अंग्रेजी लेखक जॉर्ज आर्वेल के उपन्यास ‘1984’ की इसी साल के दौरान भारत के साथ-साथ पूरी दुनिया में बहुत चर्चा हुई थी. इसका मुख्य पात्र है-‘बिग बास’, जो इंग्लैण्ड के एक राज्य ओसिनिया का तानाशाह है. दरअसल, उसकी स्थिति एक सर्वव्यापी ब्रह्म की तरह है, जो सबको देख रहा है. किसी की कोई छोटी-सी भी हरकत उसकी निगाह से बच नहीं सकती. इसी रचना से यह वाक्य लोकप्रिय हुआ था ‘‘बिग बॉस तुमको देख रहा है.’’ यह सन् 1949 की तब की कृति है, जब कम्प्यूटर गर्भ में भी नहीं आया था. ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ के होने का तो सवाल ही नहीं उठता.
फिर 2001 में गोविन्द निहलानी की अंग्रेजी में एक फिल्म आई थी ‘देहम’. यह शरीर के अंगों की खेती के बारे में थी, और बड़ी ही रोमांचक तथा चिन्ता पैदा करने वाली थी. एक बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी गरीब लोगों को उनके जीवन की सारी सुविधायें मुफ्त में उपलब्ध कराकर उनके शरीर का पोषण करती है. और कैमरे के द्वारा उनकी एक-एक गतिविधि पर नजर रखती है. बाद में आवश्यकतानुसार उनके शरीर के अंगों को बेचती है. कम्पनी से समझौता होने के बाद उन गरीबों को जीवन की सारी जरूरी सुविधायें तो मिल जाती हैं, किन्तु उनकी स्वतंत्रता (प्राइवेसी) एकदम से छिन जाती है. यह मध्यकालीन गुलामी प्रथा का विकृत पूंजीवादी रूप है.
सवाल यह है कि इन दोनों को अभी याद करने का भला तुक क्या है. वस्तुतः इस तुक के दो मुख्य कारण हैं. पहला है, निजी आँकड़ों की चोरी और व्यावसायिक इस्तेमाल से भंग होती हुई हमारी निजी सुरक्षा तथा दूसरा है-कृत्रिम बुद्धिमत्ता के द्वारा व्यक्ति की स्वतंत्रता का हो रहा जबर्दस्त हनन. चाहे बात निजता के उल्लंघन की हो, अथवा स्वतंत्रता के बाधित होने की, दोनों को एक साथ मिला देने पर ‘बिग बॉस’ का निर्माण हो जाता है.
तकनीकी अनुसंधानों के द्वारा आदमी पर नियंत्रण रखकर उसे इतना निरीह और गुलामों से भी बदतर गुलाम बना दिया जायेगा, इसकी शायद कल्पना भी नहीं की गई थी. ऑफिस और सार्वजनिक स्थानों पर लगे कैमरे लगातार उसकी निगरानी कर रहे हैं. उसकी बातचीत का एक-एक शब्द मोबाइल पर रिकार्ड हो रहा है. हमारे ई-मेल, मैसेज, व्हाट्सएप सब कुछ किसी अन्य के हाथ में मौजूद है. रही-सही कसर अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने पूरी कर दी है.
‘स्टार्टअप’ ‘ह्यूमैनाइज’’ ऐसे छोटे-छोटे आईडी बैच बेच रही है, जो ऑफिस के आसपास कर्मचारियों पर निगाह रखकर बताएगा कि वे अपने साथियों के साथ किस तरह से बर्ताव कर रहे हैं. वर्कप्लेस मैनेजिंग एप ‘‘स्लैक’’ मैनेजरों को यह पता करने में मदद करता है कि कर्मचारी कितनी जल्दी काम पूरा करता है. कम्पनी इससे यह भी देख पाएगी कि कर्मचारी कब ऊंघ रहा है और वह कब दुर्व्यवहार कर रहा है. एमेजान ने एक ऐसा रिस्टबैंड पेटेन्ट कराया है, जो वेयरहाउस में काम करने वालों के हाथ की गतिविधियों को सुपरवाइज करेगा और जरा भी धीमा होने पर कमान के जरिये उसे जल्दी-जल्दी हाथ चलाने के लिए कहेगा.
यह सोचना ही कितना खौफनाक लगता है कि ‘‘कोई मुझे चौबीसों घंटे देख रहा है.’’ लेकिन जब यह सोच सच में बदल जाये, तब स्थिति क्या होगी, सोच से परे है. स्टीफन हाकिंग ने दुनिया को इस कृत्रिम बुद्धिमत्ता के प्रति सचेत किया था. हाल ही में टेस्ला के प्रमुख इलोन मस्क ने भी इसके खिलाफ गंभीर चेतावनी देते हुए बिल्कुल सही कहा कि ‘‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक ऐसा अमर तानाशाह बन सकता है, जिससे कोई भी बच नहीं सकेगा.’’ लेकिन क्या कोई इसे सुनेगा? शायद नहीं और शायद कभी नहीं. अब हम ‘बिग बॉस’ की निगरानी में जीने के लिए अभिशप्त हैं.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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