वामपंथियों के लिये 2019 के चुनावी समर में वजूद का संकट

सीपीआई नेता डी राजा ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, "लोकसभा चुनाव अभी दूर है और किसी मोर्चे की बात करना ठीक नहीं है. इस वक्त सभी पार्टियों के लिये ज़रूरी है कि बीजेपी के खिलाफ एक सही चुनावी रणनीति बनायी जाये."

वामपंथियों के लिये 2019 के चुनावी समर में वजूद का संकट

सीपीआई नेता डी राजा (फाइल फोटो)

नई दिल्‍ली:

आगामी लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के साथ आने की खबरों से जहां क्षेत्रीय क्षत्रप नये सिरे से चुनावी संभावनाएं तलाश रहे हैं वहीं वामपंथी पार्टियों को 2019 के लोकसभा चुनावों में अपने अप्रासंगिक होने का डर सता रहा है. जहां एक ओर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सभी गैर बीजेपी गैर कांग्रेसी दलों के साथ संपर्क साध कर एक फेडरल फ्रंट खड़ा करने की कोशिश में हैं वहीं सीपीएम और सीपीआई को लगता है कि तीसरे या चौथे मोर्चे या फेडरल फ्रंट की बात करना बीजेपी को ही फायदा पहुंचायेगा.

सीपीआई नेता डी राजा ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, "लोकसभा चुनाव अभी दूर है और किसी मोर्चे की बात करना ठीक नहीं है. इस वक्त सभी पार्टियों के लिये ज़रूरी है कि बीजेपी के खिलाफ एक सही चुनावी रणनीति बनायी जाये."

वामपंथी नेताओं के मुताबिक किसी मोर्चे की बात करना बीजेपी के हाथों में खेलना है जो विपक्ष के वोटों का बंटवारा चाहती है. सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य मोहम्मद सलीम का कहना है, "इस वक्त बीजेपी के विरोध में जो भी वोट हैं उनका बंटवारा होने से रोकना ही चुनावी रणनीति होनी चाहिये."

हालांकि वामपंथियों को ये डर ही सता रहा है कि त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में वह अप्रासंगिक न हो जाएं. सीपीएम का गढ़ बंगाल अब तृणमूल कांग्रेस के कब्ज़े में है. वोट प्रतिशत के मामले में बीजेपी वहां दूसरे नंबर पर आ गई है. कांग्रेस के साथ चुनावी गठजोड़ भी किसी काम नहीं आया क्योंकि वोटों का ध्रुवीकरण तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच हो रहा है.

त्रिपुरा में वामपंथियों का 25 साल पुराना किला ढह गया है और अब केरल में ही उनका राजनीतिक वजूद बचा है. ऐसे में राजनीतिक शक्ति के रूप में लेफ्ट कितना बचा रहेगा ये सीपीएम और सीपीआई के दिमाग में बड़ा सवाल है. दोनों ही पार्टियों के महासम्मेलन अगले महीने हो रहे हैं जिसे 'पार्टी कांग्रेस' कहा जाता है. सीपीएम का सम्मेलन हैदराबाद में तो सीपीआई का केरल के कोल्लम में होगा.

सीपीएम की दुविधा है कि कांग्रेस से गठजोड़ को लेकर पार्टी के भीतर एक राय नहीं है. पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी की चाहत के बावजूद सीपीएम की केंद्रीय समिति कांग्रेस से किसी तरह के गठजोड़ से इनकार कर चुकी है. पार्टी के पूर्व महासचिव और वरिष्ठ पोलित ब्यूरो नेता प्रकाश करात और उनका खेमा कांग्रेस के साथ तालमेल के खिलाफ है.

एक वामपंथी नेता ने कहा, "इस बारे में आखिरी फैसला अगले महीने हो रही पार्टी कांग्रेस में होगा."

उधर ममता बनर्जी ने पिछले दिनों डीएमके नेता एम के स्टालिन और तेलंगाना राष्ट्र समिति के चंद्रशेखर राव से बात की जिसके बाद एक मोर्चे की बातों को बल मिला. यूपी और बिहार के उपचुनावों में बीजेपी की हार के बाद ममता बनर्जी ने तुरंत ट्वीट कर बीजेपी की ओर इशारा करते हुए कहा कि ये "अंत की शुरुआत" है.

यानी ममता सबको एक फ्रंट में लाने की कोशिश कर रही हैं. टीएमसी नेता सुखेंदु शेखर रॉय ने कहा, “राष्ट्रीय पार्टी नहीं बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां ही मिलकर बीजेपी को रोक सकती हैं."

डीएमके और एनसीपी के अलावा आम आदमी पार्टी ने बीजेपी को हराने के लिए पार्टियों के साथ आने की अपील की है. जहां आम आदमी पार्टी के संजय सिंह ने कहा कि यूपी उपचुनावों के नतीजों से पता चल गया कि क्षेत्रीय पार्टियां मिलकर क्या कर सकती हैं वहीं डीएमके और एनसीपी ने सबके साथ आकर लड़ने की बात कही. बुधवार को राहुल गांधी ने शरद पवार से मुलाकात भी की.

उधर वामपंथियों को लगता है कि एक मोर्चा बनाकर लड़ने के बजाय हर राज्य के हिसाब से अलग रणनीति होनी चाहिये ताकि हर जगह बीजेपी को रोका जा सके. एक वक्त था कि जब किसी भी मोर्चे की कल्पना लेफ्ट फ्रंट के बिना नहीं की जा सकती थी लेकिन अभी लेफ्ट चित पड़ा है. वामपंथी मानते हैं कि त्रिपुरा की हार के बाद एक राजनीतिक चुनावी शक्ति के रूप में उनका काफी नुकसान हुआ है लेकिन उनका कहना है कि वैचारिक ताकत के रूप में लेफ्ट का महत्व रहेगा. शायद इसीलिए महाराष्ट्र के किसान मार्च को वामपंथी अपनी उपलब्धि के रूप में दिखाना चाहते हैं.

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डी राजा ने कहा, "किसान मार्च ने दिखाया कि वैचारिक रूप से हम मज़बूत हैं और हमारी ज़मीनी ताकत खत्म नहीं हुई है. किसी भी राज्य में लेफ्ट के साथ जुड़ने से दूसरी पार्टियों की विश्वसनीयता बढ़ती है." लेकिन इस बार राजनीतिक संकट बहुत गहरा है ये येचुरी, करात और राजा समेत सारे नेता समझते हैं.


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