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This Article is From Dec 11, 2019

Ayodhya Case : शिया वक्फ बोर्ड और हिंदू महासभा ने मस्जिद के लिए जमीन देने का विरोध किया, 18 याचिकाएं; कल सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या जमीन विवाद मामले में नौ नवंबर को दिए गए फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए याचिकाएं

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Ayodhya Case : शिया वक्फ बोर्ड और हिंदू महासभा ने मस्जिद के लिए जमीन देने का विरोध किया, 18 याचिकाएं; कल सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट.
नई दिल्ली:

अयोध्या मामले (Ayodhya Case) में दाखिल पुनर्विचार याचिकाओं (Review Petition) पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में गुरुवार को सुनवाई होगी. यह सुनवाई चेंबर में होगी. सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या जमीन विवाद मामले में नौ नवंबर को अपना फैसला सुनाया था. अदालत ने विवादित जमीन रामलला को यानी राम मंदिर बनाने के लिए देने का फैसला किया था. अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की विशेष पीठ के 9 नवम्बर के फैसले पर पुनर्विचार के लिए कुल 18 याचिकाएं दाखिल की गई हैं. इनमें 9 याचिकाएं पक्षकारों की ओर से हैं और बाकी नौ अन्य याचिकाकर्ता हैं.

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चूंकि ये रिप्रेजेंटेटिव सूट यानी प्रतिनिधियों के जरिए लड़ा जाने वाला मुकदमा है, लिहाजा सिविल यानी दीवानी मामलों की संहिता सीपीसी के तहत पक्षकारों के अलावा भी कोई पुनर्विचार याचिका (Review Petition) दाखिल कर सकता है. फैज़ाबाद कोर्ट के 1962 के आदेश के मुताबिक सीपीसी के ऑर्डर एक रूल आठ के तहत कोई भी नागरिक पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकता है.

अयोध्या भूमि विवाद (Ayodhya Case) में नौ नवंबर के फैसले पर पुनर्विचार के लिए दायर याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) बृहस्पतिवार को चैंबर में विचार करेगा. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस संजीव खन्ना  की पांच जजों की पीठ मामले की सुनवाई करेगी. यह सुनवाई दोपहर 1.45 पर होगी. पहले इस बेंच की अगुवाई करने वाले चीफ जस्टिस रंजन गोगोई रिटायर हो चुके हैं. जस्टिस संजीव खन्ना ने उनकी जगह ली है.

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अयोध्या के रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद विवाद मामले (Ayodhya Case) में पुनर्विचार याचिकाओं (Review Petition) पर सुनवाई चेंबर में होगी. सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) या तो मेरिट के आधार पर तय करेगा या फिर यह तय करेगा कि वह खुली अदालत में इनकी सुनवाई करेगा या नहीं.

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दरअसल 9 नवंबर को सर्वसम्मति से फैसले में तत्कालीन सीजेआई न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने पूरी 2.77 एकड़ विवादित भूमि देवता 'राम लला' के पक्ष में दी और केंद्र को सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या में 5 एकड़ जमीन देने का निर्देश दिया. इस मामले में 18 पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल की गई हैं.

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सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के समर्थन से अयोध्या विवाद पर चार पुनर्विचार याचिकाएं दायर की हैं. इन याचिकाओं में कहा गया है कि फैसला 1992 में मस्जिद ढहाए जाने को मंजूरी देने जैसा है. अवैध रूप से रखी गई मूर्ति के पक्ष में फैसला सुनाया गया. अवैध हरकत करने वालों को ज़मीन दी गई.  हिंदुओं का कभी वहां पूरा कब्ज़ा नहीं था. मुसलमानों को पांच एकड़ जमीन देने का फैसला पूरा इंसाफ नहीं कहा जा सकता. सुप्रीम कोर्ट 9 नवंबर के फैसले पर रोक लगाए. मामले पर दोबारा विचार करे.

