युगों का यात्री: साहस ही किसी कवि को बड़ा बनाता है- नागार्जुन

तारानंद वियोगी- हमारी पीढ़ी नागार्जुन के सान्निध्य में बड़ी हुई थी. स्वयं मेरा भी दो वर्षों का समय उनकी संगत में बीता था. वह युवाओं में बहुत ही लोकप्रिय थे. उनमें ढेर सारी ऐसी बातें थीं जो लोगों को हैरत में डालतीं.

युगों का यात्री: साहस ही किसी कवि को बड़ा बनाता है- नागार्जुन

खास बातें

  • तानानंद वियोगी की नागार्जुन की जीवनी 'युगो का यात्री' प्रकाशित हुई
  • लेखक ने इस जीवनी के लिए एक लंबा और कठिन शोध कार्य किया
  • नागार्जुन हिंदी के जनकवि के रूप में हैं विख्यात
नई दिल्ली:

नागार्जुन ( Kavi Nagarjuna) एक जनकवि थे. वह जनता की भाषा में कविता करते थे और जनता के बीच जाकर ही उसका पाठ करते थे. इसके बारे में खुद नागार्जुन ने कहा था, 'जनता मुझसे पूछ रही क्या बतलाऊं/ जनकवि हूं, मैं साफ कहूंगा, क्यों हकलाऊं?' नागार्जुन ऐसे कवि थे जिनकr कमी हर दौर में, हर समय और हर समाज में महसूस की जा सकती है. इसी कमी को देखते हुए हिंदी में लगभग उपेक्षीय की शिकार हो चुकी जीवनी विधा में नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर किसी किताब का आना एक सुखद एहसास की तरह है. इस किताब को लिखा है तारानंद वियोगी ने. हाल ही में उनकी नागार्जुन की जीवनी 'युगो का यात्रा' (Yugo Ka Yatri) राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आई है. उनकी इसी किताब को लेकर NDTV ने उनसे खास बातचीत की. आप भी पढ़िए... 

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प्रश्न- आपने जनकवि नागार्जुन की जीवनी 'युगों का यात्री' लिखी. इस जीवनी में आपने कवि के जीवन की किन बातों को प्रमुखता दी है.

तारानंद वियोगी- हमारी पीढ़ी नागार्जुन के सान्निध्य में बड़ी हुई थी. स्वयं मेरा भी दो वर्षों का समय उनकी संगत में बीता था. वह युवाओं में बहुत ही लोकप्रिय थे. उनमें ढेर सारी ऐसी बातें थीं जो लोगों को हैरत में डालतीं. हमेशा उनमें अपनी पीढ़ी के लिए एक संकोच पाया जाता और वह मानते कि जो वे लोग नहीं कर सके, युवा और आनेवाली पीढ़ी और भी अधिक व्यापकता से पूरी करेगी. जमाने के जो तमाम बड़े लेखक थे उनके जीवन-व्यवहार के यह बिल्कुल उलट थी. फिर यह था कि जनमुद्दों, जनांदोलनों को लेकर उनके भीतर गहरा लगाव था. सत्ता चाहे वह धार्मिक हो या राजनीतिक, उसके प्रति शाश्वत विपक्ष-भाव हम उनमें पाते थे. कारण पूछने पर वह हमेशा जनता की ओर इशारा करते कि हम अगर साहित्य में कुछ अच्छा कर सकते हैं तो हमें जनता की ओर से, जनता की तरह सोचना चाहिए. साहित्य में व्यक्तिवाद का और अर्थव्यवस्था में मुक्तबाजार का प्रवेश तब तक हो चुका था. फिर भी वो ऐसे थे.

और क्या था कि वह हद दरजे के लोकतांत्रिक थे. यूं तो उन्हें वामपंथी बताया जाता है, लेकिन स्वयं वामपंथ के अलग-अलग धड़ों से उनका कश्मकश चलता रहता, इसी वजह से किसी भी प्रकार का वामपंथ हो, उन्हें संदेह की नजर से देखा जाता था. दकियानूसों का वह मजाक उड़ाते और उनकी बातों में इतनी ताजगी, इतना नयापन होता था जो हर किसी को चकित करता था. वह सच्चे दिल से कोशिश करते थे कि नयी पीढ़ी पनपे, आगे बढ़े. यह सब चीजें तब भी उनमें भरपूर थीं जब वह अस्सी बरस के बूढ़े थे. वह कैसे ऐसा बन सके, कौन-सी पृष्ठभूमि इसके पीछे है- यही मूल जिज्ञासा थी, जो हमें उनके जीवन की गहराई में झांकने को प्रेरित करती थी. इसके बहुत सारे कारण थे, जो इस किताब में विस्तार से आए हैं.
 
