UP elections 2017: कुछ कह गए वो, सुन कर हम भी चल दिए

UP elections 2017: कुछ कह गए वो, सुन कर हम भी चल दिए

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

ऐसा कुछ है हमारे देश के चुनावों में कि अच्छे भले नेता भी कुछ ऐसा कहने को मजबूर हो जाते हैं जिससे उनके बारे में लोगों की राय बदल जाए. आखिर चुनाव जीतना इतना जरूरी क्यों है कि भलमनसाहत की भाषा को भी नजरंदाज करना पड़े? चुनाव जीतना तो खैर चलिए जरूरी है ही, आखिर यही तो राजनीति का अंतिम सत्य और लक्ष्य है, लेकिन अपनी छवि और लोकप्रियता को प्रभावित करने की संभावना को भी दरकिनार करके, ऐसे बयान देना जो चुनाव में किसी एक पक्ष या पार्टी के लिए असभ्य माना जाए, इसके पीछे के कारण पर विचार करना जरूरी है.

उत्तर प्रदेश में मतदान शुरू होने से पहले के प्रचार के दौरान अधिकतर बयान वर्तमान समाजवादी पार्टी की सरकार के निर्माण कार्यों (जैसे सड़क, पुल, मेट्रो, अस्पताल आदि) के चारों ओर ही केंद्रित रहते थे. जबकि कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी इन कार्यों को अधूरा बता कर कानून व्यवस्था और सपा के अंदरूनी मामलों को मुद्दा बनाने की कोशिश में रहते थे.

लेकिन जैसे-जैसे मतदान की प्रक्रिया चरणों में बढ़ती रही, वैसे ही मुद्दे भी बदलने लगे हैं. अब सांप्रदायिक तुष्टिकरण, सरकारी निर्णयों और योजनाओं में भेदभाव, व्यक्तिगत 'अलंकरण', आक्षेप-आरोप आदि चुनावी सभाओं और बयानों में ज्यादा जगह पाने लगे हैं. ऐसा लगता है कि किसी पार्टी की सरकार की उपलब्धियों से ज्यादा व्यक्तिगत हमले और आक्षेप कारगर होंगे.

लेकिन क्या आमजन को ऐसे हमले अच्छे लगते हैं? क्या किसी शक्तिशाली और प्रसिद्ध राजनीतिक व्यक्ति के मुंह से ऐसी बातें अच्छी लगती हैं जो हमारे परिवार के सदस्य भी आपस में करना उचित नहीं समझते?

भले ही ऐसे बयानों और भाषणों को हम टीवी पर सुनकर बाद में आलोचना करें, लेकिन सच तो यही है कि जिस तरह से ऐसी सभाओं में उपस्थित लोग ऐसे बयानों और शब्दों की सराहना करते हैं, उससे यही लगता है कि कहीं न कहीं लोग ऐसे हमले करने वाले व्यक्ति को ज्यादा ताकतवर और हैसियत वाला समझते हैं. इसका औचित्य यूं समझा जा सकता है कि यदि कोई साधारण व्यक्ति ऐसी बात बोलता तो उसके खिलाफ लोगों का आक्रोश बढ़ता और शायद कोई कार्यवाही भी हो सकती थी, लेकिन चूँकि ऐसी बात बोलने के लिए हिम्मत चाहिए, तो ऐसी हिम्मत तो किसी सत्ताधारी या किसी पार्टी/संप्रदाय का शक्तिशाली व्यक्ति में होगी, और इसलिए उसका कुछ नहीं होगा.

और ऐसे ही बिगड़े बोल का सिलसिला चल निकलता है. पिछले चुनावों में प्रतिद्वंदी नेताओं को हाथ-शरीर काटने से लेकर खून और लाशों से जोड़ा गया, तो इस बार उपाधियाँ पिता-बेटा, गधा, अंतिम संस्कार स्थलों और संस्कार-विहीनता से जुड़ी हुई हैं. जाति, सम्प्रदाय, धोखेबाजी, फरेब से जुड़े आरोप, झूठ बोलना, देशद्रोही होना, जन-विरोधी होना और मौका परस्त कहना तो अब आम बात हो चुकी है और ऐसा लगता है कि इन आरोपों को न कहने वाला गंभीरता से लेता है और न सुनने वाला.

यदि सार्वजनिक संवाद का स्तर और उसकी सार्थकता इतनी निरर्थक हो चुकी है, तो कोई भी सुनने वाला ऐसे संवाद या बयानों के आधार पर अपने महत्त्वपूर्ण राजनीतिक निर्णय क्यों लेगा? यदि किसी नेता को धोखेबाज़ कहा जा रहा है, और कहने वाले को पहले ही फरेबी कहा जा चुका है, तो सुनने वाला किसको सही समझेगा और क्यों?

इसका मतलब यही हुआ कि आरोप, प्रत्यारोप, अनर्गल बयानबाजी और असभ्य भाषा का प्रयोग केवल उन्ही लोगों के लिए सार्थक हो सकता है जो आरोप लगाने वाले पर विश्वास करते हैं. यदि लोगों के एक हुजूम की उपस्थिति में उनको पसंद आने वाले किसी नेता के प्रति ऐसे आरोप लगाये जाएँ तो निश्चय ही अप्रिय स्थिति पैदा हो सकती है और झगड़े या हिंसा की नौबत भी आ सकती है.

तो क्या ऐसे आरोप लगाने वाले नेता पहले ही यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि जब वे ऐसी भाषा बोलेंगे तो सुनने वाले वही लोग होने चाहिए जो ऐसा सुनना पसंद करेंगे? और यदि ऐसा न हो तो उनकी भाषा भी संयत होगी?

यह एक रोचक संभावना है और कई वर्षों से चुनावों पर नजर रखने वाले लोग दावे से यह कहते हैं कि हर चुनावी राजनीतिक सभा में श्रोताओं का प्रबंध वक्ता पक्ष की ओर से ही किया जाता है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो कहीं भीड़ जमा ही न होगी. भीड़, ऐसे लोगों का मानना है कि भीड़ तभी जमती है जब या तो मदारी का खेल हो रहा हो, या मुफ्त में कुछ बंट रहा हो.

अब चूँकि राजनीतिक चुनावी सभा में मुफ्त में तो वादे ही बंटते हैं, और असली खेल तो चुनाव के बाद होता है, तो सुनने वाले भी केवल सुनने का आनंद लेने ही आते होंगे.

जिस तरह से उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी/कांग्रेस की सभाओं में भीड़ हो रही है, और विशेष तौर पर जिस तरह से हाल ही में इलाहाबाद में एक ही दिन में लगभग बराबर की भीड़ भाजपा और सपा-कांग्रेस की सभाओं में आई, उससे तो यही सवाल उठेगा कि क्या लोग सिर्फ मुफ्त में बातों का मजा लेने आते हैं, या बयानों को गंभीरता से लेने?

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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