पहले ही इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि हाईकोर्ट द्वारा विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाना कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं था : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को अपने फैसले के दौरान कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का 2010 का फैसला ‘कानूनी रूप से टिकाऊ’ नहीं था. अदालत ने विवादित 2.77 एकड़ जमीन को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लल्ला के बीच तीन हिस्सों में बांट दिया था.

पहले ही इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि हाईकोर्ट द्वारा विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाना कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं था : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले पर फैसला शनिवार को सुना दिया है

नई दिल्ली:

सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को अपने फैसले के दौरान कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का 2010 का फैसला ‘कानूनी रूप से टिकाऊ' नहीं था. अदालत ने विवादित 2.77 एकड़ जमीन को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लल्ला के बीच तीन हिस्सों में बांट दिया था. सामाजिक ताने-बाने को बर्बाद कर रही कानूनी लड़ाई पर पर्दा गिराते हुए शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि जमीन के बंटवारे से किसी का हित नहीं सधेगा और ना ही स्थायी शांति और स्थिरता आएगी. प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि 30 सितंबर, 2010 के अपने फैसले में उच्च न्यायालय ने ऐसा रास्ता चुना जो खुला हुआ नहीं था और ऐसी राहत दी जिसकी मांग उनके समक्ष दायर मुकदमों में नहीं की गयी थी. संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई. चन्द्रचूड, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर शामिल हैं.  पीठ ने कहा, हम पहले ही इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि हाईकोर्ट द्वारा विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाना कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं था. यहां तक कि शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिहाज से भी वह सही नहीं था.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1989 में ‘भगवान श्रीराम लल्ला विराजमान' की ओर से दायर याचिका बेवक्त नहीं थी क्योंकि अयोध्या में विवादित मस्जिद की मौजूदगी के बावजूद उनकी ‘पूजा-सेवा' जारी रही. ‘नियंत्रण का कानून' तकलीफ में आये पक्ष को एक तय सीमा के भीतर अपनी ओर से मुकदमा/अपील दायर करने को कहता है. 22/23 दिसंबर, 1949 को मुख्य गुंबद के नीचे कथित रूप से प्रतिमा रखे जाने के बाद संपत्ति जब्त कर ली गयी और सुन्नी बक्फ बोर्ड को कथित रूप से उस जमीन से हटा दिया गया. उसे इस घटना के 12 साल के भीतर शिकायत दर्ज कराने का अधिकार था. प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने मुसलमान पक्ष की इस दलील को खारिज कर दिया कि राम लल्ला विराजमान की ओर से दायर याचिका बेवक्त है क्योंकि घटना 1949 की है और याचिका 1989 में दायर की गयी है. 

शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के इस हिस्से को अपने फैसले में बरकरार रखा कि मुख्य गुम्बद के नीचे का हिस्सा भगवान राम की जन्मभूमि है. पीठ ने कहा कि यह तय करते हुए कि राम लल्ला विराजमान की ओर से दायर याचिका बेवक्त तो नहीं थी, हमें एक बात का ख्याल रखना होगा कि अन्य मामलों में राम लल्ला को पक्ष नहीं बनाया गया था. यानि उपासक गोपाल सिंह विशारद, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपनी अर्जियों में राम लल्ला को पक्ष नहीं बनाया था. उसने कहा कि मुकदमा संख्या पांच में दोनों, पहले (राम लल्ला) और दूसरे (जन्मभूमि) का अपना-अपना न्यायिक व्यक्तित्व है. 

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पहले पक्ष का न्यायिक व्यक्तित्व उपासकों से अलग है. पीठ ने कहा कि 29 दिसंबर, 1949 में विवादित संपति की जब्ती के बावजूद महत्वपूर्ण बात यह है कि राम लल्ला की ‘सेवा-पूजा' कभी बंद नहीं हुई. 



(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)