यह ख़बर 16 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

इंसानियत पर आतंकी हमला

नई दिल्ली:

नमस्कार... मैं रवीश कुमार। हमारा समय दुनिया के किसी न किसी हिस्से में रोज़ यह दर्ज कर रहा है कि मज़हब का काम जितना रूहानी सुकून पैदा करना नहीं है, उससे कहीं ज्यादा इसका काम नफ़रत फैलाने, हैवान पैदा करने और संगठित रूप से ताकतवर लोगों की ऐसी जमात पैदा करना रह गया है, जो कहीं से भी हमारी आपकी ज़िंदगी तय करने चले आते हैं।

आतंकवाद का कोई मुल्क या मजहब होता तो पाकिस्तान की इस घटना से भारत के लोग दहशत में नहीं आते। इससे पहले भी पाकिस्तान में आतंकवादी हमले हुए हैं, लेकिन ये एक ऐसा हमला था, जिसे टीवी पर देखते हुए लोग अपने आस-पास की सुरक्षा को लेकर परेशान होने लगे।

पेशावर पाकिस्तान के ख़ैबर पख्तूनख्वाह प्रांत में पड़ता है, जिसे नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के नाम से भी जाना जाता है। यहीं के आर्मी पब्लिक स्कूल से निकल कर भागते इन बच्चों की जान तो बच गई मगर जान निकल गई होगी। ये बच्चे दहशत के जाने कितने ख़ौफ़नाक किस्सों के साथ आज घर लौटे होंगे।

एक बड़े छात्र के साथ एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बाहर आ रहे इन नन्हें बच्चों ने एक दूसरे का हाथ कितनी ज़ोर से थामा होगा। कहीं कोई बुजुर्ग बच्चे को पीठ पर लाद कर भाग रहे थे तो कहीं कोई जवान अपनी एक ही बाइक पर सबको बिठा लेना चाहता था। ताकि ये सब बच जाएं। अब तक 140 की मौत की ख़बर है जिनमें 134 बच्चे हैं। सौ से ज़्यादा घायल हैं, इनमें भी कई गंभीर हैं।

इस तालिबान को जितना धर्म ने जन्म नहीं दिया उससे कहीं ज्यादा मुल्कों की सियासी जोड़तोड़ के खेल ने। आज तालिबान की पहचान से उन तमाम देशों की छाप गायब हो चुकी है, जिन्होंने इसे मिलकर गढ़ा है। लेकिन तालिबान जाने किस इस्लाम को ढो रहा है जिसकी किताब पढ़ने वाले कहते-कहते थक गए कि ये न तो जिहाद है और न इस्लाम है। कई मुल्कों की ताकत लग गई मगर तालिबान गायब नहीं हुआ।

दोपहर के वक्त स्कूल में बच्चों की संख्या 800 से 1500 के बीच बताई गई। कुछ बास्केट बॉल खेल रहे थे और कई बच्चे ऑडिटोरियम में फर्स्ट एड के कार्यक्रम में जमा थे। कुछ कमरों में इम्तहान चल रहा था। स्कूल जैसा चलता है वैसा चल रहा था।

इस हमले से पाकिस्तान हिल गया है। मौके से रिपोर्ट कर रही एआरवाई न्यूज़ चैनल की रिपोर्टर के दो भतीजे भी इस हमले के शिकार हो गए हैं। वह रिपोर्ट करते-करते भरभरा गईं। इस घटना का एक एक डिटेल घिन पैदा करता है। तालिबानियों ने बच्चों के सिर पर यह पूछ कर गोली मारी कि किसके पिता सेना में काम करते हैं।

अभी सोमवार को सिडनी की घटना से दुनिया उबर ही रही थी कि मंगलवार की इस घटना ने भारत के हिस्से में भी लोगों को डरा दिया। हमने उसी पाकिस्तान से आने वाली दहशत के ऐसे कई मंज़र देखे हैं।

पाकिस्तान में आतंकी हमले की ख़बर को हम अपने फुटनोट में दर्ज करते रहे हैं, लेकिन पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल की घटना ने हिन्दुस्तान में भी लोगों को डरा दिया है। आज दफ्तर आते-आते कई माता पिताओं के फोन आने लगे कि हमारे शहर के स्कूलों की क्या सुरक्षा है। मुंबई पुलिस ने तो अपने इलाके के स्कूलों का जायजा भी लेना शुरू कर दिया। थाने को अलर्ट कर दिया कि इलाके के स्कूलों पर नज़र रखें।

