ये जिंदगी के मेले, दुनिया में कम न होंगे...

दिल्ली के पॉश इलाके के बीचोंबीच कस्बाई हिंदुस्तान का रंग जमा था. सड़क के इस पार और उस पार का फासला इंडिया और हिंदुस्तान को बांट भी रहा था और जोड़ भी रहा था. एक तरफ करोड़ों की कीमत वाले फार्म हाउस जिनकी खुशियां दरवाजों के अंदर तक ही सिमटी थी और दूसरी तरफ वो किशनगढ़ गांव जहां सड़कों पर उत्साह छलक रहा था. मेला जमा था.

ये जिंदगी के मेले, दुनिया में कम न होंगे...

मेलों में हमारी लोक संस्‍कृति की झलक मिलती है

दुर्गा पूजा की नवमी की शाम थी. चाह तो थी कि चितरंजन पार्क यानी दिल्ली के बीचो-बीच बसे 'बंगाल' में जाकर इसकी रौनक देखी जाए.. लेकिन भीड़ के सैलाब के ख्याल ने हिम्मत पस्त कर दी. पर 5 साल की बेटी को त्योहारों और तहजीब से जान-पहचान कराने का मोह भी था. फिर सोचा चितरंजन पार्क न सही, वसंत कुंज ही सही. हम साउथ दिल्ली के वसंत कुंज में घूमने निकल पड़े. सालों बाद, अलग-अलग पंडालों में जाना बीते दिन वापस ले आया था, बचपन वाली खुशी भी लौट आई थी क्योंकि साथ में 5 साल की ईरा थी जिसके लिए ये सब पहली दफा था..और यूं ही पंडालों में घूमते हुए हम एक मेले में जा पहुंचे. दशहरे का मेला.

दिल्ली के पॉश इलाके के बीचो-बीच कस्बाई हिंदुस्तान का रंग जमा था. सड़क के इस पार और उस पार का फासला इंडिया और हिंदुस्तान को बांट भी रहा था और जोड़ भी रहा था. एक तरफ करोड़ों की कीमत वाले फार्म हाउस जिनकी खुशियां दरवाजों के अंदर तक ही सिमटी थी और दूसरी तरफ वो किशनगढ़ गांव जहां सड़कों पर उत्साह छलक रहा था. मेला जमा था. चर्खी नाच रही थी.. बत्तियां जगमगा रही थीं..रामलीला चल रही थी..हमारी रोज की जिंदगी के परिवेश से बिल्कुल अलग. लगा कि प्रेमचंद या रेणु की कोई कहानी की पृष्‍ठ‌भूमि में आ गई हूं.

राम, लक्ष्मण, हनुमान लंका पर आक्रमण की तैयारी कर रहे हैं. लोग कंबल-बिस्तर लिए जमे हैं. कहीं हर रोज की बर्तन-चूल्हे से फुर्सत पाई औरतें रामलीला के बहाने आराम कर रही हैं. ये कुछ लम्हें के लिए ही सही, लेकिन इंटरनेट मुक्त भारत था. वे बच्चे और नौजवान जो फोन से चिपके रहते हैं भले ही उनके पास कोई और आराइश हो या न हो.. वो भी कुछ देर के लिए रम गए थे.

