NRC : पहले परिवार ने ठुकराया, अब इन पर देश से बेदखल होने का खतरा

असम में किन्नर यानि कि ट्रांसजेंडर को परिवार से सबंध साबित नहीं कर सकने से राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में स्थान नहीं मिला

NRC : पहले परिवार ने ठुकराया, अब इन पर देश से बेदखल होने का खतरा

असम के किन्नरों के नाम एनआरसी में शामिल नहीं किए गए हैं.

खास बातें

  • जैविक पिता के साथ संबंधों को साबित करने का कोई साधन नहीं
  • एनआरसी में ये प्रावधान भी नहीं है कि किन्नर उसमें अपना लिंग बता सकें
  • किन्नरों को एनआरसी में शामिल करने की अर्ज़ी पर 16 अगस्त को सुनवाई
गुवाहाटी:

असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) को लेकर जहां बहस छिड़ी हुई है वहीं असम में एक समुदाय ऐसा भी है जिसके सदस्यों को उनके अपने परिवारों ने तो ठुकरा ही दिया, अब देश से भी बेदखल होने का खतरा है. किन्नर यानि कि ट्रांसजेंडर को एनआरसी में स्थान नहीं मिला है. अब इस समुदाय की उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं.    

असम में NRC पर बहस छिड़ी हुई है, बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनमें कुछ सदस्यों के नाम ड्राफ़्ट में हैं तो कुछ के नहीं हैं, लेकिन किन्नरों के नाम NRC में सिरे से नदारद हैं. यही नहीं एनआरसी में ये प्रावधान भी नहीं है कि किन्नर उसमें अपना लिंग बता सकें. अब इनकी आख़िरी उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से लगी है जो किन्नरों को एनआरसी में शामिल करने की अर्ज़ी पर 16 अगस्त को सुनवाई करेगा.

किन्नर रिंकी 29 साल की है. वह जब दस साल की थी तभी उसने असम के लखीमपुर का अपना घर छोड़ दिया. हंसी उड़ाते पड़ोसियों और घरवालों की बेरुख़ी न झेल पाने के बाद से वह अपने जैसे अन्य किन्नरों के साथ रहती है. गुवाहाटी के मालीगांव इलाक़े में 37 साल की ज़ीना भी उसके साथ रहती है. दोनों ने NRC के लिए अर्ज़ी देने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहीं.

रिंकी कहती है कि ''मैंने दस साल की उम्र में घर छोड़ दिया. उसके बाद मैं अपनी तरह के लोगों में रही. जब एनआरसी की प्रक्रिया चल रही थी तो एक बार मैं ट्रेन में अपने परिवार वालों से मिली. उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया कि मेरा नाम शामिल करेंगे. लेकिन उसके बाद कोई जानकारी नहीं दी. मेरी तरह के सैंकड़ों हैं जो इसलिए सबूत नहीं दे पाए क्योंकि उनके परिवारों ने उन्हें त्याग दिया. लेकिन हम बांग्लादेशी नहीं हैं. ये हमारी मातृभूमि है,  इसलिए सरकार को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए.''

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किन्नर ज़ीना कहती है कि ''मेरे पास जो दस्तावेज हैं, उन दस्तावेजों में मेरे पास अभिभावक के रूप में मेरे  ट्रांसजेंडर गुरु का नाम है. हमारे पास हमारे जैविक पिता के साथ संबंधों को साबित करने का कोई साधन नहीं है.''

किन्नरों को उनकी नागरिकता ख़त्म होने के साथ-साथ गिरफ़्तार किए जाने या देश से बाहर भेजे जाने का भी ख़तरा है. साल 2011 की जनगणना में असम में 11,374 किन्नर थे और अब यह तादाद 20 हज़ार हो सकती है.
NRC के अधिकारियों ने कहा है कि वे वही नाम शामिल कर सकते हैं जो उन दस्तावेज़ों में हों जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने मंज़ूर किया है. कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस बारे में कोई साफ़ निर्देश नहीं है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट उनका आख़िरी सहारा है.

असम किन्नर संघ की संस्थापक स्वाति बिधान बरुवा ने बताया कि ''करीब 2000 किन्नरों ने अर्ज़ी दी है. ड्राफ़्ट में बहुत ही कम नाम आए क्योंकि उनके पास मौजूदा काग़ज़ात में नहीं हैं. उन्हें अपने घरों से विरासती दस्तावेज भी नहीं मिल सकते क्योंकि घर वाले उन्हें निकाल चुके हैं. इसलिए हमने सुप्रीम कोर्ट को अर्ज़ी दी और हमें उससे उम्मीद है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने ही देश में पहली बार किन्नरों की समस्याओं का हल किया था.'' गौरतलब है कि साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फ़ैसले में राज्यों को हिदायत दी थी कि किन्नरों के लिंग को पहचानें और उन्हें उनके अधिकार और फ़ायदे दें.

किस को भी असम के नागरिक रजिस्टर में नाम शामिल करने के लिए यह साबित करना होगा कि उसके माता-पिता 1971 से पहले असम में रहते थे. यह विरासती संबंध के माध्यम से साबित किया जा रहा है. लेकिन ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए एक मुश्किल काम है, क्योंकि उनमें से ज्यादातर के अपने परिवारों से संबंध टूट चुके हैं. अब इसस समुदाय को सुप्रीम कोर्ट से ही उम्मीद है.


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