Blogs | डॉ विजय अग्रवाल |सोमवार दिसम्बर 10, 2018 06:12 PM IST अब, जबकि वर्ष 2018 अपने अंत के करीब है, मन में मौजूद एक विचित्र किस्म के खालीपन की चुभन का एहसास निरंतर तीखा होता जा रहा है. दिमाग इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने की जद्दोजहद में कुछ ज्यादा ही बेचैन है कि क्या सचमुच में मानव जाति की सामूहिक स्मृति इतनी अधिक कमजोर है कि वह डेढ़-दो सौ साल पहले की ऐसी बातों को अपनी दिमागी स्लेट से ऐसे मिटा दे, मानो कि उसका अस्तित्व कभी रहा ही न हो. बावजूद इसके कि वह घटना, वह व्यक्ति ऐसा क्रांतिकारी हो कि उसके बाद अभी तक उसका कोई भी सानी न हो.