जब हम पत्रकारिता में आए तो बताने वाले बड़ों ने यही कहा की साहित्यिक शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना है, भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना है. उन शब्दों का इस्तेमाल करना है जिसे आम आदमी बोलता है ,आम पाठक समझता है. तब हम ना आम पाठक को जानते थे, ना आम आदमी को, न खुद को. उनके बताए रास्ते पर चलने लगे और इतने सालों के बाद आज यह महसूस हो रहा है कि मेरे ही वाक्य शब्दविहीन होते चले गए हैं. मेरे शब्दों की विविधता खत्म होती चली जा रही है. मीडिया में भी आप यही देखेंगे. इसका असर यह हुआ है कि समाज और संचार से शब्द गायब होते चले गए.संवेदना ,सांत्वना और श्रद्धांजलि की बारीकियां मिटती चली गईं. जब करोड़ों मजदूर अपनी-अपनी दास्तानों को लेकर चलने लगे तो उनकी विविधता, मार्मिकता उनके किरदार चंद शब्दों में लपेटे जाने लगे. इससे अधिक किसी त्रासदी के प्रति क्रूरता नहीं हो सकती कि आपके वाक्य पीपीई किट की तरह सबको पहना दिए गए हैं.