Blogs | प्रियदर्शन |बुधवार फ़रवरी 7, 2018 12:04 AM IST दास्तानगोई का फ़न कभी महफ़िलों-मजलिसों की जान हुआ करता था. अब न मह़फ़िलें सजती हैं, न मजलिसें लगती हैं, न वे मोहल्ले-टोले- ठिकाने बचे हैं जहां गप हो, क़िस्से सुनाए-दुहराए जाएं और अपने-अपने मिज़ाज के हिसाब से बदले जाएं. ऐसी ही महफ़िलों-मजलिसों में दास्तानगोई बाक़ायदा एक विधा की तरह परवान चढ़ी.