पुस्तक समीक्षा : 'इश्क की दुकान बंद है' - समाज को तमाचा जड़ती महिलाओं की कहानियां

पुस्तक समीक्षा : 'इश्क की दुकान बंद है' - समाज को तमाचा जड़ती महिलाओं की कहानियां

'इश्क की दुकान बंद है' नरेंद्र सैनी का पहला कहानी संग्रह है. लेकिन अपने पहले ही संग्रह की कहानियों में वे जिस तरह रिश्तों और मानवीय संबंधों की बारीक पड़ताल करते हैं, वह हैरानी भरा है. इन कहानियों में मुख्यतः आधुनिक जीवन में बदलते रिश्तों और संवेदनाओं को पकड़ने की कोशिश गई है. यह कहानीकार की खूबी है कि इसके पात्र हमारे आसपास रचे-बसे नजर आते हैं. कहानियां उन पात्रों के साथ अपने-आप बढ़ती हैं, पकती हैं और अचानक ऐसे अंत पर ठहर जाती हैं कि पाठक हैरान रह जाता है.

इन कहानियों के अंत में हमारे खुद-ब-खुद सवाल उमड़ते हैं कि क्या वाकई रिश्ते ऐसे हो गए हैं. मसलन 'डेडलाइन' कहानी की नायक-नायिका राज और मिताली अपने हालात और शक में इतने उलझ जाते हैं कि उनका रिश्ता खत्म होते-होते रह जाता है. लेकिन इसका अंत इतना नाटकीय जान पड़ता है कि सहसा आपको इस पर यकीन नहीं होगा. हालांकि कालजयी रचनाकार मंटो से इसकी तुलना ठीक नहीं फिर भी 'डेडलाइन' कहानी का अंत मंटो की कहानियों की याद दिला जाता है.

नरेंद्र सैनी की कहानियों की स्त्री पात्र सशक्त तौर पर उभरी हैं. वे अपने रिश्तों में उलझी जरूरी हैं पर आखिर में ताकतवर होकर उभरती हैं. चाहे वह 'डेडलाइन' की मिताली हो या फिर 'बास्टर्ड' की श्रुति. वे अपनी शर्तों पर रिश्ते तय कर रही हैं. या फिर 'आयशा' की तरह खुलकर इश्क का इजहार करती हैं, भले ही सामने वाले से उनको धोखा मिल रहा हो. ये पात्र समाज की तथाकथित परंपराओं को न केवल ठेंगा दिखाते हैं बल्कि जोरदार तमाचा भी जड़ते हैं. इससे समाज भौचक रह जाता है.

कुल मिलाकर इस संग्रह की कहानियां आधुनिक जीवनशैली और हमारे रिश्तों, खासकर महिलाओं में आए बदलावों को अभिव्यक्त करती हैं. चाहे वह कॉलेज जाती युवतियां हों या नौकरीपेशा महिलाएं. संग्रह की कहानियां रिश्तों की बारीकियों को इस तरह पकड़ती हैं मानो लेखक ने शिद्दत के साथ उनके साथ गुजरे हों.

किताब - इश्क की दुकान बंद है
कहानी संग्रह
लेखक- नरेंद्र सैनी
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन
कीमत- 225 रु.

(तहसीन मजहर दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हिंदी में एमफिल की छात्रा हैं)


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