EXCLUSIVE : जैविक खेती से बनता किसानों और उद्यमियों का नेटवर्क, हताशा के बीच उम्मीद का झोंका

अगर जैविक उत्पादों के लिये लोगों में ललक बढ़ रही है तो उसके पीछे वजह है कि लोग अपने खाने में रासायनिक पैस्टिसाइट्स के असर को समझ रहे हैं.

EXCLUSIVE : जैविक खेती से बनता किसानों और उद्यमियों का नेटवर्क, हताशा के बीच उम्मीद का झोंका

EXCLUSIVE : जैविक खेती से बनता किसानों और उद्यमियों का नेटवर्क...

नई दिल्ली:

देश के अलग- अलग हिस्सों में किसानों ने जैविक खेती को बदलाव के रूप में अपनाया और कई उद्यमी उनका साथ दे रहे हैं. दिल्ली के मालचा मार्ग और खेलगांव जैसे पॉश इलाकों में लगने वाले जैविक उत्पादों के बाज़ार तेज़ी से बढ़ रहे हैं. राजधानी में ही नहीं बल्कि एनसीआर समेत देश के तमाम महानगरों में भी ऐसे बाज़ार अपने पैर फैला रहे हैं. अगर जैविक उत्पादों के लिये लोगों में ललक बढ़ रही है तो उसके पीछे वजह है कि लोग अपने खाने में रासायनिक पैस्टिसाइट्स के असर को समझ रहे हैं.

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'हम जो चीज़ें बाज़ार से लेकर खाते हैं उनमें रसायन होते हैं. ये हमें पता है. ये सब कहां जाता है. हमारे शरीर में ही जाता है न... अब हमने ऐसे प्रोडक्ट लेने बन्द कर दिये हैं और हम सिर्फ ऑर्गेनिक ही खा रहे हैं.' मालचा मार्ग में खरीदारी करने आई पूजा नन्दा हमें बताती हैं. ऐसे ही हैं फौज से रिटायर हुए विजय दहिया जो कहते हैं, मूली जो बहुत सुन्दर लगती है वह किस तरीके से साफ हो रही है किस तरीके से उगाई जा रही है .. इतनी सुन्दर दिखने वाली गोभी उसमें कभी कीड़ा नहीं लगता.. ऐसा कैसे हो सकता है कि उसमें कीड़ा न लगे.. कीड़ा नहीं है क्योंकि कैमिकल का इस्तेमाल किया जाता है.

आपकी प्लेट तक पहुंचने वाले ज़हरीले खाने को लेकर हम आपको कई कहानियां दिखा चुके हैं. चाहे दिल्ली के हिन्डन इलाके में ज़हरीले पानी में उगी सब्जियां हो या फिर एसिड से चमकाया गया अदरक. 1960 और 70 के दौर में हरित क्रांति के बाद रसायनों का अन्धाधुंध इस्तेमाल शुरू हुआ जिससे ज़हर खाने के साथ लोगों के शरीर में पहुंचने लगा. पंजाब के मालवा में बीमारों की संख्या ऐसी बढ़ी कि बठिंडा से बीकानेर को जाने वाली रेलगाड़ी को लोग कैन्सर ट्रेन कहने लगे. आज हमारे खाने में तरह तरह के रसायन अलग अलग बीमारियों का खतरा लिये मौजूद हैं. जैसे क्लोरोपायरिफोस, बच्चों के मानसिक विकास में बाधा डालता है. सिरदर्द, चक्कर आना और मांसपेशियों में ऐंठन आम बीमारी है. डॉक्टरों ने तो मां के दूध में भी इस रसायन के अंश पाये हैं. इंडोसल्फान, अब प्रतिबन्धित है जिससे कई लोगों की जान जाने की खबर आई. हेप्टा क्लोर, आपके नर्वस सिस्टम और लीवर पर असर डालता है. एल्ड्रिन और डीडीटी, कैंसर और नपुंसकता जैसी बीमारियों की वजह हैं. बीमारियों की यह लिस्ट लम्बी है लेकिन समाज का एक बड़ा हिस्सा जागरूक हो गया है.

