नोटबंदी हो या मन की बात, दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar) की कविताएं आम आदमी को देती हैं जुबान...

बिजनौर के रहने वाले हिन्दी के जाने माने कवि दुष्यंत कुमार त्यागी का जन्म 1933 में हुआ था और वह 1975 को दुनिया से अलविदा कह गए थे.

नोटबंदी हो या मन की बात, दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar) की कविताएं आम आदमी को देती हैं जुबान...

कवि दुष्यंत कुमार का 1 सितंबर को जन्मदिन होता है... ( फाइल फोटो)

नई दिल्ली:

1 सितंबर का दिन कई मायनों में खास है. साल 1939 में जहां आज ही के दिन द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ था वहीं, आज ही के दिन 1933 में एक ऐसे कवि का जन्म हुआ था जिसकी लेखनी आज भी युवाओं के दिलों में गूंजती है और बुजुर्गों की जबानों पर बसती है. जी हां, हम दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar) की बात कर रहे हैं जिन्होंने कहा था, 'तू किसी रेल सी गुज़रती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूं...' . कौन होगा जिसने दुष्यंत कुमार को नहीं पढ़ा! कैफ भोपाली, गजानन माधव मुक्तिबोध, अज्ञेय की साहित्यिक खुमारी के दौर में जब आम लोगों की  बोलचाल की भाषा में कविताएं लाकर दुष्यंत ने तेजी से लोगों के जेहन में जगह बना ली थी. 

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उनके बारे में निजी जानकारी देते हुए बता दें कि बिजनौर के रहने वाले हिन्दी के जाने माने कवि दुष्यंत कुमार त्यागी का जन्म 1933 में हुआ था और वह 1975 को दुनिया से अलविदा कह गए थे.

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पहली कविता...

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए


दूसरी कविता...

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

दर्द ए दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुंचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो 

तीसरी कविता...

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ 

एक जंगल है तेरी आंखों में 
मैं जहां राह भूल जाता हूँ 

तू किसी रेल सी गुज़रती है 
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं

हर तरफ़ एतराज़ होता है 
मैं अगर रोशनी में आता हूँ 

एक बाज़ू उखड़ गया जब से 
और ज़्यादा वज़न उठाता हूं

मैं तुझे भूलने की कोशिश में 
आज कितने क़रीब पाता हूँ 

कौन ये फ़ासला निभाएगा 
मैं फ़रिश्ता हूं सच बताता हूं 

उनकी कुछ और अन्य मशहूर कविताएं ये हैं...

'कहां तो तय था', 'कैसे मंजर', 'खंडहर बचे हुए हैं', 'जो शहतीर है', 'ज़िंदगानी का कोई', 'मकसद', 'मुक्तक', 'आज सड़कों पर लिखे हैं', 'मत कहो, आकाश में', 'धूप के पांव', 'गुच्छे भर', 'अमलतास', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाजों के घेरे', 'जलते हुए वन का वसन्त', 'आज सड़कों पर', 'आग जलती रहे', 'एक आशीर्वाद', 'आग जलनी चाहिए', 'मापदण्ड बदलो', 'कहीं पे धूप की चादर', 'बाढ़ की संभावनाएँ', 'इस नदी की धार में', 'हो गई है पीर पर्वत-सी'.

इनपुट : एजेंसियां


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