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This Article is From Jul 19, 2017

प्राइम टाइम इंट्रो : क्या निजता के लिए नया क़ानून बने?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    July 19, 2017 21:55 IST
    • Published On July 19, 2017 21:55 IST
    • Last Updated On July 19, 2017 21:55 IST
सरकार की फ़ाइलों पर गोपनीय लिखा होता है, इसका मतलब है ये जानकारी सार्वजनिक नहीं होगी. उसी तरह हमारी आपकी ज़िंदगी की कुछ ऐसी सूचनाएं होती हैं जिनके बारे में हम नहीं चाहते कि दुनिया जाने. क्या आप चाहेंगे कि आपके नाम से लिखी गई चिट्ठी कोई और पढ़ ले और यह भी जान ले कि चिट्ठी कहां से आई है. आप चिट्ठी सीने से लगाकर पढ़ते हैं या सारी दुनिया को दिखा कर पढ़ते हैं. ये उदाहरण इसलिए दे रहा हूं ताकि यह बात सबके सामने बराबरी से साफ हो जाए कि सबके सामने चिट्ठी का पढ़ना प्राइवेसी निजता का उल्लंघन है. जैसे अगर मैं आपका पासबुक लेकर देखने लग जाऊं कि कितना पैसा है तो आपको बुरा लगेगा. जिस तरह से सरकार की गोपनीयता उसकी निजता है, प्राइवेसी है, उसी तरह से आपकी निजता यानी प्राइवेसी की भी गोपनियता है. आज कल आधार कई चीज़ों में अनिवार्य किया जाने लगा है. आधार कार्ड में आपकी कई सूचनाएं होती हैं. इन सब जानकारियों को आजकल डेटा कहते हैं. दुनिया के किसी भी देश में ये डेटा सुरक्षित होते हुए भी अंतिम रूप से सुरक्षित नहीं है. एक जगह जमा होने के कारण इनके उड़ा लेने का ख़तरा बना रहता है. उड़ाया भी गया है. सुप्रीम कोर्ट में आधार को बायोमेट्रीक यानी आंखों की पुतली, उंगलियों के निशान से जोड़े जाने के ख़िलाफ़ 20 याचिकाएं दायर हैं.

26 जनवरी 1950 के संविधान लागू होने के 67 साल बाद भारत की सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ इस बात पर विचार कर रही है कि निजता, प्राइवेसी आपका मौलिक अधिकार है या नहीं. 9 जजों की बेंच के सामने यह सवाल आधार के संदर्भ में आया है. कई चीज़ों में आधार के अनिवार्य किये जाने को चुनौती देने वाली याचिका में यह सवाल उठा है कि आधार के बाद किसी का किसी से पर्दा नहीं रहेगा. निजता समाप्त हो जाएगी. यह मौलिक आधार का हनन है. इसीलिए विचार हो रहा है कि क्या निजता मौलिक अधिकार है. अगर आधार की सारी जानकारी, उससे जुड़ा मोबाइल नंबर, बैंक खातों की जानकारी लीक हो जाए तो आप किस कानून के तहत कोर्ट के पास जायेंगे कि आपकी निजता यानी प्राइवेसी के अधिकार का हनन हुआ है. जब हमसे व्यक्तिगत और सार्वजनिक आचरणों में उम्मीद की जाती है कि एक दूसरे की प्राइवेसी का ख़्याल रखें, सम्मान करें तो वह संविधान या कानून के तहत परिभाषित क्यों नहीं है. जो सवाल सोशल कोड का हिस्सा है, वो सवाल संविधान का हिस्सा क्यों नहीं है.

यह सवाल पहले भी था मगर डिजिटल दौर में काफी बड़ा हो गया है. आप इस जगत में लगातार किसी अपराधी की तरह पीछा किये जा सकते हैं. एक तीसरी आंख देख रही होती है. दुनियाभर में रोज़ लाखों लोगों की प्राइवेसी पर हमला होता है. लोगों के बारे में जानकारी जमा करना और उसे चुरा कर बेचना, यह अपने आप में एक धंधा है. तभी तो आपके मोबाइल पर जब सेल या खरीदो बेचो के मेसेज आने लगते हैं तो आप परेशान हो जाते हैं. इसके लिए टेलीफोन रेगुलेटरी ऑफ इंडिया ने एक व्यवस्था की है जिसके तहत आप दर्ज करा सकते हैं कि आपको इस तरह के मेसेज नहीं भेजे जाएं. यह आप इसलिए करते हैं क्योंकि आप नहीं चाहते कि कोई आपकी निजता में दखल दे. कोई जाने कि आपने फ्रीज़ ख़रीदा है, अब उसका कवर भी ख़रीद लीजिए.

इसलिए सुप्रीम कोर्ट में 9 जजों की पीठ 19 और 20 जुलाई को मंथन कर रही है कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं. एमपी शर्मा के केस में आठ जजों की पीठ और1962 में खड़क सिंह के केस में छह जजों की पीठ ने फैसला दिया था कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है. इसके बाद भी कई फैसले आए हैं जिनमें अदालत ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना है. बुधवार को गोपाल सुब्रमण्यम और  श्याम दीवान ने निजता को मौलिक अधिकार के लिए बहस की. बैंक से लेकर मोबाइल नंबर तक आधार से जोड़ा जा रहा है. अनिवार्य किया जा रहा है. हम सब आधार कार्ड बनवा भी रहे हैं लेकिन क्या हम इस सवाल को समझ पा रहे हैं कि अगर आधार का डेटा लीक हो गया, और सबको पता चल गया तो आपके साथ क्या हो सकता है.

गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में लोगों को सोचने की आज़ादी का अधिकार देती है. बग़ैर आज़ादी और निजता के यह संभव नहीं है. विचारों की स्वतंत्रता तभी होगी जब आपकी प्राइवेसी सुरक्षित रहे और आज़ादी हो. प्राइवेसी लिबर्टी का मूल और अनिवार्य तत्व है. किसी दूसरे अधिकार की छाया में रहने वाला नहीं है. लिबर्टी और प्राइवेसी के अधिकार हमें दिए नहीं गए हैं बल्कि ये पहले से मौजूद हैं. ये स्वाभाविक अधिकार हैं.

गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा कि हम ये नहीं कहते कि आर्टिकल 21 के तहत जीने के अधिकार का दायरा बढ़ाया जाए बल्कि जो अधिकार पहले से हैं, उनकी पहचान की जाए, मान्यता दी जाए. पूर्व सॉलिसिटर जनरल सोली सोराबजी ने कहा है कि संविधान में राइट टू प्राइवेसी नहीं लिखा है, इसका मतलब यह नहीं कि ये है ही नहीं. प्राइवेसी हर मानव व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है. जैसे संविधान आर्टिकल 19 के तहत प्रेस की आज़ादी का अधिकार नहीं देता, उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी की तरह देखा जाता है. अदालतों ने भी इस बात को हमेशा माना है.

श्याम दीवान ने अपनी दलील में कहा कि राज्य सभा में 16 मार्च 2016 को अरुण जेटली ने कहा था कि अब ये कहने में कि प्राइवेसी मौलिक अधिकार है या नहीं, काफी देर हो चुकी है. प्राइवेसी शायद एक मौलिक अधिकार है. राइट टू प्राइवेसी, संविधान के आर्टिकल 14, समानता के अधिकार, आर्टिकल 19 अभिव्यक्ति की आज़ादी और आर्टिकिल 21 जीने के अधिकार के सुनहरे त्रिकोण से मिला है. आधार के सबसे बड़े समर्थक नंदन निलेकणी का इंटरव्यू 19 जुलाई 2017 के बिजनेस स्टैंडर्ड में छपा है. इसमें निलेकणी ने जो कहा है वही आशंकाएं आधार और प्राइवेसी को लेकर लोग व्यक्त करते आ रहे हैं. उन्होंने कहा है कि  सिर्फ कुछ डिजिटल प्लेटफार्म के पास डेटा होना डिजिटल मोनोपोली को जन्म देगा. चाइना में लोकल कंपनियों को तवज्जो दी गई लेकिन भारत में बाहरी कंपनियां हैं जो इंटरनेट की दुनिया में छाई हुई हैं. जैसे फेसबुक और गूगल. ये कंपनियां भी डेटा के बदले फ्री सर्विस देती हैं. इनके पास डेटा है तो विज्ञापन भी ज़्यादा है. भारत में ऐसी कोई नीति नहीं है जहां पता हो कि कौन सा डेटा शेयर करना है, कौन सा निजी है. मुझे चिंता है कि ये डेटा अब मोनोपोली बना देगा और नया colonization model बनेगा.

अगर आधार के जनक निलेकणी जी यह बात कह रहे हैं कि डेटा जुटाकर कंपनियां नया उपनिवेश बना सकती हैं. उपनिवेश मतलब वहां के लोगों को ग़ुलाम बना लेना जैसे ब्रिटेन ने भारत को अपना उपनिवेश बना लिया है. अगर ये ख़तरा है कि इंटरनेट कंपनियों के लिए भी और आधार के लिए भी यह साफ होना चाहिए कि प्राइवेसी निजता के हमारे अधिकार क्या हैं. अगर पहले से हैं तो क्या हमें मालूम है कि इसका कोई कंपनी उल्लंघन करती है, अगर सरकार के डेटा बैंक से आधार का डेटा लीक हो जाता है तो एक नागरिक सरकार पर किस तरह से दावे कर सकता है. इंटरनेट कंपनी के खिलाफ किस कानून के तहत वो अपना इंसाफ मांग सकता है.

19 जुलाई के बिजनेस स्टैंडर्ड में नंदन निलेकणी का बयान छपा है जिसमें उन्होंने कहा है कि प्राइवेसी को लेकर नया कानून बनना चाहिए ताकि उपभोक्ता जिसे यूज़र कहते हैं, उसका नियंत्रण हो अपनी जानकारी पर. क्या हम जानते हैं कि डिजिटल इंडिया के सरकारी अभियान में विदेशी कंपनियां हैं या नहीं अगर हैं तो उनका हमारे डेटा पर किस तरह का नियंत्रण होगा. क्या निलेकणी गूगल और फेसबुक से आगाह कर रहे हैं. चीन में फेसबुक और गूगल का अपना संस्करण है. वहां के लोगों का डेटा अमरीका में बैठी कंपनी के पास है. निलेकणी ने कहा है कि हमारे पास इस पर लगाम लगाने के लिए कोई कानून नहीं है.

अगर निलेकणी को लगता है कि प्राइवेसी के लिए नया कानून होना चाहिए तो इसका मतलब है कि आधार को लेकर प्राइवेसी, निजता के अधिकार का सवाल उठाने वाले भी सही जगह पर लगते हैं. इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि निजता को परिभाषित किया जाए. उसकी संवैधानिकता साफ साफ हो.

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