इसका जवाब है पारम्परिक तरीके से की गई जैविक खेती जिसमें रसायनों का इस्तेमाल न हो और ज़हर आपके शरीर में न पहुंचे. जहां खेती किसान के लिये घाटे का सौदा रही है वहां जैविक खेती में तो किसान के लिये कुछ अलग मुश्किलें हैं क्योंकि बाज़ार ज़हरीले कीटनाशकों से पटा हुआ है और बड़ी बड़ी कम्पनियों के हित रासायनिक कीटनाशकों को बेचने और कैमिकल फॉर्मिंग को बढ़ावा देने में है. ऐसे में जैविक उत्पाद महंगे हो जाते हैं. उन्हें बाज़ार तक पहुंचाना आसान नहीं. मांग और उत्पादन का तालमेल बिठाना अभी कठिन है. किसानों को समय पर भुगतान नहीं मिलता और सबसे बड़ी बात उत्पाद की विश्वसनीयता. लेकिन दिल्ली से महज़ 60 किलोमीटर दूर बुलंदशहर के लोहरारा गांव में 65 साल के नरेश सिरोही और उनके बेटे धर्मेंद्र ने जैसे इन सारी मुश्किलों से पार पा लिया है. नरेश सिरोही ने फौज से रिटायर होने के बाद जैविक खेती का रास्ता चुना और उनके बेटे धर्मेंद्र ने अपनी जमी जमाई नौकरी छोड़ दी. आज उनके खेतों में पड़ने वाली खाद से कीटनाशकों तक- सब कुछ जैविक हैं यानी ज़हर का नामोनिशान नहीं. करीब पांच एकड़ ज़मीन पर सिरोही परिवार ने पिछले चार साल से  सब्जियों और अनाज़ को उगाने का सिलसिला शुरू किया है.

सिरोही परिवार गाय का गोबर, गोमूत्र, सूखी पत्तियां, गुड़, केला और पपीता जैसी सामग्रियों से खाद और पोषक तत्व बनाते हैं. इनमें से तमाम चीज़ें उनके खेतों और घर में मिल जाती हैं इसलिये खेती का खर्च बहुत कम हो गया है. 'हमारी लागत बहुत घट गई है और जो चीज़ें हम पैदा कर रहे हैं उनकी अच्छी कीमत मिलती है. सबसे बड़ी बात ये है कि हमारे खेतों की मिट्टी रसायन इस्तेमाल न करने से काफी अच्छी हो गई है. अब न हम खुद ज़हर खा रहे हैं और न दूसरों को खिला रहे हैं.'  धर्मेंद्र के पिता नरेश सिरोही कहते हैं.

 
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बुलंदशहर के धर्मेंद्र सिरोही गाय के गोबर और गोमूत्र से खाद बनाते हैं और उससे लागत घटी है. बुलंदशहर से करीब 500 किलोमीटर दूर बुंदेलखंड के गांवों में किसानों  की ज़िंदगी में ही ऐसा ही बदलाव आ रहा है. उत्तर प्रदेश और और मध्य प्रदेश की सीमा पर ललितपुर के पास भगवान दास औऱ उनके कई साथी महीने में 20 से 25 हज़ार रुपये की कमाई कर रहे हैं. जैविक खेती से जुड़े इस किसान नेटवर्क की एक कड़ी हैं जगभान कुशवाहा जो अपनी पासबुक दिखाते हैं. बैंक की प्रविष्टियों से पता चलता है कि उनके पास लगातार पैसा आ रहा है. 'पिछले महीने के भीतर यहां किसान समूह ने हर महीने औसतन सवा लाख रुपये के फल और सब्ज़ियां बेचना शुरु कर दीं. किसान इस बात से खुश हैं कि उनकी लागत लगातार घट रही है और घर बैठे माल बिक रहा है.' कामयाबी का ये ग्राफ धीरे धीरे बढ़ रहा है. कर्ज़, पलायन और खुदकुशी की वजह से  किसानों की मायूस तस्वीर दिखाने वाले बुंदेलखण्ड में ये एक उम्मीद का ताज़ा झोंका है. एक ऐसी क्रांति की शुरुआत जिसमें जगबान और कमलेश करीब 15 एकड़ ज़मीन पर कई किसान परिवारों के साथ ऑर्गेनिक फॉर्मिंग कर रहे हैं.
जगभान के भाई कमलेश कुशवाहा उत्साहित दिखते हैं. 'हां बहुत बड़े इलाके में यहां किसान अब भी परेशान है. पलायन भी होता है लेकिन जैविक खेती ने हमारी ज़िंदगी में बदलाव किया है. अब हम महीने के अंत में कुछ पैसा बचा पा रहे हैं. हमारी ज़रूरत ये है कि जैविक उत्पादों की मांग बढ़े. किसान बहुत कुछ पैसा कर रहा है लेकिन मांग बढ़े तो मुनाफा बढ़ेगा और लागत और घटेगी.'

