'MAM' फैक्टर क्या राहुल गांधी को बैकफुट पर ला देगा? जानें कैसे हो सकता है यह कांग्रेस की राह में सबसे बड़ा रोड़ा

Lok Sabha Election 2019: लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जिस तरह से मीडिया की सुर्खियों में ममता, मायावती और अखिलेश रहे हैं, उससे यह स्पष्ट है कि चुनाव सिर्फ मोदी बनाम राहुल गांधी नहीं होगा, बल्कि सियासत के केंद्र में ये तीन नाम भी होंगे. 

'MAM' फैक्टर क्या राहुल गांधी को बैकफुट पर ला देगा? जानें कैसे हो सकता है यह कांग्रेस की राह में सबसे बड़ा रोड़ा

Lok Sabha Polls : राहुल गांधी (फाइल फोटो)

खास बातें

  • लोकसभा चुनाव से पहले ममता की सक्रियता भी बहुत कुछ कहती है.
  • ममता बनर्जी, मायावती और अखिलेश कांग्रेस के बिना चुनाव लड़ रहे हैं.
  • अगर विपक्ष की एकता की सरकार बनी तो इनकी भूमिका हो सकती है अहम.
नई दिल्ली:

लोकसभा चुनाव 2019 (Lok Sabha Election 2019) की औपचारिक मुनादी से पहले सियासी नफा-नुकसान के आंकलन में सभी पार्टियां जुटी हैं. कुछ पार्टियां लोकसभा चुनाव के अखाड़े में लड़ने का शंखनाद कर चुकी हैं तो कोई अब भी सीटों के समीकरण सुलझने का इंतजार कर रही हैं. लोकसभा चुनाव से पहले यूपी की सियासत में बसपा-समाजवादी पार्टी के गठबंधन का ऐलान, बंगाल में विपक्ष की एकजुटता के बहाने ममता बनर्जी का मोदी सरकार के खिलाफ हल्लाबोल और सीबीआई बनाम कोलकाता पुलिस मामले के जरिये बंगाल को राजनीति के केंद्र में लाने के घटनाक्रम ने एक बार फिर से इस ओर इशारा किया है कि इस बार का लोकसभा चुनाव त्रिशंकु हो सकता है. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जिस तरह से मीडिया की सुर्खियों में ममता, मायावती और अखिलेश रहे हैं, उससे यह स्पष्ट है कि चुनाव सिर्फ मोदी बनाम राहुल गांधी नहीं होगा, बल्कि सियासत के केंद्र में ये तीन नाम भी होंगे. 

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दरअसल, यूपी में मायावती और अखिलेश यादव ने आपस में हाथ मिलाकर और कांग्रेस को अलग रखकर यह बताने की कोशिश की है कि इस बार अगर विपक्ष की सरकार बनती है तो इसमें क्षेत्रीय दलों की अहम भूमिका होगी. मायावती और अखिलेश यादव ने बसपा-सपा गठबंधन कर न सिर्फ पहले कांग्रेस को झटका दिया, बल्कि यूपी की राजनीति में भाजपा बनाम सपा-बसपा गठबंधन को केंद्र में ला दिया. यूपी में खुद को नेपथ्य में पाकर ही राहुल गांधी और कांग्रेस नेतृत्व ने प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रभार दिया. यूपी में हुए लोकसभा उपचुनावों में जिस तरह से बसपा-सपा के पक्ष में परिणाम दिखे थे, उससे बसपा-सपा गठबंधन को एक बल मिला था. 

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उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं. बीजेपी पिछले चुनाव में 71 सीटों पर विजयी रही थी. मगर सपा-बसपा गठबंधन के बाद बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो गई हैं. क्योंकि 2014 लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. कांग्रेस भी अकेली ही थी. इसके अलावा मोदी लहर भी उस वक्त अपने शबाब पर था, जिसका कुल मिलाकर भाजपा को खूब फायदा हुआ और बीजेपी 80 में से 71 सीटें अपने नाम करने में कामयाब रही. हालांकि, अब बसपा-सपा के एक हो जाने से मुकाबला काफी कड़ा हो गया है. दोनों पार्टियों के एक साथ आने से चुनाव में सीटों का फायदा उन्हें जरूर मिलेगा और अगर सपा-बसपा गठबंधन ज्यादा सीट जीतता है तो एक बार फिर से केंद्र की सत्ता के केंद्र में मायावती और अखिलेश यादव हो सकते हैं.