एक पाकिस्तानी बाप ने सही कहा कि हम बच्चे को पालने में बीस-बीस साल लगा देते हैं, लेकिन मारने वाले ने बीस मिनट भी नहीं लगाया। उसकी ये बात इस पार भी मुंबई हमलों से लेकर तमाम उन हमलों के साक्षी लोगों के बीच गूंज रही थी। वहां की अवाम भी ठीक यहां जैसी बातें कर रही है कि नवाज़ शरीफ तो बख्तरबंद गाड़ियों के काफिले में चलते हैं, लेकिन हमारे बच्चे सुरक्षित नहीं हैं।

स्कूल में छह तालिबानी घुसे थे। दोपहर साढ़े बारह बजे के आस पास का वक्त रहा होगा जब फायरिंग करते हुए स्कूल में घुसे। 500 से ज़्यादा बच्चों और स्टाफ को बंधक बना लिया। सेना का इलाका होने के कारण सेना ने इलाके की नाकेबंदी तो कर दी मगर बच्चों की जान नहीं बचा सके।

इस घटना की जिम्मेदारी लेने वाले तहरीके तालिबान ने कहा कि पाकिस्तान की सेना उनके खिलाफ कार्रवाई कर रही है। उनके परिवार वालों को मार रही है, इसलिए हमने भी उनके परिवारवालों पर हमला किया है।

पाकिस्तान की सेना पिछले छह महीने से उत्तरी वजीरिस्तान में तालिबानियों के खिलाफ ऑपरेशन चला रही है। इस ऑपरेशन का नाम है ज़र्ब-ए- अज्ब। इस ऑपरेशन में अभी तक 1800 से ज्यादा तालिबानी और उनके समर्थकों के मारे जाने का दावा किया जा रहा है। एक नजीर है कि पाकिस्तान आतंकवाद से लड़ रहा है। पाकिस्तान ने तीन दिन के राष्ट्रीय शोक का एलान किया है।

इस हमले में शामिल छह आतंकवादी मार तो दिए गए, लेकिन वह तो मरने ही आए थे। सवा सौ बच्चों की मौत से पाकिस्तान वैसे ही बिलख रहा है, जैसे ऐसे हमलों के वक्त हम कांपा करते थे। वहां भी आतंकवादी हमले में आम लोग ही मारे गए हैं। उनकी बेबसी हमारी बेबसी से मिलती जुलती है।

आतंकवाद से मिलकर लड़ने का दुनिया भर के नेताओं का नारा आज फिर से खोखला लग रहा है। जिन नेताओं के पूर्वजों की करतूत से आतंकवाद पनपा है वह इंटरनेट और हर दिन नई तरह के कमांडो फोर्स बना देने के बाद भी आतंकवाद को नहीं मिटा पा रहे हैं।

आज पाकिस्तान की कंपकपाहट पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ की पंजाब असेंबली की विधायक कंवल नोमान के चेहरे पर देखी जा सकती है। जो कहती है, ''मैं ये समझती हूं कि दहशतगर्द जो हैं उनका कोई दीन ईमान नहीं है... वो किसी खुदा को नहीं मानते... किसी आईन कानून को नहीं मानते... उनको इतनी शर्म नहीं आई कि इन मासूम बच्चों का कसूर क्या था.. वो दहशतगर्द भी बाप होंगे किसी के बेटे होंगे... उनके बच्चों को भी इस तरह मार दिया जाए तो क्या गुज़रेगी उनके दिल पे... इन्होंने जो 130 घर उजाड़ दिए... आप यकीन मानें... मेरा आज सेशन पर आने का दिल नहीं कर रहा था... अब मैं दिल चाह रहा है वहां जाऊं और उन मां-बाप के साथ चीखें मार-मार कर रोऊं... कहूं कि नहीं ये ज़्यादती है इन मुजरिमों को यों ना मारें इनको इतनी दर्दनाक सज़ा दें... इनको पकड़कर इतनी दर्दनाक सज़ा दें कि दोबारा किसी मां की गोद ये ना उजाड़ें... किसी बच्चे को शहीद ना करें...  मैं भी मां हूं... उन मांओं को ये मालूम था कि आज उनके बच्चे स्कूल जा रहे हैं दोबारा वो उनकी शक्लें नहीं देखेंगे... इतना ज़ुल्म... इतना कुफ़्र उन बच्चों के साथ... उन मासूम बच्चों ने क्या गुनाह किया था... क्या कसूर था उनका...दहशतगर्द ये क्यों नहीं सोचते... कि उन्हें भी ख़ुदा कि अदालत में हाज़िर होना है... कितनी मन्नतों से हम मां बाप बच्चों को मांगते हैं अल्लाह मियां से... बच्चे ज़िंदगी का सहारा होते हैं... मेरा बच्चा बीमार हो जाए तो मैं कहती हूं कि मेरे बच्चे को कुछ ना हो अल्लाह मियां इसकी तकलीफ़ मुझे दे दे... मेरे बच्चे को कोई तकलीफ़ ना पहुंचे... उन मांओं पे क्या गुज़र रही होगी... उन वालिदैन पर क्या गुज़रेगी जो अपने बच्चों को इस हालत मे देखेंगे...''

