यह ख़बर 04 जून, 2013 को प्रकाशित हुई थी

क्यों नक्सलवाद के हल को लेकर गंभीर नहीं सरकारें?

खास बातें

  • इस बार भी माओवादियों को ‘कुचलने’ के अलावा और और ‘बाहर’ से सेना की मदद लेने की बात की जा रही है, लेकिन देश के बीचों बीच चल रही इस जंग में कई कहानियां हर रोज लिखी जा रही हैं जिनकी न तो रिपोर्टिंग हो रही है और न वे हमें इतना आंदोलित करती हैं...
नई दिल्ली:

ताजा माओवादी हमले के बाद एक बार फिर से देश के भीतर चिंतन और विचारों की लहर उफान पर है। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा कहे जाने वाले नक्सलवाद ने एक बार फिर सिर उठाया है। हर बार की तरह इस बार भी माओवादियों को ‘कुचलने’ के अलावा और अधिक सुरक्षा बलों की तैनाती और ‘बाहर’ से सेना की मदद लेने की बात की जा रही है, लेकिन भारत के बीचों बीच चल रही इस जंग में कई अनकही और अनसुलझी कहानियां हर रोज लिखी जा रही हैं जिनकी न तो रिपोर्टिंग हो रही है और न वे हमें इतना आंदोलित करती हैं जितना हम सब अभी दिख रहे हैं।
 
छत्तीसगढ़ के बस्तर का करीब एक लाख वर्ग किलोमीटर का इलाका पिछले पांच सालों से इस घमासान की चपेट में है। ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू होने के साथ ही नवंबर 2009 में मैंने माओवादियों के कैंप में जाकर उनके एक बड़े नेता कडयरी सत्यन्ना रेड्डी उर्फ कोसा से बात की थी।

कोसा ने इंटरव्यू खत्म होने के बाद कहा कि भारत सरकार ने इस लड़ाई में एक बड़ी गलती की है। जब मैंने इस गलती के बारे में पूछा तो कोसा का कहना था कि हमारे खिलाफ ऑपरेशन शुरू करने से पहले उसका जितना विवरण सरकार ने दे दिया है वह हमारी प्रतिरक्षा और छापामार हमलों की रूपरेखा बनाने के लिए काफी है।

कोसा का इशारा साफ था - जब सरकार माओवाद विरोधी अभियान के बारे में बयानबाजी कर रही थी तो नक्सली उस इलाके में जगह-जगह बारूदी सुरंगें लगाने के साथ-साथ अपने काडर को तैयार कर रहे थे और मुखबिरों का नेटवर्क फैला रहे थे।

यही भूल अब तक सरकार का पीछा कर रही है। उसी दौरे में दिए गए इंटरव्यू में कोसा ने कहा था कि आप देखना अगले छह महीनों में हम क्या करते हैं।

सुरक्षा बलों की भारी मौजूदगी की वजह से हमने सोचा कि कैमरे पर ये बयान एक शेखी बघारने से अधिक कुछ नहीं होगा, लेकिन अप्रैल 2010 में 76 जवानों को नक्सलियों ने घेर कर मारा और फिर तीन महीनों के भीतर 100 से अधिक जवानों की हत्या की।

सरकार पिछले पांच साल से वहां सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ा रही है और आज बस्तर में 15 हजार से अधिक अर्द्धसैनिक बल हैं,
लेकिन क्या सुरक्षा बलों की मौजूदगी ने बस्तर में एक आम आदिवासी के लिए हालात बदले हैं? क्या इससे माओवादियों के हमले कम हुए हैं? क्या सरकार की विकास की नीतियां बस्तर में जोर पकड़ पाई हैं।

सभी सवालों का जवाब न नहीं तो कम से कम कोई विश्वास भरा हां भी नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि बस्तर में पुलिस तंत्र की ईमानदारी और नेताओं की विश्वसनीयता बेहद संदिग्ध है।

पुलिस ने आम आदिवासियों के खिलाफ ज्यादतियों का जो सिलसिला जारी रखा है और जो फर्जी मुकदमे किए हैं वे नक्सलियों के प्रचार तंत्र को ऑक्सीजन देने के लिए काफी है।
 
