यह ख़बर 10 अक्टूबर, 2011 को प्रकाशित हुई थी

जगजीत सिंह : गजल ने खोया अपना 'सम्राट'

खास बातें

  • गजल सम्राट जगजीत सिंह ने 70 के दशक में संगीत की इस फीकी पड़ती विधा में नई जान फूंकी और अपनी अलग पहचान बनाई।
Mumbai:

झुकी-झुकी सी नजर, कागज की कश्ती और न जाने अपने कितने गीतों से श्रोताओं के दिल में बसने वाले गजल सम्राट जगजीत सिंह ने 70 के दशक में संगीत की इस फीकी पड़ती विधा में नई जान फूंकी और बॉलीवुड में अपनी अलग पहचान बनाई। उनकी आवाज का दर्द तन्हा दिलों का दर्द मिटाता। ये जिंदगी किसी और की, मेरे नाम का कोई और है, होठों से छू लो तुम, तुम को देखा, हजार बार रुके हम, हजार बार चले, जैसी हिट गजलें गाकर उन्होंने 70 के दशक में अपनी पहचान बनाई। यह वह दौर था, जब गजल के आसमां पर नूरजहां, मल्लिका पुखराज, बेगम अख्तर, तलत महमूद और मेंहदी हसन जैसे स्थापित नाम थे। उन कालातीत गजलों के पीछे की आवाज की प्रेरणा केएल सहगल, तलत महमूद, अब्दुल करीम खान, बड़े गुलाम अली खान और आमिर खान थे। अपने समय के सबसे सफल और चहेते गायकों में से एक जगजीत ने अपने पांच दशक के करियर में ढेरों गीत और गजलें गाईं। उनके 80 एल्बम भी आए। अपने प्रशंसकों में गजल सम्राट के तौर पर मशहूर जगजीत का जन्म राजस्थान के श्रीगंगानगर में 8 फरवरी, 1941 को सरकारी कर्मचारी अमर सिंह धीमन और बचन कौर के यहां हुआ। उनकी चार बहनें और दो भाई थे। परिवार में उनका नाम जीत था। उनके जन्म के समय उनका नाम जगमोहन रखा गया था, लेकिन उनके सिख पिता ने अपने गुरु की सलाह पर इसे बदलकर जगजीत कर दिया। उनके पिता ने अपने पुत्र की प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना। उन्होंने नेत्रहीन संगीत गुरू पंडित छगनलाल शर्मा के पास जगजीत को संगीत सीखने भेजा। बाद में सैनिया घराने के उस्ताद जमाल खान से उन्होंने छह साल संगीत की तालीम ली और खयाल, ठुमरी और ध्रुपद का ज्ञान पाया। जगजीत का मानना था कि संगीत प्रेरणा की वस्तु है, प्रतियोगिता की नहीं। उनका कहना था, जैसे ही आप संगीत में प्रतियोगिता लाते हैं, उसकी आत्मा मर जाती है। उन्होंने कहा था, संगीत एक व्यापक विषय है। संगीत में गणित और व्याकरण होता है। जब तक एक व्यक्ति सबकुछ जान नहीं लेता, वह अच्छा गायक नहीं बन सकता। गजल गाने से पहले व्यक्ति को 15 सालों तक संगीत सीखना चाहिए। उनके सबसे यादगार नगमों में तुम इतना जो मुस्करा रही हो, अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं, पहले हर चीज थी अपनी, मगर अब लगता है अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं थे। उनका आखिरी कंसर्ट 23 सितंबर को माटुंगा के षणमुखानंद हॉल में गुलाम अली के साथ होना था, लेकिन उसी दिन वह बीमार पड़ गए। कुछ दिन पहले ही दोनों कलाकारों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया था। उन्होंने गुरुद्वारों में भजन गाकर अपने संगीत के सफर की शुरुआत की। उनके गले के जादू ने जालंधर के डीएवी कॉलेज में उनकी फीस माफ करा दी। आकाशवाणी, जालंधर में उन्हें व्यावसायिक तौर पर गाने का मौका मिला, जहां उन्हें कम पैसों पर साल में छह सीधे प्रसारण का प्रस्ताव दिया गया। लेकिन, सफलता सपने की तरह थी। पार्श्व गायिकी में अपने सपने को तलाशने वह 1961 में मायानगरी मुंबई पहुंचे, लेकिन असफल प्रयासों ने उन्हें वापस जालंधर पहुंचा दिया। गजल सम्राट 1965 में फिर सपनों की नगरी में पहुंचे और इस बार एचएमवी ने उनकी दो गजलों को रिकॉर्ड किया। इसी वक्त उन्होंने अपने केश कटवाने और पगड़ी को हटाने का फैसला किया। हालांकि, जगजीत सिंह का पार्श्व गायिकी में संघर्ष जारी रहा और पैसे कमाने के लिए वह विज्ञापन फिल्मों और वृत्तचित्रों के लिए छोटे मधुर गीत तैयार करते रहे। ऐसी ही एक रिकॉर्डिंग के वक्त उनकी मुलाकात चित्रा से हुई और 1970 में दोनों परिणय सूत्र में बंध गए, जोकि उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वायंट साबित हुआ। बॉलीवुड में गजल गायिकी का फीका पड़ना जगजीत के सुनहरे करियर का कारण बना। 1975 में एचएमवी ने जगजीत को उनके पहले एल्बम द अनफॉरगेटेबल्स का प्रस्ताव दिया, जिसमें जगजीत-चित्रा की गजलें थीं। पारंपरिक सारंगी और तबले के साथ आधुनिक वाद्य यंत्रों को गजल गायिकी में लाने का श्रेय भी जगजीत को जाता है। उनका अगला एल्बम पंजाबी में बिरहा दा सुल्तान था। यह शिव कुकार बतालवी की लोकप्रिय कविताओं पर गाया गया था। इसके बाद चित्रा और जगजीत की जोड़ी का पहला एल्बम कम एलाइव आया। इसके बाद दो और एल्बम आए और दोनों के कंसर्ट होने शुरू हो गए। फिल्मों में भी उन्हें सफलता मिलनी शुरू हुई। 1980 में उन्होंने साथ साथ फिल्म में जावेद अख्तर की गजलों और नज्मों को अपनी आवाज दी। उसी साल महेश भट्ट की फिल्म अर्थ से जगजीत और चित्रा की प्रसिद्धि आसमान छूने लगी। फिल्म ने तुम इतना जो मुस्करा रही हो जैसे सदाबहार गीत दिए।


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