इस दहशत ने हिन्दुस्तान में भी दस्तक दी है। किसी धर्म में आतंकवाद की कोई जगह नहीं है यह नारा घिस चुका है। धर्म और इंसानियत में आतंकवाद की जगह नहीं तो फिर आतंकवाद किस बूते हर जगह है। आखिर धर्म कुछ तो ताकत देता होगा जिसके नाम पर संगठन बनाकर यहां से लेकर वहां तक लोग हिंसा की भाषा बोलने लगते हैं। धार्मिक संकीर्णता की भाषा से हम हिन्दुस्तान में रोज़ दो चार हो रहे हैं।

पाकिस्तान तो इसी का गुणा भाग करता रहा है, लेकिन अब उसे भी लड़ना पड़ रहा है। इसी दिसंबर चार को पाकिस्तान ने मुंबई हमले के आरोपी आतंकवादी हाफिज़ सईद की लाहौर रैली के लिए दो रेलगाड़ियां दी थी। जमात उद दावा पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध है इसके बाद भी पाकिस्तान ने कराची, हैदराबाद और सिंध प्रांत से हाफ़िज़ सईद समर्थकों को लाहौर लाने के लिए मदद की। यहां तक कि इमरान खान की पार्टी ने भी हाफिज़ सईद की रैली के समर्थन में अपनी पार्टी का कार्यक्रम रद्द कर दिया था।

ऐसे नरसंहार किसी भी मज़हब से विश्वास उठा देने के लिए काफी है लेकिन हम कहां मानते हैं। निंदा के बाद हम फिर अपने हिसाब से अपने पाले चुन लेते हैं और आतंकवादी जुनून को संरक्षण देने लगते हैं। मोहब्बत की बात करने वाले हाशिये पर चले जाते हैं, नफरत की बात करने वालों को कहीं बंदूक मिल जाती है तो कहीं सत्ता।

समझना पाकिस्तान की आवाम को भी है कि एक न एक दिन सत्ता सेना और आतंक के गठजोड़ के ख़िलाफ़ खड़ा होना ही होगा। टीवी पर पाकिस्तान से एक आवाज़ आ रही थी जो ऐसी ही बात कर रही थी कि आतंकवादी ही नहीं हमारे हाथ उन सियासी दलों के गिरेबान तक जाने ही चाहिए जो इन आतंकवादी संगठनों का पक्ष लेते हैं।

कुछ दिन पहले की बात है जब 15 साल का बच्चा एतज़ाज़ हसन भी तो अपने तरीके से आतंकवाद से लड़ते हुए जान गंवा बैठा था। इसी साल जनवरी में पेशावर के क़रीब हंगू में हसन ने स्कूल के अंदर जाकर आत्मघाती हमालवर के बड़े नुकसान पहुंचाने के मंसूबे को नाकाम कर दिया।

खबरों के मुताबिक हसन उस दिन स्कूल जा रहा था, इसी दौरान रास्ते में स्कूल की वर्दी पहने हुए एक युवक ने उससे सरकारी स्कूल का पता पूछा... हसन को ये जानने में देर नहीं लगी कि ये हमलावर है और बाकी बच्चों को बचाने के लिए उसने खुद की जान को दांव पर लगा दिया... स्कूल के उसके दोस्तों ने क्लास में हसन के लिए कुर्सी खाली छोड़ रखी है। आज ऐसी ही अनेक कुर्सियां खाली हो गई हैं।

सिडनी में जिस वक्त कई लोगों की जान कैफे में फंसी थी तभी शहर में बहुत से लोग इस बात की चिंता कर रहे थे कि कहीं मुस्लिम शहरियों के साथ बुरा बर्ताव न होने लगे। बस वहां के लोग ट्वीट करने लगे कि हम आपके साथ हैं। आप अपने पहनावे में ही निकलिएं हम टैक्सी में आपके साथ आएंगे। शायद उसी का असर था कि आज भारत में भी ट्वीट होने लगा कि भारत पाकिस्तान के साथ है।

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यह अच्छी शुरुआत है। मुल्क और मजहब से पार जाकर एक दूसरे का हाथ थामकर आतंकवाद से लड़ने की। मैं नहीं कहता कि आप नास्तिक हो जाएं, मैं बस इतना कहता हूं कि आप कुछ देर के लिए ही सही, नास्तिक तो हो ही जाएं वर्ना मालूम नहीं तालिबान, आतंकवाद, सांप्रदायिकता इन सबके निशाने पर अभी कितने स्कूल बचे हैं। प्राइम टाइम