नागार्जुन का जीवन यायावरी का जीवन था. बुढ़ापे में भी वह यह कहते पाए जाते कि जब भी बीमार पड़ूं, किसी ट्रेन का टिकट कटाकर गाड़ी में चढ़ा देना, ठीक हो जाऊंगा.  जब वह सरकार की विकास-अवधारणा पर खिसियाते तो कहते कि यदि और कुछ भी करने में सरकार बिलकुल ही नाकाम है तो यही कर दे कि हर नागरिक को देश-भ्रमण करवा दे, इससे कूपमंडूकता तो खत्म होगी. काशी की विद्वत्परंपरा से निकलकर वह आर्यसमाज की तरफ गए, श्रीलंका जाकर बौद्ध बने, उधर से लौटकर आजादी की लड़ाई में शामिल हुए. भूमिगत रहकर वर्षों क्रांतिकारी किसान आन्दोलन में शामिल रहे, स्वामी सहजानंद और सुभाष बोस के साथ राजनीति की. देश के प्रधानमंत्रियों, सरकारों की हर जनविरोधी फैसले के खिलाफ आग उगलनेवाली कविताएं लिखीं, कितनी ही बार जेल में डाले गए, जब भी देश के अंदर, चाहे किसी भी प्रान्त में जनांदोलन छिड़ा, वह उसमें शामिल हुए. इस तरह से देखें तो आजादी के पहले और आजादी के बाद का जो भारत का सौ बरसों का इतिहास है, वह नागार्जुन के जीवन में मूर्तिमान था. यह सब चीजें इस किताब में आई हैं. हमारे एक विद्वान अध्येता त्रिपुरारि शरण ने तो उस दिन की गोष्ठी में कहा भी कि आज का जो युवा है वह यदि अपने देश के बनने-बिगड़ने का सौ बरस का सामाजिक सरोकारी इतिहास जानना चाहता है, तो शायद उसे और कहीं जाने की जरूरत नहीं होगी.

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प्रश्न- ऐसा कहा जा रहा है कि अब हिंदी में लेखकों और खासतौर से कवियों की जीवनी लिखने का कोई चलन नहीं रहा. फिर आपने क्या सोचकर यह जीवनी लिखी?

तारानंद वियोगी- इसके लिए तो सबसे पहले आपको रज़ा फाउन्डेशन और इसके ट्रस्टी अशोक वाजपेयी के प्रति आभारी होना चाहिए जिन्होंने अनेक बड़े कवियों, लेखकों की जीवनी लिखने की योजना बनाई और इसे क्रियान्वित किया. जहां तक इस जीवनी का सवाल है, आमतौर पर लेखक-कवि जैसे होते हैं नागार्जुन उनसे बहुत अलग थे. इस पर तो कई लोगों ने बहुत कुछ लिखा भी है, त्रिलोचन- जैसे कवियों ने तो कविता भी लिखी है. आप चाहे साहित्यिक हों या साहित्यिक न हों, नागार्जुन को कोई फर्क नहीं पड़ता था. जिन्हें हम नितांत तुच्छ मानते आए हैं, उनके गुणों की विरुदावली भी उनके पास पाई जाती थी. देश भर में जो उनके लाखों संपर्कित व्यक्ति थे, उनमें तमाम छोटे-बड़े धंधे करने वाले साधारण लोग थे, लेकिन जो सोच सकते थे और रिएक्ट करते थे. इस तरह देखें तो नागार्जुन की जीवनी 'भारतीय इंसानियत का इतिहास' भी है.

