मोदी जी, यह विकास पुरुष की भाषा नहीं है

मोदी जी, यह विकास पुरुष की भाषा नहीं है

यह 2017 है और जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक जोर देते हैं, कि हम 'लिबरल्स' (उदारवादी) अब तक 2002 में हुई घटना में उनकी कथित भूमिका में फंसे हुए हैं और उनके विकास के मुद्दे को नहीं देख रहे हैं. आरोपों में कुछ तो सच्चाई होती ही है. लेकिन हम उदारवादी जब भी एनडीए सरकार के काम पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करते हैं या फिर प्रधानमंत्री को उत्तर प्रदेश के कल्याण के बारे में बोलते हुए सुनते हैं, वह ऐसा कुछ कह देते हैं कि हम वापस इतिहास में पहुंच जाते हैं.

कुछ पृष्ठभूमि. मैं माफी के साथ कहना चाहूंगी कि मोदी और अमित शाह पर एक किताब की मैं लेखिका हूं और मैं मोदी के बतौर मुख्यमंत्री 2002 में गुजरात में हुए चुनाव में दिए भाषण से कोट करना चाहती हूं, ''मैंने उन्हें बताया कि श्रवण मास में मैं नर्मदा का पानी लेकर आया हूं. अगर वह सही रास्ते पर चलते तो उन्हें रमजान में यह मिलता, हमें क्या करना चाहिए.' 'उनके लिए रिलीफ कैंप लगाना चाहिए? क्या हमें बच्चे पैदा करने के केंद्र खोलने चाहिए? हम पांच और हम 25 बच्चे पैदा करेंगे. गुजरात अपनी बढ़ती जनसंख्या पर रोक नहीं लगा पाया है और गरीब आदमी को पैसा नहीं मिल पा रहा है.''

अब हम वापस वर्तमान में आते हैं. 15 साल बाद मोदी जी देश के प्रधानमंत्री हैं. वह विकास पुरुष हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों में देश की सुरक्षा के लिए 56 इंची सीने की बात करते हैं. जैसा कि हम मानते हैं, बतौर नागरिक हम किसी भी जाति, धर्म, संप्रदाय से हों, पहले हम सब देशवासी हैं.

फतेहपुर की चुनाव रैली में रविवार को प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसा कुछ कहा जिससे उन लोगों को दुख हुआ होगा जो 2002 की बातों को भूल जाना चाहते थे. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर कटाक्ष करते हुए मोदी ने कहा, 'गांव में अगर कब्रिस्तान बनता है तो शमशान भी बनना चाहिए. रमजान में बिजली मिलती है तो दिवाली पर भी बिजली मिलनी चाहिए. जाति धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए.' इसके जवाब में अखिलेश यादव ने जोर देकर कहा है कि वह गंगा की कसम खाकर कहते हैं कि कोई भी भेदभाव नहीं किया गया है.

यह कोई इशारा नहीं था, यह स्पष्ट तौर पर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश है. इस बात से हम वापस 2002 की बात याद करने को मजबूर हुए. यह राजनीतिक बयानबाजी का निचला स्तर है. जैसा कि उम्मीद थी, उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी अखिलेश यादव ने अमिताभ बच्चन से कहा कि गुजरात के गधों का विज्ञापन करना बंद कर दें. राजनीतिक विचार विमर्श डूब गया है.

अपने पुराने कॉलम में मैंने विस्तार से चर्चा की थी कि किस प्रकार अखिलेश यादव ने मुजफ्फरनगर दंगों के पीड़ितों की समस्याओं को सुलझाने में गैर-जिम्मेदाराना रवैया अपनाया था. लेकिन मोदी का राजनीतिक बयान काफी नुकसानदायक है. मोदी अब केवल स्टार प्रचारक नहीं हैं. वह भारत के, दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री हैं.

मोदी के समर्थकों का कहना है कि यह अखिलेश यादव की अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की नीति पर प्रधानमंत्री का कटाक्ष था. आजादी की लड़ाई से लेकर अब तक यह तर्क दक्षिणपंथी विचारकों के बुनियाद में रहा है.

प्रधानमंत्री ने वह बात बोली जिससे लोग नाराज हुए, राज्य ने 2014 में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद ध्रुवीकरण देखा है. पीएम मोदी की पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने एक दूसरी चुनावी रैली में अपने प्रमुख को निराश नहीं किया. उन्होंने मथुरा में भीड़ से पूछा कि क्या उन्हें अखिलेश सरकार ने लैपटॉप दिए. भीड़ का जवाब न में था. फिर अपने भाषण की तीव्रता बढ़ाते हुए उन्होंने मुसलमानों का परोक्ष उल्लेख करते हुए कहा कि उन लोगों को अखिलेश सरकार से लैपटॉप मिल गए हैं. बीजेपी ने अभी तक इस बात का कोई सबूत नहीं दिया है कि लैपटॉप के वितरण में किसी प्रकार का भेदभाव हिंदुओं के साथ हुआ है. क्या यह पूर्वानुमान है?

ऐसा नहीं है कि मोदी और उनके मंत्रियों पर पहली बार चुनाव को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश का आरोप लगा है, खास तौर पर ऐसे राज्यों में जहां पर उन्हें कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ रहा हो. बिहार में चुनाव के दौरान अमित शाह ने कहा था कि अगर वह सत्ता में नहीं आए तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वघोषित भ्रष्टाचार पर सर्जिकल स्ट्राइक यानी नोटबंदी के बाद यह पहला चुनाव है. अगर पीएम मोदी को वाकई में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग की चिंता है या फिर वह अपनी सरकार के विकास के एजेंडे को दर्शाना चाहते हैं तो फिर वह नोटबंदी की बात क्यों नहीं करते हैं, क्यों नहीं वह कालेधन को वापस लाने के वादे पर बात करते हैं.

अगर बयानबाजी को एक तरफ रख दें तो उत्तर प्रदेश में आम आदमी के लिए मूलभूत जरूरतें बिजली, लड़कियों की सुरक्षा, शिक्षा और भ्रष्टाचार मुक्त राज्य हैं. अगर कोई वोटर किसी बात को लेकर सर्वे करेगा तो शायद श्मशान का मैदान सबसे अंत में आएगा.

यह साफ है कि 'सबका साथ सबका विकास' नारे के साथ सत्ता में आए प्रधानमंत्री के लिए इस चुनाव में काफी कुछ दांव पर लगा है. यह भी स्पष्ट है कि उनकी पार्टी को राज्य में एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं मिला जो विधानसभा चुनाव लड़ सके. यह साफ है कि प्रधानमंत्री 2002 के अपने पानी वाले बयान से एक इंच भी आगे नहीं बढ़े हैं. इस बयान में उन्होंने कहा था कि वह श्रावण में गुजरातियों के लिए पानी लाना चाहते हैं न कि रमजान के समय...

राणा अय्यूब पुरस्कृत इन्वेस्टिगेटिव पत्रकार तथा राजनैतिक लेखिका हैं... उन्होंने गुजरात में नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह की राजनीति पर 'गुजरात फाइल्स' शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी है...

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