मैंने अंडमान की सेलुलर जेल भी देखी है। दिल्ली के कापसहेड़ा और गुड़गांव के उन गांवों को भी देखा है, जहां बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा से आए मज़दूर रहते हैं। आपको हैरानी होगी।
मैं एक राष्ट्रीय रैली आयोग का प्रस्ताव करना चाहता हूं। विधि द्वारा स्थापित न होने के बाद भी मैं राष्ट्रीय रैली आयोग का अध्यक्ष बनाए जाने पर रैलियों में आने वाले लोगों की गिनती का कोई न कोई विश्वसनीय पैमाना ज़रूर बनाऊंगा।
बिहार चुनाव में अब गणित एनडीए खेमे का कैसा रहेगा, नज़र इस पर रहेगी। एनडीए के सीट बंटवारे पर पहली बैठक हुई भाजपा अध्यक्ष अध्यक्ष अमित शाह के घर पर, लेकिन किस दल को कितनी सीटें मिलेंगी यह तय नहीं हो सका।
बिहार का पैकेज पॉलिटिक्स बेशक सुर्खियों में हो, लेकिन पटना पहुंचते ही अहसास हो जाता है कि वोट के लिए पोस्टर पॉलिटिक्स की भी अहमियत है। प्लेटफॉर्म से बाहर आते वक्त आपको चारों तरफ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नज़र आते हैं।
सत्तर पचहत्तर दिनों से पूर्व सैनिक जंतर मंतर पर अपनी मांग को लेकर धरने पर हैं। यह धरना उन सभी वर्गों के लिए नज़ीर बनना चाहिए जिनसे चुनाव के वक्त नेता वादे करते हैं और सरकार बनने के बाद भूल जाते हैं। उनकी एकजुटता का नतीजा इतना तो निकला है कि सरकार युद्ध स्तर पर प्रयास कर रही है।
बिहार अपने आप से हारता जा रहा है। चुनाव में दो में से कोई एक गठबंधन तो जीत जाएगा लेकिन इस चुनाव में बिहार की हार तय होने जा रही है। इतना उद्देश्यहीन और हल्का चुनाव कभी नहीं देखा। हर तरफ़ अनैतिक गठबंधन हैं।
बिहार चुनाव अब छवियों का घमासान बनता जा रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से गले मिलते दिखाई दिए। दिल्ली में दोनों नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जम कर निशाना साधा और फिर खबर आई कि अरविंद केजरीवाल 27 तारीख को बिहार जाकर साझा कार्यक्रम करेंगे।
विशेष दर्जा और विशेष पैकेज में क्या अंतर है इसे राजनीतिक विद्वान बांचते रहेंगे लेकिन जिन्हें मंच लूटना था वो लूट ले गए। जनता को एक फाइनल फीगर मिल गया है। चौक चौराहे पर लोग सेक्टर के आधार पर हिसाब नहीं लगाएंगे।
डीएनए यानि डीआॅक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड, इसकी खोज वाॅटसन और क्रिक ने 1953 में की थी। तब उन्होने ने सोचा भी नहीं होगा कि 62 साल बाद उसी डीएनए पर बिहार में राजनैतिक बहस होगी। उस प्रदेश के लोग इस पर बहस कर रहे हैं, जहां से कहा जाता है कि सबसे अधिक अफसर चुने जाते हैं।
इस चुनाव में केवल बीजेपी के लिए ही सीख नहीं है, आम आदमी पार्टी के लिए भी बहुत कुछ है। दिल्ली की जनता ने ऐतिहासिक बहुमत ही नहीं, 'आपराधिक बहुमत' एक पार्टी को दे दिया है, क्योंकि लोकतंत्र में विपक्ष न होने पर शासन के निरंकुश होने की संभावना बनी रहती है।
पिछले साल 14 फरवरी को केजरीवाल ने इस्तीफा दिया था, और ठीक एक साल बाद वह उसी दिन मुख्यमंत्री का ताज पहनेंगे, लेकिन 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में 96 फीसदी सीटें जीतने वाले केजरीवाल की इस जीत के कुछ फायदे हैं, तो कुछ नुकसान भी हैं...
16 मई 2014 के ऐतिहासिक दिन के बाद लगा था कि भारत की राजनीति एकमुखी होती चली गई है, लेकिन 10 फरवरी 2015 को लग रहा है कि बहुमुखी बने रहने की अभी तमाम संभावनाएं मौजूद हैं।
हाल ये रहा कि पार्टी के चारों दिग्गज - सदर बाज़ार से अजय माकन, मटिया महल से शोएब इकबाल, बल्लीमारन से हारून युसूफ और चांदनी चौक से प्रहलाद साहनी बुरी तरह हारे। इनमें शोएब इकबाल को छोड़कर बाकि तीनों दिग्गज़ उम्मीदवार तीसरे नंबर पर खिसक गए।
किरण बेदी को बीजेपी ने बहुत तामझाम से पार्टी में शामिल किया। इसे उसका मास्टर स्ट्रोक बताया गया। लगा कि केजरीवाल के मुकाबले पार्टी को एक चेहरा मिल गया है, लेकिन बीजेपी का ये दांव पूरी तरह उल्टा पड़ा।
किसी भी चुनाव में नारे और गाने अहम किरदार निभाते हैं, जैसे लोकसभा चुनाव 2014 में 'अबकी बार, मोदी सरकार' और 2004 में 'कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ' बहुत मशहूर हुए थे...
खरगोश और कछुए की कहानी में कछुआ धीरे-धीरे बस चलता रहता है और आखिर में अति-आत्मविश्वास के कारण रफ्तार का धनी होते हुए भी खरगोश सुस्त चाल वाले कछुए से हार जाता है।
चाय की दुकान पर पूछा, "भाई, किसे जिता रहे हो...?" जवाब आया, ''केजरीवाल...'' फिर पूछा, "क्यों... मोदी जी से क्या नाराज़गी है...?" बोला, ''लोकसभा के लिए उन्हें वोट दिया था... लेकिन विधानसभा के लिए केजरीवाल को दूंगा... आखिर उन्हें रोकने के लिए भी कोई चाहिए, वर्ना वह भी बेलगाम हो जाएंगे...''
कृष्णा नगर जैसी सेफ सीट से मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार किरण बेदी को लड़ाने का फैसला सुनाकर बीजेपी ने संदेश दिया कि उसके पास अरविंद केजरीवाल की टक्कर का कोई नेता नहीं, शायद इसीलिए नई दिल्ली सीट से पार्टी ने नूपुर शर्मा जैसे अनजान नाम को लड़ाने का फैसला किया।
लोकसभा चुनाव 2014 के मुकाबले दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन एकदम उलट इसलिए रहा है, क्योंकि पिछले चुनाव में पार्टी और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल ने जो गलतियां की थीं, उनसे उन्होंने सीख ली और विधानसभा चुनाव में उन्हें सुधार लिया...