NDTV Exclusive: भूकंप के दौरान एवरेस्ट बेस कैंप पर जिंदगी के लिए जंग लड़ रहे थे लोग

एवरेस्ट बेस कैंप से आमिर रफ़ीक कैमरापर्सन राकेश सोलंकी के साथ:

नेपाल की राजधानी काठमांडू में रोज़ की तरह चहल पहल है। आते-जाते सैलानियों का सिलसिल। उधर, एवरेस्ट बेस कैंप पर दुनियाभर के पर्वतारोहियों का जमावड़ा। सब दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर को फतह करने की तैयारी में थे। मेजर आरएस जामवाल के नेतृत्व में भारतीय सेना के अभियान दल के साथ एनडीटीवी की टीम अभ्यास के लिए खुम्भू ग्लेशियर की ओर निकली, तभी अचानक कलेजा चीरती आवाज़ के साथ धरती जैसे कांप उठी। चारों ओर हड़कंप मच गया। एक भयानक जलजला पूरे नेपाल को हिला गया। हिमालय की चोटियां भी थर्रा उठीं।

एवरेस्ट पर मौजूद एनडीटीवी के आमिर रफ़ीक ने बताया, पहले अर्थक्वेक हुआ। बेस कैंप के अराउंड जितने भी माउंटेन्स हैं, ग्लेशियर हैं... वे ग्लेशियर टूट कर एक साथ बेस कैंप के ऊपर बरस पड़े तो जितने भी टैंट्स थे, सब ध्वस्त हो गए। चारों तरफ लाशें और खून.... सिर्फ वही कपड़े बचे, जो हमने पहने थे। हमारे पास कुछ नहीं बचा।

जिंदगी से जंग : यहां देखिए पूरा वीडियो

एवरेस्ट बेस कैंप के आसपास शिखरों से बर्फ़ का तूफ़ान नीचे उतरने लगा। पुमोरी पीक से हिमखंड टूटकर नीचे की ओर फिसलने लगे।

एनडीटीवी के आमिर रफीक ने बताया कि अभी हम एवरेस्ट बेस कैंप पर भारतीय सेना के 30 लोगों के साथ थे। हम बेस कैंप-1 तक ही गए थे। जब हम वापस आ रहे थे, इतने में खुम्भू ग्लेशियर, जो सबसे डेंजरस वर्ल्ड में माने जाते हैं, वे हिलने लगे। हमारे लेफ्ट-राइट दोनों साइड्स से हिमस्खलन होने लगा और पूरी आर्मी की टीम जो मेजर जामवाल की लीडरशिप में थी, कहा कि आप रोप पकड़कर रखो और नीचे रहो। हम दो मिनट तक रहे और कुछ देर इंतजार करते रहे.... अभी हम मरने वाले हैं... तभी किसी ने कहा, भागो-भागो....

खुम्भू ग्लेशियर की ढलान पर बर्फ़ की सफ़ेद चादर देखते ही देखते कई जगह से फटने लगी। पैरों के नीचे ठोस बर्फ़ धंसने लगी। कोई भी हिम दरार पर्वतारोहियों को निगल सकती थी। रास्ते में बिछी इस सफ़ेद मौत के बीच से निकलने के लिए तेज़ी और सब्र दोनों की ज़रूरत थी। तभी ऊपर से बर्फ़ का तूफ़ान गुज़रा....

आमिर ने बताया, जब हम नीचे भाग रहे थे तो नीचे भागने के साथ बर्फ का तूफान आया, जिसकी वजह से हमें नीचे बैठना पड़ा और हमने अपना मुंह ढका। जब हमने पांच मिनट के बाद अपनी आंखें खोलीं तो हमारे ऊपर पांच से दस इंच तक बर्फ़ जमा थी। अब हम नीचे भाग-भाग के आए, जब हम बेस कैंप पर पहुंचे, वहां पर हमारे राकेश सोलंकी सर थे, जिन्होंने बेस कैंप को कवर किया। बेस कैंप में जो ऊपर से हिमस्खलन हुआ था, वह उतरकर बेस कैंप पर आ गया...

