CJI दीपक मिश्रा 2 अक्टूबर को होंगे रिटायर, सुप्रीम कोर्ट से इस महीने आ सकते हैं कई ऐतिहासिक फैसले

इस महीने सुप्रीम कोर्ट से कई बड़े और ऐतिहासिक फैसले आएंगे. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा 2 अक्टूबर को रिटायर हो जाएंगे, लेकिन इससे पहले वह कई चर्चित मामलों की सुनवाई करेंगे.

CJI दीपक मिश्रा 2 अक्टूबर को होंगे रिटायर, सुप्रीम कोर्ट से इस महीने आ सकते हैं कई ऐतिहासिक फैसले

जस्टिस दीपक मिश्रा 2 अक्टूबर को रिटायर हो रहे हैं.

नई दिल्ली:

इस महीने सुप्रीम कोर्ट से कई बड़े और ऐतिहासिक फैसले आएंगे. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा 2 अक्टूबर को रिटायर हो जाएंगे, लेकिन इससे पहले वह कई चर्चित मामलों की सुनवाई करेंगे. ऐसे में उनकी अगुवाई में बेंच ने कई अहम मुद्दों की सुनवाई की जिन पर फैसला सुरक्षित रखा गया. अब ये बड़े फैसले कभी भी एक के बाद एक आ सकते हैं. जिन चर्चित मामलों में सीजेआई दीपक मिश्रा फैसला सुना सकते हैं उनमें आधार, अयोध्या मामला, समलैंगिकता, सबरीमाला मंदिर मामला और नौकरी में आरक्षण सहित कई अहम मामले शामिल हैं. 

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1. आधार की अनिवार्यता मामला
आधार की अनिवार्यता का मामला 10 मई को सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ में सुनवाई पूरी हुई. संविधान पीठ ने सभी पक्षों की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा. पांच जजों का संविधान पीठ तय करेगा कि आधार निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है या नहीं. 38 सुनवाई हुई सुप्रीम कोर्ट में. 17 जनवरी से शुरू हुई थी आधार की सुनवाई. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़़ और जस्टिस अशोक भूषण की संविधान पीठ ने आधार मामले की सुनवाई की थी. फैसला आने तक सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं के अलावा बाकी सभी केंद्र व राज्य सरकारों की योजनाओं में आधार की अनिवार्यता पर रोक लगाई गई है. इनमें मोबाइल सिम व बैंक खाते भी शामिल हैं. AG केके वेणुगोपाल ने कोर्ट में कहा था कि ये सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में दूसरी सबसे बड़ी सुनवाई है. इससे पहले 1973 में मौलिक अधिकारों को लेकर केशवानंद भारती केस की सुनवाई करीब पांच महीने चली थी.

2. रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद
20 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला सुरक्षित रखा कि संविधान पीठ के 1994 के फैसले पर फिर विचार करने की जरूरत है या नहीं. दरअसल सुप्रीम कोर्ट टाइटल सूट से पहले अब वो इस पहलू पर सुनवाई कर रहा था कि मस्जिद में नमाज पढना इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है या नहीं. कोर्ट ने ये कहा था पहले ये तय होगा कि संविधान पीठ के 1994 के उस फैसले पर फिर से विचार करने की जरूरत है या नहीं कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का इंट्रीगल पार्ट नहीं है. इसके बाद ही टाइटल सूट पर विचार होगा.


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दरअसल 1994 में पांच जजों के पीठ ने राम जन्मभूमि में यथास्थिति बरकरार रखने का निर्देश दिया था ताकि हिंदू पूजा कर सकें.पीठ ने यह भी कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का इंट्रीगल पार्ट नहीं है. 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला देते हुए एक तिहाई हिंदू, एक तिहाई मुस्लिम और एक तिहाई राम लला को दिया था. मुस्लिम पक्ष की तरफ से बहस करते हुए राजीव धवन ने तालिबान द्वारा बुद्ध की मूर्ति तोड़े जाने का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्हें ये कहने में कोई संकोच नही कि कि 1992 में जो मस्जिद गिराई गई वो हिन्दू तालिबानियों द्वारा गिराई गई. मुस्लिम पक्ष की तरफ से उत्तर प्रदेश सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार को इस मामले में नियुट्रल भूमिका रखनी थी, लेकिन उन्होंने इसको तोड़ दिया. पिछली सुनवाई में शिया वक़्फ़ बोर्ड की तरफ से कहा गया हम इस महान देश में सौहार्द, एकता, शांति और अखंडता के लिए अयोध्या की विवादित ज़मीन पर मुसलमानो का हिस्सा राम मंदिर के लिए देने को राज़ी हैं.

