भारतीय समाज में पर्यावरण चेतना का प्रतीक बन गई हैं सुनीता नारायण

हिंदुस्तान में पिछले करीब दो दशकों में पर्यावरण संरक्षण को लेकर पैदा हुई समझ और जागरूकता के पीछे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद् सुनीता नारायण का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

भारतीय समाज में पर्यावरण चेतना का प्रतीक बन गई हैं सुनीता नारायण

पर्यावरणविद् सुनीता नारायण (फाइल फोटो).

नई दिल्ली:

हिंदुस्तान में पिछले करीब दो दशकों में पर्यावरण संरक्षण को लेकर पैदा हुई समझ और जागरूकता के पीछे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद् सुनीता नारायण का बहुत बड़ा योगदान रहा है. उनके इन्हीं प्रयासों को मान्यता प्रदान करते हुए ब्रिटेन की सिटी आफ इडनबर्ग काउंसिल ने उन्हें ‘इडनबर्ग मेडल 2020' से सम्मानित किया है. हरित ईंधन, पर्यावरण प्रदूषण, महानगरों में दम घोंटू वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण जैसे प्रदूषण से जुड़े तमाम आयामों पर सुनीता नारायण ने भारतीय समाज में चेतना लाने में अहम भूमिका अदा की है.

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त टाइम पत्रिका ने 2016 में नारायण को विश्व की सौ प्रमुख प्रभावशाली हस्तियों में शामिल किया था. 23 अगस्त, 1961 को दिल्ली में उषा और राज नारायण के घर जन्मी सुनीता चार बहनों में सबसे बड़ी हैं. उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी रहे और 1947 में भारत के विभाजन के बाद उन्होंने हस्तकला उत्पादों का निर्यात शुरू किया था. सुनीता मात्र आठ साल की ही थीं तभी उनके पिता का निधन हो गया.

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उनके पिता के चले जाने के बाद उनकी मां ने कारोबार संभालने के साथ ही अपनी चार बेटियों की परवरिश भी की. वह अपनी सारी सफलता का श्रेय अपनी मां को देती हैं जिन्होंने उनके भीतर ​निर्भीक होकर दूरस्थ स्थानों की यात्रा पर जाने और अपने फैसले खुद लेने का हौंसला पैदा किया था. दिल्ली विश्वविद्यालय में 1980 से 1983 के दौरान पत्राचार से स्नातक डिग्री की पढ़ाई करने के दौरान उन्होंने पर्यावरण के क्षेत्र में काम करना शुरू कर दिया था. वह बताती हैं कि संयोगवश उनकी मुलाकात कई ऐसे लोगों से हुई जिनके विचार और रूचियां समान थीं और इस तरह उनके भीतर पर्यावरण संबंधी मुद्दों को लेकर गजब का आकर्षण जैसा पैदा हो गया था.

सुनीता कहती हैं कि जब 1970 के दशक में हिमालयी क्षेत्र में जंगलों को बचाने के लिए महिलाओं ने चिपको आंदोलन शुरू किया था तो उन्हें महसूस हुआ कि उन्हें पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में ही जाना है. वह बताती हैं कि उन दिनों भारत में किसी कॉलेज में पर्यावरण को एक विषय के तौर पर नहीं पढ़ाया जाता था. 1980 में उनकी मुलाकात अचानक प्रख्यात वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के बेटे कार्तिकेयन साराभाई से हुई जो उस समय अहमदाबाद में विक्रम साराभाई इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट एंड रिसर्च के निदेशक थे.

उन्होंने सुनीता को संस्थान में शोध सहायक के रूप में काम करने की पेशकश की और उसके बाद सुनीता ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. वह 1982 से भारत स्थित ‘विज्ञान एवं पर्यावरण केन्द्र' से जुड़ गई थीं. यह हैरानी की बात हो सकती है कि सुनीता जिस क्षेत्र में दशकों से काम कर रही हैं, उसमें उन्होंने विधिवत कोई शिक्षा या डिग्री हासिल नहीं की, लेकिन पर्यावरण और जलवायु संरक्षण के क्षेत्र में विश्व के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय उन्हें मानद डिग्रियों से सम्मानित कर चुके हैं.
 