आमिर ने कहा, हमें दो मिनट के लिए लगा जैसे हम आंख बंद करके मौत का इंतज़ार कर रहे थे। खुम्भू ग्लेशियर पर जब आप खड़े हों और आपके चारों ओर से बर्फ की चट्टानें गिर रही हों और आप जिस ग्लेशियर पर खड़े हों, वह भी हिल रहा है तो आप सोच सकते हैं हमने मौत को कितने क़रीब से देखा है।

भारतीय सेना में मेजर जामवाल ने बताया, जब हम नीचे पहुंचे तो हमने देखा सब सफ़ा है। कुछ नहीं बचा है। हमारा ख़ुद का कुछ नहीं बचा था। हमारी बगल में एचआरए है, वहां पर कैज़ुअल्टीज़ लगातार आनी शुरू हो गई थीं। एवरेस्ट बेस कैंप पर चारों ओर चीख पुकार मची थी।

राकेश सोलंकी ने बताया, हम सात से आठ लोग नीचे थे। तभी क़रीब 12:40 पर अर्थक्वेक आ गया। जैसे हम लोग बाहर टेंट से निकले और देख ही रहे थे, मैंने कैमरा निकाल कर शूटिंग करना शुरू ही किया था कि उतने में हमारे सामने बहुत नज़दीक पूरा बर्फ़ का एक पहाड़ टूट चुका था और वह हमारी तरफ़ आने लगा। हम उसी वक़्त कैमरा वहीं छोड़कर अपनी जान बचाने के लिए दौड़े।

मुझे एक छोटी-सी चट्टान मिल गई। उसके पीछे मैं बैठ गया। वहां पर मैं और एक शेरपा बचे। हमारे ऊपर पूरा टैंट आकर गिर गया, इसी वजह से हमारा शेल्टर हो गया और हम बच गए। वह सब जैसे ही खत्म हुआ तो तुरंत हमने कैमरा निकाला। शूट करना स्टार्ट किया था तो देखा सब तबाह हो चुका था और बेस कैंप में बहुत ही बुरे हाल थे। बहुत ज्यादा लोग घायल हुए थे, सिर की चोटों से क़रीब 22 लोग मारे जा चुके थे।

मेजर जामवाल ने बताया कि किसी ने ये एक्सपेक्ट नहीं किया था कि बेस कैंप के अंदर वह भी पुमोरी से ऐसा हिमस्खलन होगा, जो बेस कैंप को उड़ा के ले जाएगा।
 
इसके बाद माउंट एवरेस्ट बेस कैंप बिखरा पड़ा था। पर्वतारोहियों के तंबू बर्फ़ के तूफ़ान में उजड़ चुके थे। खाने-पीने से लेकर पर्वतारोहण तक का सामान सैकड़ों मीटर दूर कहीं बर्फ़ में दब चुका था। फिर घायलों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। भारतीय सेना का अभियान दल तुरंत राहत और बचाव में जुट गया।

मेजर जामवाल ने बताया, हमने अपने आपको दो टीमों में बांटा। मैंने एक डॉक्टर की टीम बनाई। उसके साथ आठ बंदे बांटे... और बाकी टीम को मैंने अपना सामान ढूंढने के लिए लगाया, जो कि बहुत जरूरी था, क्योंकि हमारा सब कुछ उड़ चुका था।

दरअसल, तूफ़ान में बिखरी चीज़ें जुटाना ज़रूरी था। ये सामान वहां मौजूद जिदंगियों को बचाए रखने की डोर था। घायलों का इलाज भी तभी हो पाता। सेना की टीम ने एक-एक कर सब जुटाया। नए सिरे से तंबू लगाए गए। कुछ ही देर में भारतीय सेना का फील्ड हॉस्पिटल शुरू हो गया था।

मेजर जामवाल के मुताबिक, दवाइयां हमारे पास बहुत थी। एचआरए से भी ज़्यादा दवाइयां हमारे पास थी। हमारे पास बहुत काबिल डॉक्टर थे और उन्होंने बहुत हेल्प की। पूरी रात हमारा डॉक्टर घायलों साथ रहा। वह सिर की चोटों का डिपार्टमेंट संभाल रहे थे, जो एक मेन डिपार्टमेंट था, क्योंकि अधिकतर पर्वतारोहियों को सिर पर चोट लगी थी। बर्फ़ का तूफ़ान अपने साथ चट्टानें और पत्थर तोड़कर जो लाया था।

इसके बाद हेलीकॉप्टरों के जरिये जिन पर्वतारोहियों को गंभीर चोटें आईं, उन्हें तुरंत राजधानी काठमांडू या सबसे क़रीब लुकला के अस्पताल भेजने का काम शुरू हुआ।

हिमस्खलन के बाद बेस कैंप पर मौजूद कई शेरपा अपनी टीमों को छोड़कर वापस निकल गए। इसकी दो वजह रहीं। एक तो ये कि हिमस्खलन में मारे गए 22 पर्वतारोहियों में से 16 शेरपा थे और दूसरा नेपाल में आई तबाही में कइयों के घर आफ़त टूट पड़ी थी।

