आखि‍र क्यों बच्चों में बढ़ रही है गैजेट्स निर्भरता, कैसे ना पड़ने दें इनकी आदत

काम की जल्दबाजी में रहने वाली मांओं को लगता है कि वह अपने बच्चे को खाना खिलाने और उन्हें संभालने के आसान तरीके सीख गयी हैं.

आखि‍र क्यों बच्चों में बढ़ रही है गैजेट्स निर्भरता, कैसे ना पड़ने दें इनकी आदत

खास बातें

  • उसे खाना खिलाना बहुत आसान हो जाता है.
  • बच्चे कहानी सुनने के बजाय मोबाइल पर खेलने के आदी होते जा रहे हैं.
  • खासतौर पर गर्मियों की छुट्टियों में ऐसा ज्यादा देखने को मिला.

परमिता चटर्जी की बेटी हर बार खाना खाने से मना कर देती है, लेकिन जब वह अपने आईपैड या फोन पर स्नो व्हाइट की कहानी उसे दिखाती हैं तो उसे खाना खिलाना बहुत आसान हो जाता है. काम की जल्दबाजी में रहने वाली मांओं को लगता है कि वह अपने बच्चे को खाना खिलाने और उन्हें संभालने के आसान तरीके सीख गयी हैं. आज के जमाने में ढाई से पांच साल की उम्र के आसपास के बच्चे कहानी सुनने के बजाय मोबाइल पर खेलने के आदी होते जा रहे हैं और उन पर वीडियो और गेम डाउनलोड करने लगे हैं. पिछले तीन साल में इन बच्चों का ध्यान इस तरह बांटना एक जरूरत सी बनती जा रही है.

न पड़ जाए काउंसलिंग की जरूरत
परमिता जैसी माएं अपने बच्चों के व्यवहार में हो रहे बदलावों को देख रही हैं और उन्हें मोबाइल जैसे गैजेट से दूर करने की कोशिश करती हैं. उनका डर तब और बढ़ जाता है जब उन्हें यह खबर सुनने को मिलती है कि नौ साल के एक बच्चे ने स्मार्टफोन नहीं मिलने पर खुद को चाकू से जख्मी कर लिया. परमिता की तरह ही नौ साल के उस लड़के के माता-पिता भी उसे खाना खिलाने या किसी काम में लगाने के लिए फोन देते थे. हालांकि परमिता अपनी बच्ची को लेकर समय पर सतर्क हो गयी हैं, जबकि उस बच्चे के माता-पिता समय पर स्थिति को नहीं संभाल सके और अब दिल्ली के एक अस्पताल में काउंसलिंग ले रहे हैं.

नोटिस करें बदलाव
परमिता ने कहा, ''हमने उसके व्यवहार में बदलाव देखा. खासतौर पर गर्मियों की छुट्टियों में ऐसा ज्यादा देखने को मिला. वह मोबाइल को लेकर बिल्कुल दीवानी हो जाती थी. तब हमें पता चला कि उसने गेम खेलना और धीरे धीरे हिंदी गीत सुनना शुरू कर दिया. '' मनोचिकित्सक और फोटर्सि नेशनल मेंटल हेल्थ काउंसिल के अध्यक्ष डॉ समीर पारिख के अनुसार बच्चों के लिए अनेक तरह के एप्प विकसित होने से उनमें कई तरह के उपकरणों को आसानी से इस्तेमाल करते देखना आम बात हो गयी है.

आसान राह न चुनें
बच्चों का ध्यान खींचने के लिए किसी स्क्रीन का इस्तेमाल करने की आदत माता-पिता के बीच बढ़ती जा रही है. चाहे जब बच्चे को खाना खिलाना हो, या किसी सार्वजनिक स्थान पर उसे व्यस्त रखना हो, ऐसा लगता है कि बच्चों के हाथ में मोबाइल या टैबलेट देना सबसे आसान चीज है. '' पारिख ने कहा, ''हमारे अपने जीवन में तकनीक पर निर्भरता बढ़ने से बच्चों के लिए भी यह विकल्प हमें अनुपयुक्त नहीं लगता. '' मैक्स अस्पताल के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ समीर मल्होत्रा ने कहा कि शहरी जीवनशैली और उसमें तकनीक की सेंध एक खतरनाक मिश्रण बनता जा रहा है.

बच्चे के साथ बिताएं समय
कामकाज की व्यस्तता, सामाजिक सहयोग का कम होता नेटवर्क आदि से स्वस्थ और सार्थक संवाद के लिए अच्छा समय बहुत कम रह जाता है. परमिता मानती हैं कि बच्चों के हाथ में इस तरह के साधनों को देने के लिए माता-पिता को जिम्मेदार माना जाना चाहिए. चेन्नई की चित्रा स्वामीनाथन दसवीं कक्षा में पढ़ रहे अपने बेटे के साथ अच्छा समय बिताने की कोशिश करती हैं. उनकी लंबी बातचीत होती है और वे साथ-साथ टहलते हैं.

बच्चे न रहें अकेले
उन्होंने कहा, ''बच्चों का अकेलापन उन्हें गैजेट पर निर्भर बनाता है. '' कुल मिलाकर विशेषज्ञ बच्चों के साथ समय बिताने, उनसे संवाद करने को सबसे ज्यादा जरूरी मानते हैं जिससे उनकी निर्भरता मोबाइल फोन, टैबलेट आदि पर कम से कम हो जाए.

(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)


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