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प्राइम टाइम : सेना तय करेगी या सोशल मीडिया?

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राष्ट्र और राष्ट्रवाद का मसला आते ही टीवी की बहसों में जान आ जाती है. एंकरों की भाषा जनरलों से भी ज़्यादा आक्रामक हो जाती है. ऑफिस में बॉस और सड़क पर ट्रैफिक से जूझते हुए घर पहुंचने के बाद आपको भी टीवी पर कुछ तो गरमा-गरम चाहिए. कुछ चाहिए की ये तलब शिक्षा या चिकित्सा जैसे विषयों की चर्चा से कहां पूरी होती है. एक सिर एक बदले पचास सिर का नारा सुनते ही आपमें जान आ जाती होगी. पत्रकारों में भी भय समा गया है, उनसे कोई पूछ नहीं रहा है, फिर भी ट्वीट कर अपने राष्ट्रवाद का प्रदर्शन करने लगते हैं जबकि उन्हीं चैनलों पर दिन भर कुछ ऐसे कार्यक्रम चलते रहते हैं जिनका संबंध राष्ट्र निर्माण से कितना होता है, आप बेहतर जानते होंगे.



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