी चडढ़ा इस मंगलवार को गुज़र गईं। वो दिल्ली की थीं।

अस्सी के दशक में दहेज़ हत्याएं बढ़ती जा रही थीं। समाज रसोई घर की दुर्घटना मानकर नज़रअंदाज़ करता जा रहा था। 1979 में सत्या रानी चड्ढ़ा की बेटी की शादी होती है और दस महीने में ही उसकी मौत हो जाती है। छह महीने की गर्भवती उनकी बेटी कथित रूप से स्टोव के फटने से जल गई थी। अदालतों के कई चक्कर लगाने के साथ सत्या रानी चड्ढ़ा ने इसे उन माताओं के लिए भी इंसाफ़ की लड़ाई में बदल दिया जिनकी बेटियां मार दी गईं थीं।

इस लड़ाई में उनके साथ आती हैं शाहजहां आपा। उनकी भी बेटी के साथ ऐसा हुआ था। इन दोंनों की सक्रियता का एक नतीजा यह निकला कि सरकार ने दहेज विरोध कानून में सख्त से सख्त प्रावधान जोड़ें कि अब आरोप साबित करने की जवाबदेही पति और पति के रिश्तेदारों पर होगी। यह और बात है कि सत्या रानी चड्ढ़ा अपनी ही बेटी को इंसाफ नहीं दिला सकीं। उनकी बेटी को मारने वाले सुभाष गुप्ता को सजा तो हुई मगर वो फरार हो गया।

आप जानते हैं कि 498-ए क्या है। कई लोगों का दावा है कि इसका बेज़ा इस्तमाल कर पतियों और उनके बेकसूर रिश्तेदारों को फंसाया जा रहा है। ग़लत इस्तमाल के ख़िलाफ लड़ाई भी कुछ कम लंबी नहीं है। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी के सेक्शन 41 के तहत बिना वारंट और मजिस्ट्रेट के आदेश के पुलिस को गिरफ्तार करने के अधिकार का गलत इस्तमाल हो रहा है।

पुलिस किसी आरोपी को नाहक गिरफ़्तार न करे, न ही मजिस्ट्रेट गिरफ्तारी को अधिकृत करे।

आप जानते हैं कि 498-ए के तहत जैसे ही दहेज़ प्रताड़ना का मामला जैसे ही दर्ज होता है, पुलिस उसी वक्त यानी सबूत जुटाने से पहले गिरफ्तार कर लेती है। पति के साथ एफआईआर में दर्ज अन्य रिश्तेदार भी पकड़ लिए जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ इसे गलत बताया है बल्कि यह भी बताया है कि अब तुरंत गिरफ्तारी से पहले पुलिस को क्या-क्या करना होगा।

पुलिस को संतुष्ठ होना होगा कि गिरफ्तारी ज़रूरी है या नहीं। सेक्शन 41 के निर्देशों के अनुसार मामला बनता है या नहीं।
सभी पुलिस अफसरों को सेक्शन 411बी के तहत चेक लिस्ट दिए जाएंगे।

पुलिस अफसर इन्हें भरकर और सबूत के साथ मजिस्ट्रेट को पेश करेगा। मजिस्ट्रेट इस रिपोर्ट को देखकर ही गिरफ्तारी को अधिकृत करेगा।

अगर पुलिस गिरफ्तार नहीं करती है तो उसे दो हफ्ते के भीतर मजिस्ट्रेट को बताना होगा कि क्यों नहीं गिरफ्तार किया। इससे ज्यादा वक्त लग गया तो एसपी को लिखित तौर पर बताना होगा। आरोपी को केस दर्ज होने के दो हफ्ते के भीतर पेश होने के लिए कहा जाएगा। एसपी चाहे तो यह समय बढ़ा सकता है। इन निर्देशों का पालन नहीं हुआ तो पुलिस अफसर और मजिस्ट्रेट के खिलाफ कार्रवाई होगी। सुप्रीम कोर्ट का आदेश सिर्फ 498-ए के लिए नहीं है बल्कि उन सभी मामलों के लिए है, जिनमें सात साल तक की सज़ा है।

यह एक विवादित मामला रहा है जिसके दोनों पक्षों पर अध्ययन के बाद 2011 में संसदीय समिति ने कहा था कि कमेटी के पास हां या न में जवाब नहीं हैं। कई मंत्रालयों ने दलील दी है कि 498-ए का डर समाज में असर कर रहा है क्योंकि इसमें ज़मानत नहीं मिलती और पुलिस बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के कार्रवाई कर सकती है यानी संज्ञान ले सकती है।

समिति का सुझाव है कि अगर इसमें बदलाव हुआ तो यह औरतों के खिलाफ जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में भी 498-ए के गलत इस्तमाल रोकने के लिए इसमें बदलाव की बात कही थी।

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2009 में दिल्ली हाई कोर्ट का भी सुझाव आया था कि इस अपराध को नान बेलेबल से बेलबल करना चाहिए यानी ज़मानत मिलनी चाहिए। जून 2008 में दिल्ली पुलिस कमिश्नर के आदेश की जानकारी भी मिलती है जिसमें वो बिना सही जांच के गिरफ्तारी नहीं करने की बात कहते हैं। सिर्फ मुख्य आरोपी गिरफ्तार होगा। रोहिणी की एक अदालत ने आदेश दिया था कि दहेज के मामले में वधू पक्ष को भी आरोपी बनाया जाए। तो इस तरह के कई आदेश हैं और रिपोर्ट हैं। तो क्या इस आदेश के बाद दहेज़ प्रताड़ना के नाम पर पतियों की परेशानी खत्म हो जाएगी या बीवियों की ज़िंदगी और मुश्किल हो जाएगी। ये दो बेसिक क्वेश्चन हैं प्राइम टाइम में...