आमिर ने बताया कि उसके बाद जब हम नीचे आए तो नीचे उतरते ही जितने भी शेरपा थे, सारे के सारे शेरपा बेस कैंप छोड़कर निकलने लगे, क्योंकि पिछले साल हिमस्खलन में 16 शेरपा की मौतें हुईं थीं।  इस साल भी वही हुआ। 19 में से 16 शेरपा थे। सारे के सारे शेरपा जब भागने लगे तो सारे पर्वतारोही ही बचे रह गए। पर्वतारोहियों को उतनी जानकारी नहीं होती।

इस बीच कई विदेशी पर्वतारोहियों की टीमें अब भी बेस कैंप पर नहीं लौटी थीं, जो पर्वतारोही एक दो दिन पहले ही एवरेस्ट की ओर चढ़ाई कर चुके थे, सबको उनका इंतज़ार था। एवरेस्ट का बेस कैंप, कैंप वन कैंप टू से कट चुका था।

सबको वापस लौटने की जल्दी थी, नहीं थी तो सिर्फ़ भारतीय सेना के अभियान दल को। आमिर ने बताया कि भारतीय सेना ने यहां ग्रेट रोल निभाया। वे भी निकल सकते थे, लेकिन नहीं निकले, क्योंकि वहां पर जो लोग फंसे हुए थे, पहले उन्हें ढूंढकर कर राहत पहुंचना जरूरी था, क्योंकि किसी के पास कोई खाना-पीना नहीं बचा था। सिर्फ इंडियन आर्मी के पास जो खाना बचा था वह बांटा गया। बेस कैंप पर कुछ विदेशी पर्वतारोहियों के साथ भारतीय सेना मोर्चा संभाले रही। एवरेस्ट बेस कैंप पर ज़िंदगी की जंग जारी थी।

एवरेस्ट बेस कैंप पर उतरे बर्फ़ के तूफ़ान में जो बच गए वो भगवान का शुक्रिया अदा कर रहे थे। इस बीच एक के बाद एक आ रहे छोटे भूकंप रह रहकर सबको डरा रहे थे। भूकंप के साथ ही सबकी निगाह ऊंची चोटियों पर चली जाती ये देखने के लिए कि कहीं फिर मौत बर्फ़ के तूफ़ान की शक्ल में नीचे तो नहीं उतर रही।

मेजर जामवाल ने बताया, हमने संतरी ड्यूटी पर लगाए हुए हैं। अगर कोई ऐसी आवाज़ आती है, तीनों तरफ़, आप पोमोरी की बात कर सकते हैं, लोला की बात कर सकते हैं या नुब्से की, जिस तरफ़ से भी एवलांश आएगा, ये लड़के हमें सावधान करेंगे।

पहला दिन जैसे-तैसे गुज़रा। अगली सुबह बचे हुए लोगों को निकालने का काम फिर शुरू हुआ। इस बीच दोपहर में एक और बड़ा भूकंप सबको दहला गया। धरती के बाद अब आसमान की बारी थी। बेस कैंप को बादलों ने घेर लिया और बर्फ़बारी शुरू हो गई।

आमिर ने बताया कि लगातार बर्फबारी हो रही था। हर दिन और रात को ट्रेमर्स आ रहे थे। भारतीय सेना तीन संतरियों को लगाकर रखती थी, जो रात भर कैंप के आसपास रहते थे। ज्यों ही एवलांश की आवाज़ आ रही होती तो वे हमें चिल्ला के बोलते थे, बाहर निकलो... तो हम शेल्टर ढूंढते थे। पत्थर के सामने झुक जाते थे।

धीरे-धीरे बेस कैंप पर बची टीमों ने अपना अभियान समेटना शुरू किया, लेकिन भारतीय सेना का अभियान दल बेस कैंप पर राहत और बचाव के काम में अब भी जुटा था।

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इस बीच बेस कैंप से हमारे लौटने का वक़्त भी आ गया। भरे मन के साथ हमने वहां मौजूद साथियों से विदा ली। 25 अप्रैल, 2015 को एवरेस्ट बेस कैंप की वो स्याह याद हमेशा दिमाग़ में ताज़ा रहेगी, लेकिन हम लौटेंगे एक नए हौंसले के साथ, एक नया मुकाम, एक नई ऊंचाई हासिल करने के लिए...