यह ख़बर 11 मार्च, 2012 को प्रकाशित हुई थी

22 महीने की त्रासदी झेल लौट आए 'घर के चिराग'

खास बातें

  • 'साल 2010 में 15 मई की सुबह स्ट्रेट ऑफ होर्म्ज होकर कोरसक्कान जा रहे 'अल वतूल' जहाज के पास दो स्पीड बोट पर सवार 6 लोग आए... उन्होंने दूर से पानी मांगा... जहाज के कैप्टन ने पानी दिया... और बोट पानी लेकर वापस चली गई।
नई दिल्ली:

'साल 2010 में 15 मई की सुबह स्ट्रेट ऑफ होर्म्ज होकर कोरसक्कान जा रहे 'अल वतूल' जहाज के पास दो स्पीड बोट पर सवार 6 लोग आए... उन्होंने दूर से पानी मांगा... जहाज के कैप्टन ने पानी दिया... और बोट पानी लेकर वापस चली गई। फिर दूर सागर में एक चक्कर लगाकर लगभग पांच-सात मिनट में फिर से वही स्पीड बोट वापस लौटी... वोट में से 4-5 लोग चलते जहाज से लटके टायरों के सहारे प्लेटफॉर्म पर चढ़ आए... और चढ़ते ही फायरिंग शुरू हो गई...।'  

अपने साथ घटी अनहोनी का वृतांत सुनाते कैडेट भूपेंद्र सिंह बताते हैं, 'जहाज के कैप्टन विक्रम सिंह बाहर निकले तो सबसे पहले उन्हीं पर हमला कर दिया गया। उन्हें काबू में कर जहाज पर मौजूद सभी लोगों को एक जगह इकट्ठा होने के लिए कहा गया। इस दौरान चीफ इंजीनियर नरेंद्र कुमार ने कुछ हरकत की तो उन्हें चाकू से घायल कर दिया। इस अफरातफरी में दो कैडेट सरवन सिंह और जितेंद्र सिंह दो अलग-अलग जगहों पर छिप गए। बाकी के लोगों को घेरकर एक कमरे में ठेल दिया गया। कुछ लोगों को सारा लगेज एक तरफ रखने का हुक्म दिया गया। सारा सामान तथा हाथों में और जेबों में जो कुछ था वो सब छीन लिया गया।'    

'इसके बाद, ब्रिज में जाकर रडार, जीपीएस और वीएचएफ सिस्टम को तोड़ डाला। सैटेलाइट फोन, मोबाइल फोन, वॉकी टॉकी को अपने हवाले कर वापस स्पीड बोट पर सवार होकर चले गए। जाते-जाते कमरे का दरवाजा भी बंद कर गए। कुछ देर तक जहाज पर पूरी तरह शांति रही तो हिम्मत जुटाकर आठों लोग दरवाजा तोड़कर बाहर निकले। वहीं कहीं छिपा हुए जितेंद्र सिंह भी बाहर निकल आया। वहीं बाजू के कमरे में एक अलमारी के नजदीक सरवन की लाश पड़ी थी। जो डाकुओं को देखकर शायद उसी अलमारी में छिप गया था। डाकुओं ने जब अलमारी की तलाशी ली तो वह उनके सामने पड़ गया और उसे गोली मार दी जिससे उसकी तुरंत मौत हो गई। अब तक सरवन को ढूंढ रहा अमित कुमार भी आ पहुंचा। सरवन के शव को डीप फ्रीजर में रख दिया गया।'

साथी कैडैट भूमराम बताते हैं, 'सभी लोगों ने ब्रिज में जाकर देखा तो वहां सब कुछ टूटा-फूटा पड़ा था। जहाज पर मौजूद दवा आदि से घायलों की ड्रेसिंग की गई। जहाज बस किसी तरह सेलिंग कर पा रहा था। और दुबई की ओर बह रहा था। हल्के से तूफान की वजह से जहाज ज्यादा 'मूव' नहीं कर पा रहा था... सो लंगर डाल दिया गया।'

लेकिन, खतरा अभी टला नहीं था...