मिसबाहुद्दीन, मौलाना हसबुल्ला, हाजी महबूब और रिजवान अहमद द्वारा पुनर्विचार याचिकाएं दायर की गई हैं. अगर खुली अदालत में सुनवाई हुई तो इन सभी याचिकाओं में वकील राजीव धवन होंगे. याचिकाओं में कहा गया है कि ये याचिकाएं  शांति और सद्भाव में खलल डालने के लिए नहीं बल्कि न्याय हासिल करने के लिए दाखिल की गई हैं. मुस्लिम संपत्ति हमेशा ही हिंसा और अनुचित व्यवहार का शिकार हुई है. फैसले में 1992 में मस्जिद के ढहाए जाने का फायदा दिया गया है. अवैध रूप से रखी गई मूर्ति कानूनी रूप से वैध नहीं हो सकती और इसके पक्ष में फैसला सुनाया गया है. सुप्रीम कोर्ट का नौ नवंबर का फैसला बाबरी मस्जिद के  विनाश, गैरकानूनी तरीके से घुसने और कानून के शासन के उल्लंघन की गंभीर अवैधताओं को दर्शाता है. निर्विवाद तथ्य यह है कि हिंदू कभी भी एक्सक्लूसिव कब्जे में नहीं रहा. अवैधता में पाए गए सबूतों के आधार पर हिंदूओं ने दावा किया है.

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याचिकाओं में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के पांच एकड़ जमीन देने के फैसले पर भी सवाल उठाया गया है. कहा गया है कि पूजा स्थल को नष्ट करने के बाद ऐसा कोई "पुनर्स्थापन" नहीं हो सकता. यह कोई कामर्शियल सूट नहीं था बल्कि सिविल सूट था. सुप्रीम कोर्ट का ये निष्कर्ष त्रुटिपूर्ण है कि यह दिखाने के लिए सबूत हैं कि हिंदुओं ने मस्जिद के परिसर में 1857 से पहले पूजा की थी. यह दिखाने के लिए सबूत हैं कि मुस्लिम 1857 और 1949 के बीच आंतरिक आंगन के एक्सक्लूसिव कब्जे में थे. कोर्ट के ये निष्कर्ष सही नहीं हैं कि मस्जिद पक्ष प्रतिकूल कब्जे को साबित करने में सक्षम नहीं रहा.

जमीयत उलेमा ए हिन्द के समर्थन से सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की गई है. इसमें सुप्रीम कोर्ट से 9 नवंबर के फैसले पर पुनर्विचार करने की मांग की गई है. यह याचिका एम सिद्दीक की ओर से दाखिल की गई है. याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष सही नहीं है कि यह दिखाने के लिए सबूत हैं कि हिंदुओं ने मस्जिद के परिसर में 1857 से पहले पूजा की थी. ये भी निष्कर्ष सही नहीं कि यह दिखाने के लिए सबूत हैं कि मुस्लिम 1857 और 1949 के बीच आंतरिक आंगन के  कब्जे में थे. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निष्कर्ष में कहा था कि मस्जिद पक्ष प्रतिकूल कब्जे को साबित करने में सक्षम नहीं रहा और ये भी सही नहीं है.

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याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने एएसआई की रिपोर्ट में पढ़ा था कि यह निष्कर्ष निकाला गया था कि मस्जिद खाली भूमि पर नहीं आई थी बल्कि एक गैर-इस्लामी संरचना के खंडहरों पर जो कि 10 वीं शताब्दी के बड़े पैमाने पर हिंदू ढांचे से मिलती जुलती थी. ये भी सही नहीं है. कोर्ट ने यात्रियों, इतिहासकारों और लेखकों के खातों के रूप में हिंदू पक्ष द्वारा दिए गए सबूतों को स्वीकार किया लेकिन हमारे द्वारा सुसज्जित एक ही साक्ष्य को अनदेखा कर दिया. कोर्ट ने एक निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कहा कि मुसलमानों ने यह बताने के लिए कोई सबूत नहीं दिया है कि वे 1857 से पहले के आंतरिक प्रांगण के अनन्य कब्जे में थे, जो कि सही नहीं है.

याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस निष्कर्ष पर गलती की है कि हिन्दू लोग निर्विवाद रूप से मस्जिद के अंदर पूजा करते थे जो भीतर के गर्भगृह को भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं. मुस्लिम पक्ष को अनुच्छेद 143 के तहत मुस्लिम पक्ष को पांच एकड़ जमीन देने का फैसला भी सही नहीं है.जमीयत ने कोर्ट के फैसले के उन तीन बिंदुओं को फोकस किया है जिसमें ऐतिहासिक गलतियों का ज़िक्र है. लेकिन फैसला इनके ठीक उलट आया. अव्वल तो ये कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि इस बात के पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी.
दूसरा ये कि 22-23 दिसंबर 1949 की रात आंतरिक अहाते में मूर्तियां रखना भी गलत था. 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा तोड़ना भी गलत था. लेकिन इन गलतियों पर सज़ा देने के बजाय उनको पूरी ज़मीन दे दी गई. लिहाज़ा कोर्ट इस फैसले पर फिर से विचार करे.