3. समलैंगिकता
17 जुलाई को चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान ने धारा-377 की वैधता को चुनौती वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए यह साफ किया कि इस कानून को पूरी तरह से निरस्त नहीं किया जाएगा. कोर्ट ने कहा कि यह दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध तक ही सीमित रहेगा. पीठ ने कहा कि अगर धारा-377 को पूरी तरह निरस्त कर दिया जाएगा तो आरजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. हम सिर्फ दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध पर विचार कर रहे हैं. यहां सहमति ही अहम बिन्दु है. पीठ ने कहा कि आप बिना दूसरे की सहमति से अपने यौन झुकाव को नहीं थोप सकते. पीठ ने यह भी कहा कि अगर कोई भी कानून मौलिक अधिकारों को हनन करता है तो हम कानून को संशोधित या निरस्त करने के लिए बहुमत वाली सरकार के निर्णय का इंतजार नहीं कर सकते.


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पीठ ने कहा, 'मौलिक अधिकारों का पूरा उद्देश्य है कि यह अदालत को निरस्त करने का अधिकार देता है. हम बहुमत वाली सरकार द्वारा कानून को निरस्त करने का इंतजार नहीं कर सकते. अगर कानून असंवैधानिक है तो उस कानून को निरस्त करना अदालत का कर्तव्य है. वास्तव में पीठ ने ये टिप्पणी तब की जब चर्च के एक एसोसिएशन की ओर से पेश वकील श्याम जॉर्ज ने कहा कि यह अदालत का काम नहीं है बल्कि कानून बनाना या संशोधन करना विधायिका का काम है. उनका कहना था कि 'अप्राकृतिक यौन संबंध’ प्रकृति के विपरीत है और दंडात्मक प्रावधान में सहमति की बात नहीं है. पीठ ने कहा, प्राकृतिक और स्वाभाविक क्या है? क्या बच्चा पैदा करने के लिए ही यौन संबंध बनाना प्राकृतिक है. क्या वैसे यौन संबंध जिनसे बच्चा पैदा नहीं होता, वह प्राकृतिक नहीं है. वहीं एक एनजीओ की ओर से पेश वरिष्ठ वकील के राधाकृष्णन ने पीठ के समक्ष दावा किया कि समलैंगिकता एड्स को बढ़ावा देता है. जवाब में पीठ ने कहा कि लोगों के बीच राय है कि समलैंगिक संबंध रखने वाले लोग स्वास्थ्य के प्रति गंभीर होते हैं. पीठ ने कहा कि अगर आप वैश्यावृति को लाइसेंस देते हैं तो आप इस पर नियंत्रण रखते हैं. अगर आप इसे छुपा कर करना चाहते हैं तो इससे स्वास्थ्य संबंधी परेशानी होती है. पीठ ने यह भी कहा कि असुरक्षित संबंध से एड्स का खतरा होता है न कि समलैंगिकता से.

4. IPC-497 
9 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार की धारा IPC 497 पर फैसला सुरक्षित रखा था. पांच जजों का संविधान पीठ तय करेगा कि ये धारा अंसवैधानिक है या नहीं, क्योंकि इसमें सिर्फ पुरुषों को आरोपी बनाया जाता है महिलाओं को नहीं. व्याभिचार यानी जारता को लेकर भारतीय दंड संहिता यानी IPC की धारा 497 को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कानून का समर्थन किया है. केंद्र सरकार ने IPC की धारा 497 का समर्थन किया. केंद्र सरकार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट भी ये कह चुका है कि जारता विवाह संस्थान के लिए खतरा है और परिवारों पर भी इसका असर पड़ता है. केंद्र सरकार की तरफ ASG पिंकी आंनद ने कहा अपने समाज में हो रहे विकास और बदलाव को लेकर कानून को देखना चाहिए न कि पश्चिमी समाज के नजरिये से. सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा कि विवाहित महिला अगर किसी विवाहित पुरुष से संबंध बनाती है तो सिर्फ़ पुरुष ही दोषी क्यों? जबकि महिला भी अपराध की जिम्मेदार है.

व्याभिचार को लेकर भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा. कोर्ट ने आश्चर्य जताते हुए कहा अगर अविवाहित पुरुष किसी विवाहित महिला के साथ सेक्स करता है तो वो व्याभिचार नहीं होता. कोर्ट ने कहा कि शादी की पवित्रता पति और पत्नी को बनाए रखने के लिए दोनों की जिम्मेदारी होती है. कोर्ट ने कहा विवाहित महिला अगर किसी विवाहित पुरुष से संबंध बनाती है तो सिर्फ़ पुरुष ही दोषी क्यों? जबकि महिला भी अपराध की जिम्मेदार है. कोर्ट ने कहा धारा 497 के तहत सिर्फ पुरुष को ही दोषी माना जाना IPC का एक ऐसा अनोखा प्रावधान है कि जिसमें केवल एक पक्ष को ही दोषी माना जाता है. कोर्ट ने हैरानी जताते हुए कहा कि अगर विवाहित महिला के पति की सहमति से कोई विवाहित पुरुष संबंध बनाता है तो वो अपराध नहीं है. इसका मतलब क्या महिला पुरुष की निजी मिल्कियत है कि वो उसकी मर्जी से चले.

