'Kunwar narayan'

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  • Blogs | धर्मेंद्र सिंह |बुधवार नवम्बर 15, 2017 09:52 PM IST
    कुंवर नारायण को यह पता था- 'घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएंगे/ समय होगा,हम अचानक बीत जाएंगे/ अनर्गल जिंदगी ढोते किसी दिन हम/ एक आशय तक पहुंच सहसा बहुत थक जाएंगे..
  • Blogs | प्रियदर्शन |बुधवार नवम्बर 15, 2017 03:59 PM IST
    कई बार असावधानी से पढ़ते हुए कुंवर नारायण किसी को बहुत मामूली कवि लग सकते हैं- ऐसे ठंडे कवि जो काव्योचित ऊष्मा पैदा नहीं करते. उनमें सूक्तियां चली आती हैं, व्यंग्य चला आता है, बहुधा सामान्य ढंग से कही गई बातें चली आती हैं. मगर ध्यान से देखें तो यही मामूलीपन कुंवर नारायण को बड़ा बनाता है. उनको पढ़ते हुए अचानक हम पाते हैं कि यह सिर्फ कविता नहीं है, एक पूरा सभ्यता विमर्श है जो अपने निष्कर्षों को लेकर बेहद चौकन्ना भी है. यह अनायास नहीं है कि मिथकों और इतिहास को अपनी कविता का रसायन बनाते हुए भी कुंवर नारायण उनके भव्य अर्थों के प्रलोभन में नहीं फंसते, उन्हें बिल्कुल समकालीन और आधुनिक मूल्यों की कसौटी पर कसते हैं. ऐसा भी नहीं कि वे किसी 'पॉलिटिकल करेक्टनेस' को निभाने की कोशिश करते हों, वे बस उन्हें एक ज़रूरी और छूटा हुआ अर्थ देते हैं जिससे कविता अचानक प्रासंगिक हो उठती है. 
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