थोड़ी दूर पर डुगडुगी बजाकर खिलौने बेचने वाली अदाकारा संध्या की याद दिला रही थी. फिल्‍म 'दो आंखें, बारह हाथ' का वह गीत 'सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला' क्‍योंकि आजकल दिल्‍ली जैसे शहर में खिलौने के लिए हेम्‍ले जैसे स्‍टोर तो हैं लेकिन खिलौने वाली कहां दिखती हैं. ये ऐसा मेला था जो साहित्य में, लोक संस्कृति और हिंदी फिल्मों में देखा था, जहां मां-बाप बिछड़ जाया करते थे या बिछड़े भाई मिल जाया करते थे. बल्कि मेले की तो हमारी दुनिया में ऐसी जगह थी कि 1948 में 'मेला' नाम से दिलीप कुमार की मशहूर फिल्‍म आई थी और वो मशहूर गीत 'ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे.' 'मेला' नाम की ही दो और मशहूर फिल्में 1971 और 2000 में भी बनीं. 1971 में आई फिल्म में भी दो भाइयों फिरोज खान और संजय खान ने काम किया था. वर्ष 2000 में आई दूसरी फिल्‍म में भी दो भाई आमिर खान और फैसल खान थे. यानी मेला वो जगह थी जिसके इर्द-गिर्द कहानियां बनती थीं, जिंदगी जी जाती थी. कुछ खुशगवार यादें कुछ अहम फैसले, कोई हादसा पेश आता था. कई कहानियों का परिपेक्ष भी रहा है. दशहरे का मेला हो या ईद का मेला, ईदगाह से निकलर चिमटा खरीदने मेले जाता हामिद तो सबको याद है. सीन-दर-सीन ये आंखों के सामने आ रही थी कि जादू घर सामने आया. आर्टिस्ट थे इटावा के जावेद और बाहर माइक पर 40 रुपए के टिकट बेचता शख्स दिलो-जान से शो हाउसफुल कराने की कोशिश में लगा था. पोस्टर पर गोगिया पाशा और पीसी सरकार लुभा रहे थे. एक वो दौर भी था जब हर सड़क पर छोटे-मोटे जादूगर अपना फन बिखेर रहे होते थे.

धनपत राय गोगिया उर्फ गोगिया पाशा और प्रोतुल चंद्र सरकार यानी पीसी सरकार. बाहर तो ब्लेन और डेविड कॉपरफील्ड अब भी जादू के बड़े नाम हैं, पर यहां क्या ये कला बची रहेगी. बचेगी तो किस रूप में. शायद ऐसे मेले इसलिए भी जरूरी हैं कि इन छोटे जादूगरों की रोजी बची रहे. वो कलाकार जो राम, लक्ष्मण, हनुमान बनकर इठला रहे हैं उनकी सज-धज बनी रहे.

कुछ ही दूर पर किशनगढ़ गांव की वो चर्खी रोशनी से नहाई 'लंदन आई' से कम नहीं इठला रही थी. शम्मी कपूर और आशा पारिख ऐसी ही एक चर्खी पर अपना वो मशहूर गीत गाते हैं 'देखिए साहिबों वो कोई और थी.' कहीं झूला हैं, कहीं ट्रेन. नौटंकी शैली में चल रही रामलीला के राम-हनुमान को देखकर 5 साल की ईरा बहुत खुश है. उसने अब तक इन्हें इंटरनेट पर एनिमेटेड रूप में देखा था. आज वो सामने आ गए हैं. मैं ये सोचने लगी कि हर छोटे शहर, हर गांव में अभी भी ऐसे कितने ग्रुप हैं जो अलग-अलग शैली में अदायगी करते हैं.

एक दौर था जब थिएटर के साथ-साथ नौटंकी शैली ने धूम मचाई थी. सब्जपरी गुल्फाम, सुल्ताना डाकू उर्फ गरीबों का प्यारा, स्याहपोश. गुलाब बाई उस दौर की बड़ी कलाकार थी. तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम पर फिल्म बनी. उससे जुड़ी कितनी यादें हैं.. हीरामन, हीराबाई, महुआ घटवारन. शैलेंद्र के वो गीत जो कभी नहीं खोएंगे. रेणु और शैलेंद्र जब भी आपस में मिलते थे नौटंकी की दो लाइनें आपस में गाते और हंस पड़ते.

अरे तेरी बांकी अदा पर मैं खुद हूं फिदा
तेरी चाहत की दिलबर बयां क्या करूं
मेरी ख्वाहिश है कि तू मुझको देखा करे
और दिलों जां से मैं तुझकों देखा करूं..


वीडियो : यूपी पर्यटन विभाग की किताब से गायब हुआ ताजमहल एक मेले ने यादों का मेला जेहन में ला दिया था..और ये सुख था कि बेटी इस ग्लोबलाइज्ड दुनिया में आगे कहीं रहे, कुछ यादें उसके साथ भी रहेंगी..

कई सदियां एक साथ बसती हैं इस हिंदुस्तान में
चाह है कि मॉल के इस दौर में मेले भी बने रहें


नगमा सहर एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर, सीनियर एंकर हैं.

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