बीएसपी प्रमुख मायावती को उनके गढ़ में ही घेरा जा रहा है. एक तरफ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में कांग्रेस के साथ समझौते को लेकर तस्वीर साफ नहीं हो पा रही है तो अब उत्तर प्रदेश में नए समीकरण बनते दिख रहे हैं. पिछले साल सहारनपुर में हुई हिंसा के आरोपी और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून एनएसए के तहत जेल में बंद भीम सेना के संस्थापक चंद्रशेखर उर्फ रावण की समय से पहले रिहाई इसी की ओर इशारा कर रही है. चंद्रशेखर की रिहाई कल देर रात की गई. यूपी सरकार की ओर से कहा गया कि उनकी मां की अपील के बाद यह फैसला किया गया. लेकिन हकीकत यह भी है कि लंबे समय से उनकी रिहाई की मांग की जा रही थी. इसके लिए कई दलित संगठन सक्रिय थे. वैसे तो इसे बीजेपी का सियासी दांव माना जा रहा है. पर रिहाई के बाद चंद्रशेखर ने कहा कि 2019 में बीजेपी को जड़ से उखाड़ फेंक दिया जाएगा.
चंद्रशेखर की रिहाई के कई सियासी पहलू हैं. सबसे बड़ा तो मायावती से जुड़ा है. पिछले साल सहारनपुर में राजपूत-दलितों के संघर्ष के बाद भीम सेना सुर्खियो में आई. इस इलाके की बड़ी दलित आबादी पारंपरिक रूप से बीएसपी की समर्थक रही है. लेकिन भीम सेना के उदय के साथ ही चंद्रशेखर तेज़ी से बीएसपी के कोर वोट बैंक यानी जाटवों में मशहूर हो गए. अपना जनाधार खिसकता देख मायावती भी सक्रिय हुईं और उन्होंने सहारनपुर का दौरा भी किया था. वहां यह कहने से नहीं चूकीं कि किसी संगठन के बजाए बीएसपी के झंडे तले कार्यक्रम करना चाहिए ताकि उसे रोकने की किसी की हिम्मत न हो. जाहिर है, मायावती को भीम सेना की बढ़ती ताकत का एहसास हुआ. दिल्ली के जंतर मंतर पर भीम सेना की ताकत को देखकर भी कई राजनीतिक दल चौकन्ने हो चुके हैं. मायावती भीम सेना को बीजेपी-आरएसएस की साजिश बताने से भी नहीं चूकीं.
हालांकि शुरुआती दिनों में मायावती पर हमला बोल चुके चंद्रशेखर अब नर्म पड़ चुके हैं. जेल से रिहा होने के बाद वे मायावती को अपनी बुआ बता रहे हैं. लेकिन बड़ा सवाल तो बीजेपी की रणनीति को लेकर है. एससी एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के बाद बीजेपी राज्य के दलित वोट बैंक को अपने साथ लेना चाहती है. पार्टी के बड़े दलित नेताओं से कहा गया है कि वे अलग-अलग जगहों पर दलित बस्तियों में सम्मेलन करें और उन्हें बताएं कि बीजेपी ने दलितों के लिए क्या किया. पार्टी की असली चुनौती पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटव वोट बैंक में सेंध लगाने की है जो बीएसपी का जनाधार है. साथ ही, वो दलित-मुस्लिम गठजोड़ को भी तोड़ना चाहती है जिसके चलते कैराना और नूरपुर में हार हुई. बीजेपी ने आगरा से बेबी रानी मौर्य को राज्यपाल बनाया और सहारनपुर से जाटव नेता कांता कर्दम को राज्यसभा भेजा.