दूसरे, हमारे कई बड़े लेखक हुए जिनकी जीवनी लिखी गई और वो बहुत प्रसिद्ध भी हुई. इनमें शरदचंद्र, निराला और प्रेमचंद मुख्य हैं. आप देखेंगे कि समय के जो बड़े लेखक होते हैं वो केवल लिखते नहीं, अपने लिखे से अपनी भाषा की ताकत बढ़ाते हैं. जिन कुछ चीजों की अभिव्यक्ति के लिए अब तक भाषा में कोई शऊर नहीं थी, ऐसे बड़े लेखक वह जरूरी सामर्थ्य अपने लिखे से पैदा करते हैं. नागार्जुन इस कोटि के लेखक थे.

आमतौर पर राजनेताओं की जीवनी लिखी जाती है जिसके पीछे समझ यह होती है कि वह एक प्रयास की कथा होती है कि उन्होंने इस देश की बेहतरी के हक में कैसे सोचा. नागार्जुन के संदर्भ में देखें तो नेता की तो बात ही छोड़िए, खुद राजनीतिक दलों से भी एक ऊंची चीज वह एक लेखक को मानते थे, बशर्ते कि लेखक राजनीतिक रूप से सचेत हो और जनता से गहरे जुड़ा हो. वह कहते थे कि राजनीतिक दल जो फैसला लेता है उसके जस्टिफिकेशन में बताता है कि यह सैकड़ों दिमाग से किए गए चिंतन का नतीजा है. नागार्जुन मानते थे कि लेखक तो हजारों, लाखों दिमागों का प्रतिनिधि होता है. उसकी बात एकदम से अविचारणीय नहीं हो सकती. पैसे और पावर से नहीं, जनता से लगाव-जुड़ाव होने से ही कोई प्रतिनिधि पद हासिल कर सकता है. यह बड़ी बात इसलिए है कि बाकी सब को, बड़ों-बड़ों को भी तो थोड़े दिनों में मर-खप जाना है, लेकिन जनता तो रहेगी. वह तो सनातन है. नागार्जुन इस तरह सोचते थे और इसी को साधने की कोशिश में लगे रहते थे. आप भी मानेंगे कि ऐसे आदमी की एक जीवनकथा जनता के पास जरूर होना चाहिए.

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प्रश्न- इस जीवनी को लिखने के दौरान आपको किस प्रकार के अनुभवों से गुजरना पड़ा. कुछ उनके बारे में बताएं.

तारानंद वियोगी- नागार्जुन को गुजरे बीस साल से ज्यादा हो गए. इस बीच हमने उनकी शतवार्षिकी भी मनाई. इन तमाम वर्षों में सैकड़ों लोगों ने अलग-अलग मंचों पर यह जरूरत जाहिर की होगी कि उनकी जीवनी आनी चाहिए, लेकिन इस ओर कोई सचेष्ट न हो सका. वजह साफ है कि नागार्जुन के 87 वर्षों के जीवन में इतनी गति, इतने मोड़,  इतनी ज्ञात-अज्ञात संलग्नताएं थीं कि यह केवल चाह लेने से नहीं हो सकता था. नागार्जुन खुद भी मानते थे कि साहित्य में कोई शॉर्टकट नहीं होता. यह उनकी जीवनी लिखने में भी नहीं हो सकता था. मैंने कोशिश की. अच्छा लगा कि हमारे संपादक ने मेरी इस कोशिश के लिए चार कीमती शब्द प्रयुक्त किए हैं- श्रम, जतन, अध्यवसाय और खोज. इन सबका कोई शॉर्टकट नहीं हो सकता था.