सुनीता नारायण हरित विकास और अक्षय विकास की पुरजोर पैरोकार हैं और वह पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की महती भूमिका को रेखांकित करती हैं. इस समय ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट'(सीएसई) के महानिदेशक पद की जिम्मेदारी संभाल रही सुनीता का दृढ़ विश्वास है कि वातावरण में फैलती अशुद्धता, प्रकृति और वातावरण की होती दुर्दशा से सबसे ज्यादा नुकसान महिलाओं, बच्चों और गरीबों को होता है.

उनका यह भी मानना है कि वातावरण की सुरक्षा के लिये जागरूकता फैलाने की जिम्मेदारी महिलाएं ज्यादा सफलतापूर्वक उठा सकती हैं. सुनीता नारायण को 2005 में भारत सरकार ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उनके प्रयासों के लिए पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया था. इसी वर्ष उन्हें स्टाकहोम वाटर प्राइज और 2004 में मीडिया फाउंडेशन चमेली देवी अवार्ड प्रदान किया गया. इडनबर्ग पुरस्कार पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए सुनीता नारायण ने ‘पीटीआई-भाषा' से कहा, ''जहां तक जलवायु परिवर्तन का सवाल है, वह आज दुनिया के लिए बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है. आने वाले समय में यह खतरा बहुत बड़ा है.'' 

उन्होंने कहा, ‘‘इडनबर्ग पुरस्कार इस बात को मान्यता देता है कि हमने विकासशील देशों की तरफ से जो आवाज उठायी है, वह सही है. इससे अंतरराष्ट्रीय मंच पर यह बात उठी है कि पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन में गरीब, विकासशील देशों का क्या हक बनता है? उन पर क्या असर पड़ता है? इसलिए यह पुरस्कार हम लोगों के लिए गर्व की बात है. इससे इन मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान फिर से गया है.'' 

1990 के शुरुआती दिनों में ही उन्होंने कई वैश्विक पर्यावरण मुद्दों पर गहन शोध करना शुरू कर दिया था. 1985 से ही वह कई पत्र-पत्रिकाओं में पयार्वरण पर लेख लिखकर समाज को इस भयावह समस्या के प्रति जागरूक करने के काम में जुट चुकी थीं. दिल्ली में 1982 में छुट्टियां बिताने के दौरान सुनीता की मुलाकात अनिल अग्रवाल से हुई जो एक प्रख्यात और प्रतिबद्ध पर्यावरणविद् थे जिन्होंने पर्यावरण मुद्दों को भारत में एक दिशा दी थी.

उस समय अनिल अग्रवाल सीएसई की स्थापना की दिशा में काम कर रहे थे. उन्होंने सहायक शोधार्थी के रूप में अग्रवाल के साथ काम करना शुरू किया और इस तरह वह सीएसई से जुड़ गईं जिसकी आज वह महानिदेशक हैं. उन्होंने अग्रवाल के साथ स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरन्मेंट रिपोर्ट्स पर भी काम किया.

सुनीता कहती हैं कि आज वह जो कुछ भी हैं उसका श्रेय वह अनिल अग्रवाल को देती हैं जिन्होंने उन्हें इस दिशा में आगे बढ़ने को प्रेरित किया था. नारायण अपने मार्गदर्शक और संरक्षक अनिल अग्रवाल के बारे में कहती हैं कि सीएसई में आज 4 —5 लोगों का कोर ग्रुप है जो अग्रवाल के मूल्यों और दूरदृष्टि से बहुत प्रभावित है.

उन्होंने कहा, ‘‘वह (अग्रवाल) कभी शिकायत नहीं करते थे, इसके बजाय वह समाधान पेश करते थे.'' 2016 में नारायण को फ्रैंच डेवलपमेंट एजेंसी (एएफडी) के वैज्ञानिक बोर्ड की सदस्य नियुक्त किया गया. इसके अलावा भी वह पर्यावरण एवं सामाजिक विकास संबंधी भारत सरकार की संस्थाओं के साथ ही कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और संगठनों में महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी संभाल रही हैं.

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नारायण ‘बिफोर दी फ्लड' वृत्तचित्र में हॉलीवुड अभिनेता लियोनार्दो डिकैप्रियो के साथ भी नजर आई हैं. इस वृत्तचित्र में उन्होंने भारत में जलवायु परिवर्तन के मानसून पर पड़ने वाले प्रभाव तथा इसके फलस्वरूप किसानों के प्रभावित होने पर बात की है.



(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)