राज्य में बीएसपी, सपा, कांग्रेस और आरएलडी का महागठबंधन अंतिम शक्ल लेने को है. ऐसे में बसपा के जाटव और सपा के यादव वोट बैंक में दरार डालने की कोशिशें भी तेज हो गई हैं. शिवपाल सिंह यादव के सपा से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बना लेने से यादव वोटों में टूट की संभावना बढ़ गई है. वहीं भीम सेना चाहे अभी गैर राजनीतिक संगठन हो, लेकिन चुनावों में अपने उम्मीदवार खड़े कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटव वोटों में सेंध लगा सकती है. जाहिर है यह बीजेपी के लिए फायदे का सौदा है. उधर, कांग्रेस मायावती और चंद्रशेखर दोनों को साथ रखना चाहती है ताकि वोटों का बिखराव न हो. इसके लिए गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को जिम्मेदारी सौंपी गई है. पर मायावती और चंद्रशेखर को एक ही साथ रखना शायद एक बड़ी चुनौती हो. मायावती यह भी कह चुकी हैं कि वे महागठबंधन के पक्ष में हैं लेकिन सम्मानजनक सीटें मिलनीं चाहिए. वे कह चुकी हैं कि वे कांग्रेस के साथ सिर्फ यूपी ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी तालमेल करना चाहती हैं. पर हाल ही में पेट्रोल-डीजल की बढ़ी कीमतों पर उनके एक बयान से यह साफ इशारा मिला कि सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस के साथ उनकी बातचीत शायद सिरे नहीं चढ़ पा रही.
मायावती का यह बयान कांग्रेस के लिए परेशानी पैदा करने वाला है. बीएसपी एक जमाने में बीजेपी-कांग्रेस को सांपनाथ- नागनाथ बताया करती थी. वे अब चाहती हैं कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस कितनी सीटें देती है, उसके बाद ही उत्तर प्रदेश में तालमेल की बात हो. लेकिन राजस्थान में कांग्रेस इकाई बीएसपी से तालमेल की जरा भी इच्छुक नहीं है. वहां उन्हें लगता है कि बीएसपी के बिना भी बीजेपी को हराया जा सकता है क्योंकि उसका असर कुछ सीटों पर ही सीमित है. मध्यप्रदेश में बीएसपी कड़ी सौदेबाजी कर रही है.
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने एनडीटीवी से कहा कि उन्होंने शुरुआत में पचास सीटें मांगी थीं. लेकिन अब बीजेपी को हराने के साझा लक्ष्य के मद्देनजर उनका रुख नर्म हो रहा है. अगले दस दिनों में समझौता हो जाएगा. कांग्रेस नेताओं के मुताबिक मध्यप्रदेश में 20-22 सीटें बीएसपी को दी जा सकती हैं और कांग्रेस वहां हर हाल में बसपा के साथ गठबंधन करना चाहती है.
पिछले विधानसभा चुनाव में बीएसपी को 6.29% वोट मिले थे. बीएसपी ने 230 में से 227 सीटों पर चुनाव लड़ा था और चार सीटें जीती थीं. राज्य में दलितों की आबादी करीब 15 फीसदी है. वहां 35 सीटें आरक्षित हैं जिनमें से बीजेपी ने 28 सीटें जीती थीं.
छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस बीएसपी की मांग से परेशान है. बीएसपी ने शुरू में कहा कि जिन-जिन सीटों पर कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव में हारी, वे सब उसे दे दी जाएं. फिर 90 में से 15 सीटों की मांग की गई. कांग्रेस 8-9 सीटें दे सकती है. पिछले चुनाव में बीएसपी को वहां एक सीट पर जीत मिली थी और 4.2% फीसदी वोट मिले थे.
ये दोनों ही राज्य वे हैं जहां बीजेपी फिलहाल सवर्णों और दलितों के बीच पिस रही है. खासतौर से मध्यप्रदेश के चंबल ग्वालियर संभाग में पहले एससी-एसटी कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ बुलाए गए दो अप्रैल के बंद के दौरान हिंसा हुई तो बाद में इस फैसले को बदलने के केंद्र सरकार के कदम के खिलाफ बुलाए गए सवर्णों के बंद के दौरान तनाव रहा. ऐसे में कांग्रेस को भी दलित वोटों के लिए मायावती के समर्थन की दरकार है. मगर यह तय है कि अगर कांग्रेस और बसपा का समझौता होता है तो यह मायावती की शर्तों पर होगा, कांग्रेस की नहीं. पर सवाल यह भी उठता है कि अगर मायावती की ताकत और जनाधार में सेंध लगाने की कोशिशें होंगी तो क्या कांग्रेस के और नजदीक जाना उनकी मजबूरी नहीं बन जाएगी?
(अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)
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