5. सबरीमाला मंदिर मामला
3 अगस्त को केरल के सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी के खिलाफ याचिका पर संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया था. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए पूछा महिलाओं को उम्र के हिसाब प्रवेश देना संविधान के मुताबिक है? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 25 सभी वर्गों के लिए बराबर है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा मंदिर हर वर्ग के लिए है किसी खास के लिए नहीं है. हर कोई मंदिर आ सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान इतिहास पर नहीं चलता, बल्कि ये ऑर्गेनिक और वाइब्रेंट है.

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने टिप्पणी की कि देश में प्राइवेट मंदिर का कोई सिद्धांत नहीं है. मंदिर प्राइवेट संपत्ति नहीं है ये सावर्जनिक संपत्ति है ऐसे में सावर्जनिक संपत्ति में अगर पुरुष को प्रवेश की इजाजत है तो फिर महिला को भी प्रवेश की इजाजत मिलनी चाहिए. एक बार मंदिर खुलता है तो उसमें कोई भी जा सकता है. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़़ ने कहा सविंधान के अनुच्छेद 25 के तहत सब नागरिक किसी धर्म की प्रैक्टिस या प्रसार करने के लिए स्वतंत्र हैं. इसका मतलब ये है कि एक महिला के नाते आपका प्रार्थना करने का अधिकार किसी विधान के अधीन नहीं है. ये संवैधानिक अधिकार है.

6. दागियों के चुनाव लड़ने पर रोक
दागी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट फैसला सुनाएगा. दरअसल सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में उस याचिका पर सुनवाई चल हुई थी, जिसमें मांग की गई है कि गंभीर अपराधों में जिसमें सज़ा 5 साल से ज्यादा हो और अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ आरोप तय होते हैं तो उसके चुनाव लड़ने पर रोक लगाई जाए. अगर कोई सासंद या विधायक है तो उसकी सदस्यता रद्द होनी चाहिए. पांच जजों के संविधान पीठ ने केंद्र से पूछा था कि क्या चुनाव आयोग को ये शक्ति दी जा सकती है कि वो आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार को चुनाव में उतारें तो उसे (उस उम्मीदवार को) चुनाव चिन्ह देने से इनकार कर दे? केंद्र की ओर से AG के के वेणुगोपाल ने इसका विरोध किया, कहा कि  ये चुने हुए प्रतिनिधि ही तय कर सकते हैं, कोर्ट का नहीं. ये काम चुने हुए प्रतिनिधियों का है या फिर इस अदालत में बैठे पांच जजों का?

CJI दीपक मिश्रा ने केंद्र से कहा कि हम अपने आदेश में ये जोड़ सकते हैं कि अगर अपराधियों को चुनाव में प्रत्याशी बनाया गया तो उसे चुनाव चिन्ह ना जारी करे. AG ने कहा कि अगर ऐसा किया गया तो राजनीतिक दलों में विरोधी एक- दूसरे पर आपराधिक केस करेंगे. कोर्ट को देश की वास्तविकता को देखना चाहिए. चुनाव खर्च की सीमा तय करना देश का सबसे बड़ा मजाक है. प्रत्याशी अपने क्षेत्र में करीब 30 करोड़ रुपये खर्च करता है. चुनाव के वक्त प्रत्याशियों के खिलाफ ज्यादा मामले दर्ज होंगे. संसदीय स्थाई समिति में इस पर विचार किया था और खारिज कर दिया था.