दिन के उजाले में माओवादियों को भला बुरा कहने वाले नेता चुनाव के वक्त अपने फायदे के लिए उन्हीं नक्सलियों से हाथ मिलाते हैं। जब माओवादी किसी कलेक्टर या दूसरे अधिकारी को अगवा कर लेते हैं तो सरकार माओवादियों के साथ क्या समझौता करती है किसी को पता नहीं चलता। सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर के इलाके के आदिवासी भले ही हजार मुश्किलों से दोचार हो रहे हों, लेकिन इन्हीं इलाकों में आपको टिंबर माफिया सबसे महंगे एनड्राइड फोन के साथ दिख जाएंगे।

इन्हीं इलाकों में आपको सबसे चमकदार एसयूवी के मालिक भी मिलेंगे जो बताएंगे कि नक्सलवाद से निबटने में चल रही योजनाओं का कितना ‘फायदा’ है। कुछ साल पहले बस्तर से कोरबा में तबादला पाए हुए एक वन अधिकारी ने मुझे कहा था कि बस्तर में इतना पैसा है कि जो भी वहां जाता है वह कभी वापस आना नहीं चाहता। 2010 में दंतेवाड़ा के एसीपी अमरेश मिश्रा ने बातचीत में कहा कि पुलिस के अलावा यहां हर कोई मौज कर रहा है।

सवाल यह है कि नक्सलवाद को क्या कागजों में लड़ा जाएगा या सिर्फ जवानों को मौत के मुंह में धकेल कर लड़ा जाएगा। सरकार ने अपने जवानों से कहा है कि आदिवासी इलाकों में सिर्फ गोली न चलाएं बल्कि वहां जाकर लोगों का दिलों-दिमाग भी जीतें। अगर लोगों का दिल जीतना भी जवानों का काम है तो नेता क्या करेंगे? क्या सरकार चाहती है कि नेताओं के हिस्से का काम भी जवान ही करें?

पहली बार छत्तीसगढ़ में नेताओं पर हमला हुआ है, लेकिन सारी बहस नक्सलवाद पर सीमित हो गई है। क्या ये सवाल नहीं उठना चाहिए कि एक राजनीतिक पार्टी के नुमाइंदों को सरकार नेशनल हाइवे पर भी सुरक्षा क्यों नहीं दे पाई?

माओवाद पर होने वाली बहस सरकार के लिए फायदेमंद है क्योंकि वह मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाती है। माओवाद के खिलाफ तो सरकार पिछले कई साल से लड़ रही है, लेकिन अगर माओवादी दूर दराज के इलाकों से बाहर आकर नेशनल हाइवे पर ही इतना बड़ा हमला करने लगे, जहां 10 किलोमीटर के दायरे में दो थाने हों, तो क्या ये नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई की नीयत पर सवाल नहीं उठाता?

एक सवाल नक्सलवाद की कवरेज को लेकर भी है। खासतौर से टीवी पर होने वाली कवरेज को लेकर, किसी भी नक्सली हमले के बाद तमाम चैनलों पर एक्सपर्ट इक्ट्ठा हो जाते हैं और ये एक बड़ी मीडिया इवेंट बनती है, लेकिन इन्हीं आदिवासी इलाकों में जो लोग शांतिपूर्ण तरीकों से सरकार की नीतियों के खिलाफ लड़ रहे हैं उन्हें मीडिया कितना कवर करता है।

उड़ीसा के जगतसिंहपुर में कोरियाई कंपनी पोस्को के खिलाफ खड़े आदिवासियों की कहानी क्या टीवी के लिए महत्वपूर्ण नहीं है? नक्सली खून खराबा कर रहे हैं, लेकिन पिछली 17 मई को बीजापुर के एडसमेट्टा में सीआरपीएफ के कोबरा जवानों के हाथ मारे गए आठ आदिवासियों की कहानी ने टीवी स्क्रीन को क्यों नहीं झकझोरा?

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

दक्षिण बस्तर माओवादियों का गढ़ है लेकिन आदिवासियों के अधिकारों की बात करने वाले माओवादी उत्तरी छत्तीसगढ़ में अपना ‘आंदोलन’ क्यों नहीं फैला रहे जहां खनिजों की लूट सबसे अधिक हो रही है? ये सवाल किसी अखबार या टीवी चैनल में क्यों नहीं उठते या राष्ट्रीय स्तर का कोई नेता या एक्सपर्ट इस पर क्यों नहीं बोलता?