इसके रचनानुभव की कुछ बातें मैंने किताब की भूमिका में लिखी हैं. एक प्रसंग आपको कहता हूं जो मेरी जिज्ञासा की दिशा का कुछ अंदाज दे सकती है. यह क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन में उनकी भागीदारी के दौर का मामला है. नागार्जुन की राजनीतिक दीक्षा कैसे हुई, उनके राजनीतिक विचारों के उत्स कहां हैं, इस बारे में पूछने पर वह बस एक लाइन बतलाते थे कि भइ, सोनपुर में महीने भर का 'समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' लगा था, उसमें भारत भर के तपे तपाए समाजवादियों ने क्लास लिया था, वहां हमने चीवर पहने भिक्षु नागार्जुन के रूप में महीने भर की पढ़ाई की थी. मतलब जो लिया वहीं से लिया. स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में खास तौर पर क्रान्तिकारी आन्दोलन में, ऐसे प्रशिक्षण-शिविर अक्सर चलाए जाते रहते थे, जिनका उद्देश्य आमजन को राजनीतिक रूप से सचेत करना होता था. नागार्जुन को देखें तो पाएंगे कि उनके राजनीतिक आदर्श इतने ऊंचे और निष्ठा इतनी गहरी थी कि वह पार्टी-नेतृत्व तक की परवाह करना, जरूरत पड़ने पर छोड़ सकते थे. यह ताकत उन्हें कहां से मिलती थी? कौन-से आदर्श थे उनके? उत्तर तो और भी स्रोतों से उपलब्ध है, लेकिन एक जीवनी-लेखक के लिए जरूरी था कि उस मास भर चले स्कूल का डिटेल ढूंढ़े. अब मुश्किल यह कि उतने विशाल, बहुआयामी स्वतंत्रता-संग्राम के भीतर इस महीने भर के स्कूल की भला क्या औकात हो सकती थी, इसलिए इस बारे में किताबों में, पत्रिकाओं में कुछ भी लिखा नहीं मिलता था. ऐसे में लाचार होकर मैंने पुराने सरकारी अभिलेखागारों में जा-जाकर सीआईडी रिपोर्ट की खोजबीन शुरू की. ब्रिटिश सरकार का खुफिया तंत्र बड़ा ही मजबूत था और इसकी जड़ें उन अशान्ति के दिनों में चारों ओर फैली थीं. खैर, उस स्कूल के बारे में डीआईजी, खुफिया का लंबा प्रतिवेदन तो मिला ही, ढेर सारी जनसभाओं में भिक्षु नागार्जुन के तथाकथित भड़काऊ भाषणों का सार भी मिला. आदि-आदि.

देश में अब भी हजारों लोग ऐसे हैं जिनके पास नागार्जुन के ढेर सारे अनमोल संस्मरण हैं. उनसे गुजरना आपको रोमांचित करता है क्योंकि वे इतने पॉजीटिव हैं कि हममें पुख्ता यकीन भरते हैं. किंतु, अन्तत: मुझे लिखित साक्ष्यों तक ही अपने को सीमित रखना पड़ा, क्योंकि किसी भी किताब के पृष्ठों की अपनी सीमा होती है. नागार्जुन जहां भी होते, बहुत डूबकर अपनी संपूर्णता में होते थे. इसकी वजह से यह होता कि अपने समय को, माहौल को वह अनिवार्य रूप से प्रभावित करते थे. इन सब प्रसंगों को उस युग में पहुंचकर और उनके साथ होकर देखना और उसे अनुभव करना बहुत रोचक अनुभव था. इसे मैं कभी नहीं भूल सकता. कहें कि अब यह मेरी दौलत है.

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प्रश्न- आपने इस जीवनी में नागार्जुन और महात्मा गांधी के संबंधों के बारे में भी लिखा है. आज महात्मा गांधी को लेकर जो बहस चल रही है उसे आप किस प्रकार देखते हैं?

तारानंद वियोगी- गांधी जी की हत्या पर नागार्जुन ने चार कविताएं लिखीं. उन कविताओं में उनका स्वर इतना तीखा था और उन्होंने ऐसे लोगों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था कि वह गिरफ्तार कर लिए गए, देश के आजाद हो चुकने के बावजूद. वे दिन ऐसे थे कि अलग-अलग जेलों में शाही ठाठ भोगता कैदी गोडसे बंद था और गोडसे पर गुस्सा करने वाले नागार्जुन भी बदमाश-गिरहकट की औकात में बंद थे. नागार्जुन ने इस पर भी कविता लिखी है. अपनी कविताओं में उन्होंने गोडसे का स्टेटस बताया है कि वो सिर्फ एक प्रहरी था, यानी कि अपने मालिक का चौकीदार. असल में इन सबकी जड़ में उद्दंड ब्राह्मणवाद है जिसका परम उद्देश्य देश को अंधेरे में गर्क रखना है ताकि असभ्य अमानवीय सामंतशाही अनंत काल तक आबाद रहे. इस किताब में प्रसंग आया है, और यहां फिर से दुहराता हूं कि अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में, मनुष्यता के इतिहास में गांधी का वजूद गोडसे के कल्पित राष्ट्रवाद से हजार गुना, लाख गुना ज्यादा मूल्यवान था. लेकिन, यह ब्राह्मणवाद का विवेक-स्तर है कि उसने गोली तड़तड़ा दी. इसके समानांतर आप भारतीय जनता का विवेक-स्तर नागार्जुन की अनेक कविताओं में देख सकते हैं. जैसे, एक उस कविता में जहां मरभुक्खों के हाथों में बंदूक देखकर जब एसडीओ की गुड़िया बीवी सपने में घिघियाती है तो उसका नौकर दिलासा देता है कि नाहक ही डर गयीं हुजूर, वह अकाल वाला थाना तो यहां से बहुत दूर है. यह नौकर भी मरभुक्खों के वर्ग का है, लेकिन यह उसका अपना विवेक-स्तर है.

