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प्राइम टाइम : राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर पत्रकारों की पिटाई

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आज कल हर दिन कोई न कोई दिवस यानी डे आ जाता है. एक डे जाता नहीं कि दूसरा डे आ जाता है. हर डे की अपनी प्रतिज्ञा होती है और न भूलने की कसमें होती हैं मगर ये उसी दिन तक के लिए वैलिड होती है. अगले दिन दूसरा डे आता है, पोस्टर बैनर सब बदल जाता है. नए सिरे से प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है कि हम इनके आदर्शों को नहीं भूलेंगे. भूल जाते हैं कि पिछले दिन ऐसी ही एक प्रतिज्ञा ले चुके हैं. सरकारी तंत्र पर बेहद दबाव रहता है कि उस पर भूलने का इल्ज़ाम न लग जाए. आप देखेंगे कि देश भर में कहीं न कहीं किसी न किसी का डे मन रहा होता है. इन दिवसों की तैयारी पर कितना वक्त लगता है, विज्ञापन पर कितना पैसा ख़र्च होता है और मंत्रियों के आने जाने और लोगों के ले जाने और पहुंचाने में कितना संसाधन लगता है, इसका एक अध्ययन होना चाहिए. बात किसी के अनादर की नहीं है लेकिन इस वक्त में बाज़ार भी अपनी तरफ से कई डे ठेले रहता है और सरकार भी तो बहुत विकट स्थिति पैदा हो जाती है. इन दिवसों की अधिकता के बारे में सोचा जाना चाहिए.



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