किसानों को कर्ज़ के चक्रव्यूह से बाहर निकालना और मुनाफे की खेती कराना इतना आसान नहीं था और गरीबी की जंग से लड़ने में कुछ उद्यमियों ने साथ दिया है जो इस बदलाव को व्यापक बना रहे हैं जहां खेतों में उगी उनकी फसल और ग्राहक के बीच की कड़ियां जुड़ती हैं. दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद और मालचा मार्ग में जैविक उत्पादों का बाज़ार लगाने वाली ज्योति अवस्थी ने पिछले करीब 2 सालों में एक लम्बी दूरी तय कर चुकी हैं. सतत आर्गेनिक नाम से उनकी पहल रंग ला रही है. वह आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बुंदेलखंड के दर्जनों किसान परिवारों के साथ जुड़ चुकी है. अवस्थी कहती हैं कि वह किसानों को उत्साहित करने की ज़रूरत थी और इसके लिये पहली चीज़ उन्हें उस फसल के सही दाम चाहिये जो वह उगा रहे हैं.

“हम काफी पहले से शहरी गरीबों के साथ काम कर रहे हैं. हमने ये देखा कि बहुत सारे लोग शहरों में आ तो गये हैं लेकिन वापस गांव जाना चाहते हैं. ये लोग किसान परिवारों से हैं. हमने इन इलाकों में जाकर किसानों को जैविक खेती करने को प्रोत्साहित किया और उनके उत्पाद उस इलाके के रिटेल भाव में खरीदने शुरू किये. हमने किसानों से कहा कि आप मेहनत करते हो तो आम दाम तय करो. इससे किसानों में उत्साह पैदा हुआ.”

इस तरह से खरीदे गये जैविक फल और सब्ज़ियों की कीमत बाज़ार आते आते सामान्य उत्पादों के मुकाबले 30 से 40 प्रतिशत अधिक होती है. यही ज्योति जैसे उद्यमियों के लिये चुनौती है. “शुरुआत में हमने घाटा खाकर ये काम शुरू किया लेकिन हमें उम्मीद है कि किसानों और ग्राहकों में जागरूकता बढ़ेगी तो ये सबके लिये विन-विन वाली सिचुएशन होगी.” सतत की निदेशक ज्योति अवस्थी कहती हैं. ऐसे उद्यमियों की अब एक कड़ी बन रही है. मिसाल के तौर पर 38 साल के गणेश चौधरी को लीजिये जिनका जैविक उत्पादों का कारोबार मध्य प्रदेश के कटनी से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक फैल रहा है.

पेशे से इंजीनियर रहे चौधरी ‘आरोग्य सुख’ के संस्थापक और साझेदार हैं और बीइंग देसी के नाम से कई जैविक उत्पाद बनाते हैं. उनके उत्पादों के मध्य में है देसी गाय. वह कहते हैं कि इन दिनों गाय के नाम पर उत्पात मचा रहे लोगों को गाय की असल अहमियत पता नहीं है कि वह कितने फायदे दे सकती है. चौधरी ने भी कई किसान परिवारों को अपने साथ जोड़ लिया है. वह कहते हैं, “पहले मैं सोचता था कि मैं अकेला ये काम कर सकता हूं लेकिन काम फैसला गया और अब खुशी है कि कई परिवारों को में अपने साथ जोड़ रहा हूं. मेरे कई हाथ बढ़ गये लगता है.”

ये कहानियां महत्वपूर्ण है क्योंकि ये उन इलाकों से आ रही हैं जहां किसानों के हालात पर अक्सर मायूस करने वाली ख़बरें आती हैं. कहीं-कहीं ही सही उम्मीद की किरण दिख रही है. 25 साल के भावेश वांखड़े पाटिल से मिलिये. मुम्बई के टाटा इंस्ट्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) से पढ़ाई करने के बाद आज वो विदर्भ के मायूस किसानों में जोश भर रहे हैं. भावेश हमें बताते हैं कि उन तमाम परिवारों में जहां किसानों ने आत्महत्या की उनमें से कई लोग जैविक खेती की उनकी मुहिम से जुड़ना चाहते हैं. भावेश कहते हैं जब उनके पिता को दिल का दौरा पड़ा तो उन्हें रासायनिक खेती के कुप्रभावों को समझने का मौका मिला. उन्हें पता चला कि एक ओर ग्राहकों के शरीर में ज़हर पहुंच रहा है वहीं किसान घाटे की खेती कर रहा है और कर्ज़ में फंसता जा रहा है. “हमने दोनों ओर की समस्याओं को एक साथ रखकर देखा और तय किया कि किसानों को सस्टेनेबल एग्रीकल्चर की ओर ले जाना होगा. हम किसान को यह सिखाते हैं कि वह अपनी खेती की लागत कैसे कम कर सकते हैं. हम उन्हें सिखाते हैं कि गाय का गोबर, गोमूत्र और पत्तियां और वेस्ट का इस्तेमाल कर खाद कैसे बनाई जाती है.” भावेश ने चीज़ों के साथ साथ किसानों को तकनीकी सलाह देने के लिये नेटवर्क तैयार किया. वह दावा करते हैं कि आज एक हज़ार से अधिक किसान उनके साथ जुड़े हैं.
 