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प्रश्न- नागार्जुन को मूलतः जनकवि कहा जाता है. हालांकि उन्होंने उपन्यास भी लिखें. ऐसा क्यों है कि उनके गद्य पर उतनी बात नहीं हो पाई जितनी कि पद्य पर?

तारानंद वियोगी- नागार्जुन ने कोई ऐसे-वैसे उपन्यास नहीं लिखे, वे इतने महत्वपूर्ण हैं कि आज वैश्विक स्तर पर कोई भारतीय उपन्यास को समझना चाहे तो प्रेमचंद के बाद दूसरे जो उपन्यासकार उसकी सबसे ज्यादा मदद कर सकेंगे वह नागार्जुन ही हैं. 'बलचनमा'(1952) के प्रकाशन के बाद ही वह हिन्दी के प्रथम श्रेणी के उपन्यासकारों में शामिल कर लिए गए थे. लेकिन क्या था कि नागार्जुन का जीवन, और उनकी रचनाशीलता प्रवाह की तरह थे. उपन्यास को किसी एक युग में, एक कालखंड में जाकर ठहर जाना होता है. आमजन से लगातार घिरे रहने, लगातार प्रवाह बन बहते रहने के कारण नागार्जुन बाद के दिनों में गद्य लिखने की सुविधा न पा सके, जबकि इसके लिए उनका मन सब दिन कसमसाता रहा. जहां तक उनके उपन्यासों पर उतनी बात न होने का प्रश्न है, मुझे तो लगता है कि हिन्दी कथालोचना के टूल्स ही इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं जो फैशन की चकाचौंध में इस तरह फंसे कि अविकसित रह गए. मर्म जानना हो तो हमें नागार्जुन के उन विदेशी अनुवादकों की बात सुननी चाहिए जिन्होंने उनके उपन्यासों के अनुवाद किए हैं और उन पर लहालोट हैं.

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प्रश्न- नागार्जुन अपने पूरे जीवन शासकीय निष्ठुरता से जूझते रहे. लेकिन आज के कवियों में ऐसा जुझारूपन दिखाई नहीं देता. ऐसा क्यों है?

तारानंद वियोगी- अपने युग को यदि आप अपनी कविताओं से प्रभावित करना चाहें तो इसके लिए दो चीजें नितान्त जरूरी हैं. एक तो आप समझौता-विरोधी हों, यानी कि अपने उसूलों से किसी हाल में न डिगेंगे, दूसरे आपको गुस्सा आना जरूरी है. नागार्जुन जब अपनी कविताई के बारे में कहते थे कि 'प्रतिहिंसा ही स्थायिभाव है मेरे कवि का.' -तो ऐसा नहीं कि वह आत्यन्तिक रूप से अपनी कविता के बारे में ही कह रहे थे, वह युग की श्रेष्ठ जनकविता की संहिता भी बता रहे थे.  वह अक्सर यह भी कहते पाए जाते कि साहस ही किसी कवि को बड़ा बनाता है.
          
प्रश्न- आपने जीवनी में स्वामी सहजानंद को नागार्जुन का गुरु बताया. इस गुरु-शिष्य संबंध को लेकर आपका क्या कहना हैं?