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मायावती और अखिलेश यादव इसलिए भी लोकसभा चुनाव 2019 में अपनी छाप छोड़ सकते हैं क्योंकि पिछले चुनाव में भले ही बसपा को एक भी सीट नहीं मिल पाई हो, मगर उसके वोट फीसदी सपा के करीब और कांग्रेस से अधिक थे. 2014 लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और उसने 80 में से 71 सीटें जीत कर सबको चौंका दिया था. उस वक्त 71 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने रिकॉर्ड करीब 42 फीसदी वोट हासिल किए थे. वहीं, समाजवादी पार्टी के खाते में करीब 22 फीसदी वोटों के साथ 5 सीटें आई थीं. 2014 में मायावती की बसपा को एक भी सीट नहीं मिल पाई थी, मगर उसके करीब 20 फीसदी वोट थे. वहीं, कांग्रेस ने रायबरेली और अमेठी की सीटें जीती थीं और उसने करीब 7 फीसदी वोट शेयर हासिल किए थे. लेकिन यूपी में इस बार अखिलेश यादव और मायावती का दबदबा हो सकता है, क्योंकि दोनों पार्टियों ने बराबर बराबर सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. इसकी एक वजह यह भी है कि दोनों के साथ होने से पहले जातियों के वोट बंट जाते थे, अब वह इकट्ठे पड़ेंगे. अगर सपा-बसपा के वोट शेयर को मिला दिया जाए तो यह करीब 40 फीसदी के आस-पास बैठता है, जो 2014 के मुकाबले में बीजेपी के बराबर है. अब अगर इसी वोट शेयर से सीटों की जीत का अनुमान लगाया जाए तो हो सकता है कि 2019 में सपा-बसपा गठबंधन का आधे से ज्यादा सीटों पर कब्जा हो जाए. 

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वहीं, बंगाल भी आज कल राजनीति की केंद्र में है. पहले कोलकाता में विपक्षी एकता रैली और फिर सीबीआई बनाम कोलकाता पुलिस विवाद ने न सिर्फ पश्चिम बंगाल को राजनीति की केंद्र में ला दिया, बल्कि खुद ममता बनर्जी भी अभी सियासत की केंद्र में विपक्ष की ओर से सबसे बड़ी नेता के रूप में खड़ी हैं. ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बड़ा सियासी दांव चलकर कांग्रेस को यह बताने की कोशिश की है कि विपक्षी एकता की जहां भी बात होगी, वहां उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ममता बनर्जी ने सीबीआई मामले पर भी जिस तरह से विपक्ष का समर्थन हासिल किया, वह यह बताता है कि अगर लोकसभा चुनाव के बाद विपक्ष की महागठबंधन की कवायद से सरकार बनती है तो ममता बनर्जी फ्रंटलाइन में रहेंगी. 

भले ही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया है, बावजूद इसके कांग्रेस उन्हें नजरअंदाज नहीं कह सकती. क्योंकि कांग्रेस इस ताक में होगी कि अगर चुनाव बाद गठबंधन कर सरकार बनाने की नौबत आती है तो ऐसे वक्त में ममता बनर्जी, मायावती और अखिलेश यादव ही उनके साथी बनेंगे. ममता बनर्जी भी कांग्रेस की इस मजबूरी को समझ रही हैं, यही वजह है कि वह अभी फ्रंटफुट से खेल रही हैं. पश्चिम बंगाल की 42 सीटों पर ममता बनर्जी अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी हैं. इसका मतलब है कि अखिलेश और मायावती की तरह ही ममता बनर्जी भी चाहती हैं कि चुनावी मैदान में अकेले उतरकर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीती जाएं ताकि चुनाव बाद विपक्ष की ओर से सरकार बनने की स्थिति में कांग्रेस से तोलमोल अच्छे से किया जाए. 

हालांकि, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर मायावती, अखिलेश और ममता की पार्टी का लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन बेहतर होता है और अगर उन्हें अच्छी संख्या में सीटें मिल जाएंगी, तो यह राहुल गांधी की प्रधानमंत्री के रूप में दावेदारी पर भी खतरा हो सकता है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि मायावती, अखिलेश और ममता बनर्जी ने अभी तक एक बार भी राहुल की पीएम के रूप में दावेदारी पर कुछ नहीं कहा है. बजाय इसके ये लोग कई बार यह बात दोहरा चुके हैं कि महागठबंधन की ओर से पीएम पद के लिए चुनाव बाद चयन होगा. इससे साफ संकेत है कि मायावती, अखिलेश और ममता का ज्यादा से ज्यादा सीटें जितना कांग्रेस के लिए भी सिरदर्द से कम नहीं होने वाला है. 

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