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कर्ज़ के बोझ से दबे विदर्भ के किसानों के लिये जैविक खेती से लागत घटा रहे हैं. आज जब देश में कुछ लोग गौरक्षा के नाम पर उत्पात मचा रहे हों और धार्मिक जज्बातों को भड़काने का सिलसिला चल रहा है तो ये किसान और उद्यमी गाय की आर्थिक उपयोगिता और गौसेवा का नया रास्ता दिखा रहे हैं. धर्मेंद्र सिरोही और उनके पिता गाय के गोबर और गोमूत्र से खाद और पोषक तत्व घर पर ही बनाते हैं जो उनकी खेती के लिये पर्याप्त है और बुंदेलखंड में कमलेश और उनके साथियों ने भी जैविक खाद  के प्रयोग से खेती की लागत घटायी है और अब वो ज़ीरो बजट फार्मिंग की ओर बढ़ रहे हैं.

2015 में सरकार की अपनी रिपोर्ट के हिसाब से जैविक उत्पादों का बाज़ार 25 से 30 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रहा है और एक अनुमान के मुताबिक अगले कुछ सालों में 9000 करोड़ रुपये का होगा. जैविक उत्पादों के कारोबार में छोटे उद्यमियों और किसानों के साथ बाज़ार में अपने प्रोडक्ट की विश्वसनीयता को बनाना कड़ी चुनौती है. जहां सतत की अवस्थी कहती हैं कि वो प्रयोगशालाओं से सर्टिफिकेट हासिल कर अपने सेल्स सेंटरों में ग्राहकों की संतुष्टि के लिये रखती हैं. वहीं गणेश कहते हैं कि सर्टिफिकेशन ज़रूरी है लेकिन असली मुहर ग्राहक का संतोष है. “अगर ग्राहक को फायदा होगा तो वह ज़रूर हमारे उत्पाद खरीदेगा.” गणेश कहते हैं. लेकिन छोटे उद्यमियों को पता है कि उनका मुकाबला बड़ी बड़ी कम्पनियों से है जिनके पास रासायनिक खेती के उत्पाद बेचने के लिये पैसे और विज्ञापनों की कमी नहीं है. ऐसे में इन कड़ियों को जोड़ने के लिये निवेदिता वार्ष्णेय जैसी लोगों का खास रोल है. निवेदिता कहती हैं कि वह किसानों, उद्यमियों और खरीदारों के नेटवर्क को जोड़ने की कोशिश कर रही है.

वह बताती हैं, “जब किसान कैमिकल फॉर्मिंग से ऑर्गेनिक फार्मिंग की ओर आता है तो मिट्टी से ज़हरीले कैमिकल्स को हटने में कई साल लगते हैं. अमूमन ये तीन साल का वक्त होता है. हम इस पीरियड को कन्वर्जन पीरियड कहते हैं और सर्टिफिकेशन भी अंडर कन्वर्जन के नाम से होता है और इसी जानकारी के साथ उत्पाद बेचा जाता है. इस वक्त किसान को बड़े सहारे की ज़रूरत होती है ताकि उसका उत्पाद बाज़ार में बिके और उसके घाटे को पूरा करने में कोई उसकी मदद करे. ऐसे में कई उद्यमी, सरकारी और गैर सरकारी संगठन किसान की मदद कर रहे हैं. यह काफी महत्वपूर्ण है.

VIDEO- जैविक खेती ने बदल दी किसानों की किस्मत

अगर आप करीब से देखें तो पता चलेगा कि आपके फेफड़ों में जाने वाली हवा का रिश्ता भी इस बात से है कि आप क्या खा रहे हैं क्योंकि रसायनों का इस्तेमाल और रासायनिक खाद हवा में भी काफी ज़हर घोलते हैं. जैविक खेती को लेकर हमने ये कहानियां बदलाव और उम्मीद की एक झलक भर हैं. किसान आज भी परेशान हैं और समृद्धि की राह पर उसे लम्बा रास्ता तय करना है लेकिन असली बदलाव आपसे यानी ग्राहकों से ही पैदा होगा. जब तक जैविक उत्पादों की मांग नहीं बढ़ती. किसान परेशान रहेगा और खेत ज़हरीले रहेंगे.

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