यह ख़बर 03 फ़रवरी, 2014 को प्रकाशित हुई थी

रवीश उवाच : गरीबी रेखा पर टेक्निकल और टेक्निकलर बातें

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार... जो व्यक्ति दिन भर में 17 रुपये या 32 रुपये ही कमाता हो उसके बारे में मान कर चलना चाहिए कि उसमें पोषक तत्वों के साथ−साथ सूचना तत्वों की भी घोर कमी होगी। 17 रुपये में आप भर पेट खा नहीं सकेंगे तो अखबार खरीद कर कैसे पढ़ेंगे और सौ−डेढ़ सौ महीने का केबल बिल देकर न्यूज चैनल कैसे देखेंगे। मैं अब पॉवर्टी लाइन यानी गरीबी रेखा से ऊपर के दशर्कों की तरफ से गरीबी रेखा के नीचे के लोगों से माफी मांगते हुए हैरानी व्यक्त करता हूं कि गरीबी रेखा बनाने वाले अर्थशास्त्रियों की जमात ने बिलो इंफॉर्मेशन लाइन यानी सूचना रेखा से नीचे के बारे में क्यों नहीं सोचा?

जिलाधिकारी के दफ्तर, सड़कों और मोहल्लों में चंद योजनाओं की होर्डिंग तो होती है लेकिन टीवी, अखबार और रेडियो में दिए जाने वाले विज्ञापन क्या ऐसे गरीबों तक पहुंचे होंगे, जो हर दिन 17 या 32 रुपये कमा नहीं पाते होंगे। एक ऐसे मनुष्य की कल्पना क्या स्वस्थ मनुष्य की कल्पना हो सकती है, जिसमें पोषक तत्व तो हों मगर वह सूचनाओं से वंचित हो।

गरीबी को लेकर भाषण देने की विभिन्न भंगिमाओं के धनी नेता जनता को आक्रामक नारों के अलावा कितना जागरूक कर पाते होंगे, मुझे नहीं पता। पता होता तो 16 दिसंबर 2013 के गुजरात सरकार के एक फैसले को लेकर तीन फरवरी 2014 को बहस नहीं करता। मसला यह है कि गुजरात सरकार के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग ने एक सूचना अपनी वेबसाइट पर डाली है कि बीपीएल योजना के तहत जिस परिवार के सदस्यों की प्रति व्यक्ति हर महीने की आय गांवों में 324 रुपये और शहरों में 501 रुपये हो तथा अन्य मापदंडों को लेकर राज्य के करीब 24.3 लाख परिवारों को शामिल किया गया है। जबकि भारत सरकार ने राज्य के लिए 13.1 लाख बीपीएल परिवारों की संख्या तय की है। लेकिन 11.2 लाख अतिरिक्त बीपीएल परिवारों को एक महीने में 35 किलो अनाज मिले, उसके लिए राज्य सरकार एपीएल योजना के अनाज में से बीपीएल परिवारों को अनाज देती है यानी गुजरात के गांवों में जो रोज 10 रुपये 80 पैसे से ज्यादा कमाता है वह गरीब नहीं है और शहरों में हर दिन 17 रुपये से ज्यादा कमाने वाला गरीब नहीं है।

अब इस पर राजनीतिक हंगामा तो होना ही था, क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी तमाम रैलियों में केंद्र सरकार और योजना आयोग के मानकों की आलोचना करते रहे हैं। इससे पहले गुजरात सरकार की कल जो सफाई आई उसे सामने रख देना चाहिए।

गुजरात खाद्य एवं सावर्जनिक वितरण विभाग ने कहा है कि बीपीएल परिवारों की आय के मापदंड भारत सरकार के 2004 में तय किए गए मापदंड के अनुसार ही हैं। केंद्र सरकार ने 2004 के बाद से इसमें किसी तरह का बदलाव नहीं किया है। बीपीएल परिवारों का मापदंड राज्य नहीं बल्कि केंद्र सरकार करती है।