अभी सभी लोग राहत की सांस लेने की कोशिश कर ही रहे थे कि ऑर्डिनरी सीमैन भूपेंद्र सिंह को फिर से एक और स्पीड बोट जहाज के निकट आती दिखाई दी। यह बोट ईरानी कोस्ट गार्ड की थी। उन्होंने तुरंत लंगर उठाने का आदेश देते हुए कहा कि आप लोग बिना अनुमति के ईरानी समुद्री सीमा में आ गए हो और कस्टडी में हो।

वलसाड के भूपेंद्र सिंह, जयपुर के विकास चौधरी, भूमराम रूंदला और रतिराम जाट (दोनों भाई), रांची के अमित कुमार, लुधियाना के जितेंद्र सिंह, भिवानी के विक्रम सिंह, रेवाड़ी के नरेंद्र कुमार, महाराष्ट्र के प्रकाश जाधव तथा अलीगढ़ के सरवन सिंह ने हैदराबाद के एक मर्चेंट नेवी प्रशिक्षण संस्थान सी-हॉर्स अकादमी ऑफ मर्चेंट नेवी में प्रवेश लिया था। कोर्स के दौरान ही ऑन बोर्ड ट्रेनिंग और नौकरी का वादा किए जाने के चलते इन छात्रों को एजेंटों के जरिए दुबई की बिन खादिम कंपनी के तेल वाहक जहाज 'अल वतूल' पर तैनाती करा दी गई थी। युवकों ने अपने परिजनों को बताया था कि वे शारजाह से ईरान तेल के आयात-निर्यात करने वाले जहाज पर तैनात हैं।

कस्टडी में लिए गए इन सभी लोगों को ईरान के टापू खिश्म लाया गया और वहां उन्हें करीब ढाई महीने रखा गया। इसके बाद उन्हें बंदर अब्बास पर शिफ्ट कर दिया गया। यहां उन्हें 18 महीने रखा गया। सभी कैडेट किसी तरह भारतीय वाणिज्य दूतावास से संपर्क करने की कोशिश कर रहे थे। अंतत: सफलता मिली और तकरीबन साढ़े 11 महीने बाद एक फरवरी 2011 को दूतावास के अधिकारी मिलने के लिए पहुंचे। लेकिन सांत्वना के दो बोल बोलने के बजाय उन्होंने अपनी समस्याओं और कुछ न कर पाने में सक्षम होने का रोना ही रोया।

इधर, भारत में मीडिया के हलकों में यह खबर फैलने लगी। जहाज पर मौजूद कैडेटों की खबर न मिलने पर उनके चिंतित परिवारीजन लगातार प्रयास कर रहे थे कि किसी तरह कोई खोज खबर मिले। परिवारीजनों ने जंतर-मंतर पर अनशन भी किया।

भारतीय वाणिज्य दूतावास के अधिकार जब बंदर अब्बास स्थित फंसे इन कैडेटों से मिलने पहुंचे तो उन्होंने इन कैडेटों को बताया कि मीडिया के दबाव में उन्हें यहां आना पड़ा है लेकिन वे ज्यादा कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं हैं। यहां भारत में भी इन कैडेटों के परिजनों ने बंदर अब्बास स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास से संपर्क किया। बार-बार फोन करने पर कार्रवाई का ‘आश्वासन’ मिला। लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं हुआ। युवकों में से एक भूपेंद्र सिंह के पिता राजेंद्र सिंह चौधरी और रूंदला बंधुओं के रिश्तेदारों ने भारत में ईरानी दूतावास और विदेश मंत्रालय से भी जानने की कोशिश की लेकिन नतीजा... वही ढाक के तीन पात।

दूतावासों से जल्द कार्रवाई करने के 'सरकारी' जवाब मिलते रहे। विदेश मंत्रालय से बात की तो वे दूतावास से संपर्क करने की बात कह देते दूतावास में संपर्क किया तो विदेश मंत्रालय जाने के लिए कहा गया। एक दूसरे पर टोपी रखने का क्रम अनवरत चलता रहा।

इस संबंध में सभी लापता कैडेटों के परिजनों ने राष्ट्रपति प्रतिभादेवी सिंह पाटिल और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मदद की गुहार लगाई। 26 फरवरी को एक बार फिर से भारतीय वाणिज्य दूतावास के कुछ अधिकारी इन कैडेटों से मिलने भी पहुंचे। इस बार भी उनके पास ज्यादा कुछ कहने और करने के लिए नहीं था। 18 महीनों के दौरान लगातार चली कानूनी कार्रवाई में भारतीय वाणिज्य दूतावास पंगु ही नजर आया।

लेकिन, अवैध प्रवेश का मामला और किसी भी प्रकार की तस्करी में लिप्त न होने के चलते आखिरकार 29 फरवरी की वह सुबह इन लोगों की जिंदगी में नया सवेरा लेकर आई जब उन्हें बताया गया कि वे अब छूटने वाले हैं।

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ये सभी कैडेट घर लौट तो आए हैं लेकिन अभी तक लगभग 22 महीने की उस त्रासदी को भुला नहीं पा रहे हैं। घर लौटने के बाद से अभी तक इन लोगों की जहाज पर नियुक्ति कराने वाले एजेंट और जहाज के मालिकों से कोई संपर्क नहीं हो पाया है।