NDTV एक्सक्लूसिव : जानिए भारत के अपने स्पेस शटल के बारे में खास बातें

NDTV एक्सक्लूसिव : जानिए भारत के अपने स्पेस शटल के बारे में खास बातें

तिरूवनंतपुरम:

एनडीटीवी के साइंस एडिटर पल्लव बागला को भविष्य के रॉकेट निर्माण की प्रक्रिया को करीब से जानने का मौका मिला। 95 करोड़ की लागत से बनने वाले इस 6.5 मीटर लंबे मॉडल का वज़न 1.75 टन है। इस रॉकेट को तकनीक के स्तर पर एक उदाहरण की तरह प्रस्तुत करने के लिए बनाया गया है जिसमें पांच साल लग गए। आरएलवी (re-usable launch vehicle) प्रोजेक्ट के डायरेक्टर श्याम मोहन बताते हैं कि उनकी 600 वैज्ञानिकों की टीम ने सिस्टम एकदम सही तरीके से काम करें यह सुनिश्चित करने में अनगिनत घंटे लगा दिए।
 


इसरो में तीन दशक से काम करने वाले 53 साल के मोहन बताते हैं कि भारत के लिए आरएलवी डिज़ाइन करने के लिए उन्हें 15 साल पहले चुना गया था। वह कहते हैं 'आरएलवी को बनाना किसी सपने से कम नहीं क्योंकि यह बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण काम है।' अमेरिका ने अपने स्पेस शटल को 135 बार उड़ाने के बाद लागत सीमाओं के चलते उन्हें 2011 में छुट्टी दे दी, वहीं रूसी ने सिर्फ एक बार 1989 में इसे आसमान में भेजा था। अब भारत उस क्षेत्र में घुसने की कोशिश कर रहा है जहां बाकी की स्पेस एजेंसियों के प्रयास विफल हो गए हैं।
 

विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर, तिरूवनंतपुरम के निदेशक के सिवान कहते हैं 'हनुमान की कूद लगाने से पहले के यह कुछ छोटे छोटे कदम है।' इसरो अपने पहले प्रयोग के तहत इस रॉकेट को 9 टन के तगड़े रॉकेट इंजिन के ऊपर रखकर लॉन्च करेगा। लॉन्च के बाद स्पेस शटल को 70 किलोमीटर की ऊंचाई पर ले जाकर उसे मुक्त आकाश में छोड़ देगा जहां वह आवाज़ की रफ्तार से पांच गुना तेज़ी से यात्रा करेगा। इसके बाद वह श्रीहरिकोटा से पांच सौ किलोमीटर की दूरी पर बंगाल की खाड़ी के पानी में उतरेगा। अपनी पहली फ्लाइट में आरएलवी को बचाया नहीं जा पाएगा। भारत ऐसे तीन प्रयोग करेगा जिसके बाद वह 40 मीटर का लंबा स्पेस शटल तैयार करेगा जो सचमुच इसरो के लिए किसी हनूमान की कूद से कम नहीं होगा।

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