हालांकि जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने चीफ जस्टिस के कथन से असहमति जताई, कहा इससे लोग राजनीतिक बदला निकालेंगे. चुनाव लड़ने की अयोग्यता दोषी करार होने के बाद हो. जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन ने कहा कि कोर्ट संसद के क्षेत्राधिकार में नहीं जा रहा. जब तक संसद कानून नहीं बनाती तब तक हम चुनाव आयोग को आदेश देंगे कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को चुनाव चिन्ह ना दे. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि पार्टी को मान्यता देते वक्त चुनाव आयोग कहता है कि पार्टी को कितने वोट लेने होंगे. वहीं चुनाव आयोग खुद ही शर्त लगा सकता है कि अपराधिक छवि वाले दलों के प्रत्याशी ना बनें. ऐसा व्यक्ति किसी राजनीतिक पार्टी से चुनाव नहीं लड़ सकता. हालांकि वो खुद चुनाव लड़ सकता है, इस तरह वो चुनाव लडने के अधिकार से वंचित नहीं होगा. AG ने कहा लेकिन इससे राजनीतिक पार्टियों का अधिकार छीन लिया जाएगा और ये असंवैधानिक होगा. दरसअल मार्च 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने यह मामला पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को विचार के लिए भेजा था. इस मामले में अश्विनी कुमार उपाध्याय के अलावा पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह और एक अन्य एनजीओ की याचिकाएं  हैं.

7. SC/ST प्रमोशन में आरक्षण
30 अगस्त को सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण मामले में सुप्रीम कोर्ट की सविधान पीठ ने सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रखा है. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस इंदु मल्होत्रा ​​की संविधान पीठ के समक्ष इस तरह के कोटा के खिलाफ 2006 के नागराज फैसले पर पुनर्विचार की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई पूरी हो गई. संविधान पीठ को ये तय करना है कि 12 साल पुराने आदेश पर फिर से विचार करने की जरूरत है या नहीं. केंद्र और राज्य सरकारों ने जहां सरकारी नौकरी में प्रमोशन में आरक्षण की वकालत की है तो वहीं याचिकाकर्ताओं ने इसका विरोध किया है. केंद्र ने कहा है कि संविधान में SC/ST को पिछड़ा ही माना गया है.

गौरतलब है कि अक्टूबर 2006 में नागराज बनाम भारत संघ के मामले में पांच जजों की संविधान बेंच ने इस मुद्दे पर निष्कर्ष निकाला कि राज्य नौकरी में पदोन्नति के मामले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण करने के लिए बाध्य नहीं है. हालांकि अगर वे अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करना चाहते हैं और इस तरह का प्रावधान करना चाहते हैं तो राज्य को वर्ग के पिछड़ेपन और सार्वजनिक रोजगार में उस वर्ग के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता दिखाने वाला मात्रात्मक डेटा एकत्र करना होगा. सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया था कि क्या SC/ST में क्रीमी लेयर के नियम लागू होते हैं. केंद्र सरकार ने कहा कि SC/ST में क्रीमी लेयर को लेकर कोई फैसला नहीं है.

8. अदालती  कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग
24 अगस्त को राष्ट्रीय महत्व के मामलों में अदालत की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा था. कोर्ट ने कहा कि अदालती कार्रवाई की लाइव स्ट्रीमिंग से पारदर्शिता बढ़ेगी और ये ओपन कोर्ट का सही सिद्घांत होगा. CJI दीपक मिश्रा ने कहा कि अयोध्या और आरक्षण जैसे मुद्दों की लाइव स्ट्रीमिंग नहीं होगी इस दौरान जस्टिस डीवाई चंद्रचूड ने कहा कि हम खुली अदालत को लागू कर रहे हैं. ये तकनीक के दिन हैं हमें पॉजीटिव सोचना चाहिए और देखना चाहिए कि दुनिया कहां जा रही है.

कोर्ट में जो सुनवाई होती है वेबसाइट उसे कुछ देर बाद ही बताती हैं. इसमें कोर्ट की टिप्पणी भी होती है. साफ है कि तकनीक उपलब्ध है. हमें इसका इस्तेमाल करना चाहिए. केंद्र सरकार की ओर से AG के के वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट नें गाइडलाइन दाखिल की है. इसके मुताबिक लाइव स्ट्रीमिंग पायलेट प्रोजेक्ट के तौर पर चीफ जस्टिस की कोर्ट से शुरू हो. इसमें संवैधानिक मुद्दे और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे शामिल हों. वैवाहिक विवाद, नाबालिगों से जुड़े मामले, राष्ट्रीय सुरक्षा और सांप्रदायिक सौहार्द से जुडे मामलों की लाइव स्ट्रीमिंग ना हो. लाइव स्ट्रीमिंग के लिए एक मीडिया रूम बनाया जा सकता है, जिसे लिटिगेंट, पत्रकार और वकील इस्तेमाल कर सकें. इससे कोर्टरूम की भीड़-भाड़ कम होगी. एक बार कोर्ट गाइडलाइन फ्रेम करे, फिर सरकार फंड रिलीज करेगी. एक वकील ने इसका विरोध भी किया. कहा कि इससे कोर्ट की टिप्पणियों की गलत व्याख्या करने का खतरा बढ़ जाएगा.


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