NDTV Khabar

रवीश कुमार का प्राइम टाइम इंट्रो: क्या बोलने की आजादी सीमित हो गई है?

 Share

2014 के पहले का मीडिया भी गर्त में जा रहा था, जब वह टीआरपी के लिए श्मशान घाट में कैमरे लगा रहा था और स्वर्ग की सीढ़ी खोज रहा था तब उसकी आलोचना हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर हो रही थी. शोबिज़, पेज थ्री, नो वन किल्ड जेसिका, गुरु, पीपली लाइव और रण जैसी फिल्में बन रही थीं. 2014 के बाद मीडिया की दुनिया में बहुत कुछ हुआ मगर उसकी प्रतिक्रिया या झलक को लेकर कोई पीपली लाइव नहीं बनी. 2014 से पहले बॉलीवुड के निर्माता निर्देशन जिन बातों को अलग से नोटिस कर रहे थे, 2014 के बाद वही बातें उनकी ज़िंदगी का हिस्सा बन गईं. 2008 में वेंसेडे जैसी फिल्म आतंकवाद को लेकर बन रही थी मगर 2014 के बाद जब पठानकोट पर हमले के बाद आईएसआई के अफसर जांच दल में शामिल हो गए तब किसी बॉलीवुड के राइटर को नहीं लगा कि एक कहानी लिखते हैं. फिल्म वालों ने अपनी कहानियों से सवाल गायब कर, महान बनाने का प्लाट भर लिया. इसके बाद भी 2001 में बनी नायक फिल्म व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में मीम बनकर चलती रही. लोगों ने अनिल कपूर के सामने नेताओं की तस्वीर लगा दी और कल्पना की कि ऐसा इंटरव्यू होना चाहिए मगर हुआ उल्टा. प्रसून जोशी ने फकीरी का सवाल पूछ कर सवालों के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया और अक्षय कुमार ने आम का सवाल पूछ कर कनाडा की नागरिकता के सवाल से भी पीछा छुड़ा लिया. हुआ है यह कि फिल्म में राजनीति और राजनीति में फिल्म काफी घुलमिल गई है. पहले आटे में नमक के बराबर होती थी लेकिन अब आटा ही डिजिटल का होता है, गेहूं का नहीं.



Advertisement

 
 
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com