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प्राइम टाइम: रोहित डे की किताब में संविधान से ज़ोर आज़माइश के किस्से

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जब भी हम सुप्रीम कोर्ट के किसी फ़ैसले की बात करते हैं, बात करने वाले की ज़ुबान पर जज साहिबान की टिप्पणियां और बड़े-बड़े वकीलों की दलीलें होती हैं. पर कई बार हम उस याचिकाकर्ता को भूल जाते हैं जो होता तो बेहद साधारण है मगर अधिकारों के सवाल को लेकर राज्य, जिसे हम बार-बार सरकार कहते हैं उसे बदल देता है. बदलता ही नहीं, उसे सीमित कर देता है और अपनी ज़िंदगी में घुसते चले आ रहे राज्य को फिर से दरवाज़े के बाहर कर देता है. इनमें से बहुत सी लड़ाइयां आज़ाद भारत में पहली बार लड़ी गईं और बेहद साधारण वकीलों की मदद से, मतलब जिनका कोई ख़ास नाम नहीं था. 1950 में जब भारत का संविधान लागू हुआ तब उस वक़्त राज्य का जो ढांचा मौजूदा था उसके लिए भले ही कुछ नया न बदला हो मगर लोगों के लिए काफ़ी कुछ बदल गया. उन्हें जो अधिकार मिला था उस अधिकार के सहारे और उसे बरक़रार रखने के लिए वे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए.



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