'अंग्रेज़ी में कहते हैं' कहानी बत्रा परिवार की है, जहां यशवंत अपनी पत्नी और बेटी के साथ रहता है और पोस्ट ऑफिस में काम करता है. यशवंत अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियां तो पूरी निभाता है लेकिन उसकी ज़िंदगी से परिवार के प्रति प्रेम कहीं ग़ायब हैं या यूं कहें कि उसे जताना नहीं आता और बतौर घर का मुखिया वो रूखा व सख़्त है जिसके चलते उसका घर टूटने लगता है. क्या वह इस टूटते घर को बचा पाएगा या नहीं उसके लिए आपको फ़िल्म देखनी चाहिए.
क्या हैं खामियां?
इस फिल्म की पहेली ख़ामी मुझे लगी की संजय मिश्रा के किरदार के रूखेपन और उसके परिवार के प्रति उसकी नीरसता को उबारने की और ज़रूरत थी क्योंकि फ़िल्म में ऐसा कहीं से नहीं लगता की उसे अपने परिवार से लगाव नहीं है.
दूसरी ख़ामी यह है कि फ़िल्म की कहानी ठीक है पर कोई नयापन नहीं है और तीसरी बात फ़िल्म का सुर जो मध्यांतर के बाद बदल जाता है, फ़िल्म के इस हिस्से में ठहराव के साथ चल रही ये फ़िल्म कहीं और भटकने लगती है और थोड़ी कॉमडी की ओर जाती है जो फ़िल्म के विषय, ट्रीटमेंट और मिज़ाज के साथ मेल नहीं खाती.
देखें ट्रेलर -
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क्या है खूबियां?
इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ूबी है इसका विषय और मुझे लगता है बहुत से लोग इस से जुड़ पाएंगे. इसकी दूसरी खूबी फिल्म के मंझे हुए कलाकार हैं. संजय मिश्रा बहुत कमाल के एक्टर हैं ये वो कई बार पहले साबित कर चुके हैं और यहां भी उन्होंने कोई ग़लती नहीं की. साथ ही एकावली, अंशुमन, बृजेंद्र काला, शिवानी और पंकज त्रिपाठी सबने अपने पाले बख़ूबी संभाले हैं. निर्देशक हरीश व्यास में एक अच्छे निर्देशक की सम्भावनाएं दिखती है और उनके निर्देशन में ठहराव है बस फ़िल्म का वो हिस्सा छोड़ दे तो जिसकी बात मैंने ख़ामियों के दौरान की. मेरी ओर से इस फिल्म को 3 स्टार.
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स्टार कास्ट: संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी, बृजेंद्र काला, एकावली खन्ना, अंशुमन झा, शिवानी रघुवंशी और इपशिता चक्रबर्ती
डायरेक्टर व स्टोरी: हरीश व्यास
स्क्रीनप्ले: आर्यन साहा और हरीश व्यास
म्यूजिक: ओनिर-आदिल और रंजन शर्मा
सिनेमेटोग्राफ़ी: फारूख मिस्त्री
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