गरीबी पर जब अर्थशास्त्री बात करते हैं तो मामला टेक्निकल हो जाता है और जब नेता बात करते हैं तो टेक्नीकलर हो जाता है। गुजरात सरकार अपनी सफाई में कहती है कि जो मापदंड हैं वह केंद्र के तय किए हुए हैं। फिर यह भी कहती है कि जो लोग केंद्र की सूची में छूट गए थे, उन्हें शामिल करने के लिए अतिरिक्त मापदंड अपनाया गया है, तो यहां अतिरिक्त मापदंड क्या है? इस अंतर को समझने के लिए पत्रकार से ज्यादा अथर्शास्त्री या एक्टिविस्ट होना बेहद जरूरी है। नरेंद्र मोदी ने लगातार 32 और 28 रुपये को लेकर केंद्र पर हमला किया है।

दिल्ली में बैठी हुई सरकार परिभाषाएं तय करने में लगी है। जिस प्लानिंग कमीशन के अध्यक्ष भारत के प्रधानमंत्री हैं वह प्लानिंग कमीशन कहता है कि शहर में गरीब के लिए 32 रुपया काफी है और गांव में गरीब को जीने के लिए 27 रुपया काफी है। भाइयों−बहनों आज 32 रुपये में मुश्किल से चाय भी 2 टाइम नहीं मिल सकती। ऐसे लोग बैठे हैं कि जिनको मालूम भी नहीं है कि गरीब कैसे जिंदगी गुजार रहा है।

गरीबी नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के भाषणों का स्थायी भाव है। नरेंद्र मोदी कहते हैं कि कहां कम हुई। केंद्र सरकार कहती है कि कम हुई है। इसीलिए अब कांग्रेस को लगता है कि उसे मौका हाथ लगा कि गरीबी पर नरेंद्र मोदी को घेरे। कांग्रेस प्रवक्ता अजय माकन ने मोदी से माफी की मांग करते हुए कहा है कि हैरानी की बात यह है कि 7 सितंबर की रैली में गुजरात के मुख्यमंत्री यह कहते हैं और उसके ठीक 5 महीने और 9 दिन के बाद 16 दिसंबर को गुजरात का खाद्य आपूर्ति विभाग एक सर्कुलर निकालता है, जिसके अंदर गरीबी रेखा की परिभाषा 10 रुपया 80 पैसा उसके अंदर रख दी जाती है। तो आज मैं मोदी जी से यह पूछना चाहता हूं कि मोदी जी जब आप छत्तीसगढ़ के अंदर हमारे प्रधानमंत्री और प्लानिंग कमीशन का मजाक उड़ा रहे थे कि उन्होंने 32 रुपया बिलो पॉवर्टी लाइन रेखा क्यों रख दी? तो आज हम आपसे पूछना चाहते हैं कि जब 32 रुपया की रेखा गरीबों के साथ मजाक होता है तो 10 रुपया 80 पैसा गरीबों के साथ मजाक नहीं है क्या?

कई लोगों ने कहा कि बहस बेमानी है, क्योंकि 32 या 16 रुपये गरीबी नहीं तय करते। कांग्रेस को इसमें क्या ऐसा लगा कि वह बीजेपी को गरीबी के मसले पर घेरने के लिए आक्रामक हो गई है। 2009 से 11 के बीत गुजरात और बिहार दो राज्य रहे, जहां गरीबों की संख्या में तेजी से कमी आई। 2011−12 के अनुसार गुजरात में करीब बीस लाख परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं यानी 16.6 फीसदी। लेकिन 32 लाख परिवारों को बीपीएल कार्ड।

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मामला तो यह अर्थशास्त्रियों के बीच का है, मगर अर्थशास्त्र जिस कारखाने में पैदा होता है उसका नाम राजनीति ही तो है। आपको दो तस्वीरें दिखाना चाहता हूं ये मुंबई में चली मोनोरेल की तस्वीर है। एसोसिएटेड प्रेस के फोटोग्राफर रजनीश ककाड़े की है। गरीब झुग्गियों के ऊपर से गुजरती अमीरी की लाल रेखा। ऊपर से नीचे देखने पर मोनोरेल की यह खूबसूरती भयावह विडंबना में बदल जाती है। कभी यह लाल रंग का अभिशाप लगता है तो कभी यह सुनहरा सपना। यह वीडियो एनडीटीवी का है। हमारी पूर्व सहयोगी सु्र्पिया शर्मा की रिपोर्ट का। बच्चा बैठा है और हवाई जहाज उड़ता भाग जाता है। गरीबी रेखा की नजर से आसमान में उड़ती अमीरी रेखा। देखे वीडियो