तारानंद वियोगी- नागार्जुन के जीवन में बहुत सारी परस्पर विरोधी चीजों का समुच्चय पाया जाता था. यूं सोचकर देखें तो स्वयं जीवन का ही यह स्वभाव होता है, यदि उसे ईमानदारी से जिया जा रहा हो, तो. वह गांधी के अनन्य प्रशंसक थे, जबकि उनके राजनीतिक गुरु सहजानंद थे, जो गांधी से मतान्तर के बाद, उन्हें पूंजीपतियों का हितसाधक धूर्त बनियां से अधिक न मानते थे. असल में, सीधी कार्रवाई पर सहजानंद का भरोसा था और अतिवादी-क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन के वह आदिपुरखा थे. जनता की दुर्गति उनके लिए सबसे बड़ा मसला होता था और इस हालत को बदलने किए चाहे जिस हद तक उतरना पड़े, वह इसके हामी थे. यही बात नागार्जुन को खींचकर उनके पास ले गई. भवितव्य देखिए कि जिस राहुल (सांकृत्यायन) से तोड़कर सहजानंद उन्हें खींच लाए थे, आगे वह राहुल भी सहजानंद के साथ आकर ही सक्रिय हुए. स्वामी जी ने नागार्जुन को उस चंपारण में किसान जागरण का काम सौंपा जो 'गांधीजी का बैनामा जिला' कहलाता था. यानी कि वहां की जनता गांधी के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकती थी और इधर राजनीति जो करनी थी वह गांधी के खिलाफ की जानी थी.

दूसरे यह भी था कि नागार्जुन आंख मूंदकर गुरुभक्ति करने वाले आदमी अपनी तरुणाई में भी नहीं थे. इसलिए टीका-टिप्पणी, आलोचना-प्रत्यालोचना चलती रहती थी दोनों के बीच. आजादी के बाद जो हमने जमींदारी उन्मूलन होते देखा, इसकी समूची पीठिका सहजानंद की कायम की हुई थी और हम साहित्यवाले गर्व कर सकते हैं कि इसमें हमारे कवियों, लेखकों की भी क्रियात्मक भूमिका भी रही. यह और बात है कि सत्ता पर जो लोग काबिज हुए उन्होंने कभी भी भूमिसुधार लागू नहीं होने दिया, क्योंकि यह तो उनके लिए अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ा मारना होता.

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प्रश्न- हाल के दिनों में कहा जाने लगा है कि हिंदी लेखक अपने जनमानस से कट गया है. आपको भी ऐसा लगता है?  

तारानंद वियोगी- हां, जरूर लगता है. नागार्जुन को भी लगने लगा था. हिन्दी प्रदेश की जो आज हम वैचारिक दरिद्रता देख रहे हैं, और यह तो अब इस देश के भविष्य को प्रभावित करने लगा है, वह ऐसे ही नहीं हो गया है. लेखक अपनी जनता का आप्त होता है. वह उसे छोड़ दे तो दोनों नष्ट होते हैं, क्योंकि यह संबंध पूरी तरह अन्योन्याश्रित है. यही हुआ है. चौरासी की उमर में थे तो एक बार नागार्जुन ने बताया था कि साहित्यिक गोष्ठियों से ज्यादा ताजगी उन्हें धोबीघाट पर मिलती है. वहां जीवन्तता के तत्व ज्यादा मिलते हैं. इस बात के मर्म पर विचार करना चाहिए.

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तारानंद वियोगी- अभी तो मैं मैथिली कविता के इतिहास पर काम रहा हूं. हजार वर्षों में एक समाज ने किस तरह से, कितने रूपों प्ररूपों में अपने को अभिव्यक्त किया, रोचक है यह सब देखना. फिर, नागार्जुन पर और जो ढेर सारी सामग्रियां जमा हैं, उन्हें लेकर कुछ करना है. संभव है कि आगे 'युगों का यात्री' का दूसरा भाग भी आए. लेकिन, मेरी असल योजना जातीय उपन्यासों को लेकर है. कि कैसे एक ही समय कई-कई अन्तर्धाराएं चलती रहती हैं और किन वजहों से कुछ प्रमुखता प्राप्त कर लेतीं, बाकी को पीछे ढकेल देती हैं, फिर वो चीजें अपने लिए कैसे स्पेस बनाती रहती हैं. आदि-आदि. लिखूंगा अभी. अभी मेरे पास बहुत चीजें हैं.