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अखिल भारत हिंदू महासभा ने भी सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में पुनर्विचार याचिका दाखिल की है. याचिका में सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ जमीन दिए जाने के फैसले पर पुनर्विचार करने की मांग की गई है. याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के अनुच्छेद 142 के तहत मुस्लिम पक्ष को पांच एकड़ जमीन देने का फैसला सही नहीं है क्योंकि ये एक सिविल सूट था. जब कोर्ट ने डिक्री रामलला को दी है तो इस तरह वैकल्पिक जमीन देने का कोई औचित्य नहीं है. याचिका में यह भी कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने नौ नवंबर के फैसले में ढांचे को मस्जिद बताया है, वो भी सही नहीं है क्योंकि कोर्ट ने खुद माना है कि इसके नीचे मंदिर था. जब पांच जजों की पीठ ने वक्फ बोर्ड को हकदार नहीं माना को ढांचे को मस्जिद कैसे कहा जा सकता है.

याचिका में सुप्रीम कोर्ट की उन टिप्पणियों पर भी सवाल उठाए हैं जिसमें कहा गया था कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाया जाना कानून के खिलाफ था. वकील विष्णु जैन द्वारा दाखिल याचिका में हिंदू महासभा का कहना है कि कोर्ट को इन टिप्पणियों को हटाना चाहिए क्योंकि इसका सीधा असर लखनऊ की विशेष सीबीआई अदालत में चल रहे आपराधिक साजिश के ट्रायल पर पड़ेगा.

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इस मामले में शिक्षाविद और एक्टिविस्ट भी सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) पहुंच गए हैं. उन्होंने राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद मामले में 9 नवंबर के फैसले पर पुनर्विचार याचिका दाखिल की है. अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक व एक्टिविस्ट और पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर प्रमुख याचिकाकर्ता हैं. इस याचिका के प्रमुख नामों में इतिहासकार इरफान हबीब, लेखिका फराह नकवी, समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर, एक्टिविस्ट शबनम हाशमी, आकार पटेल, कवि और वैज्ञानिक गौहर रजा, लेखक नटवर बधवार, अर्थशास्त्री जयति घोष, इतिहासकार तनिका सरकार व सेवानिवृत्त राजनयिक और आम आदमी पार्टी की पूर्व सदस्य मधु भादुड़ी शामिल हैं.

याचिका में कहा गया है कि फैसले में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले को भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवाद के रूप में माना गया है. जबकि ये मामला स्वयंभू संगठनों के बीच था जो हिंदुओं और मुसलमानों की भावनाओं और हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं. लेकिन ऐसा करने के लिए कोई स्पष्ट जनादेश नहीं है, न ही अनुभवजन्य साक्ष्य है कि वे इन धर्मों के लोगों का व्यापक समर्थन करते हैं. फैसले में मुकदमेबाजों और संगठनों के नाम “हिंदू" या "मुस्लिम" के रूप में लिए गए हैं. इस मामले में अपनी याचिका को सही ठहराते हुए एक्टिविस्ट का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही हिंदुओं और मुसलमानों के विश्वास के बारे में एक बहस के लिए स्वामित्व और संपत्ति पर कब्जे के लिए एक टाइटल सूट में मामले के दायरे का विस्तार किया है. लेकिन इस मामले में याचिकाकर्ताओं से अलग हिंदू और मुसलमानों को कभी नहीं सुना. ऐसा करने से इसने प्रत्येक भारतीय को टाइटल सूट के मुद्दे पर अदालत से राहत पाने का अधिकार दिया है.याचिका में 9 नवंबर के फैसले पर भी सवाल उठाए गए हैं और कहा गया है कि ये फैसला एक पक्ष की ओर झुकता नजर आ रहा है.

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निर्मोही अखाड़ा ने भी सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में पुनर्विचार याचिका दाखिल की है. अखाड़ा ने याचिका में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने 9 नवंबर के फैसले में केंद्र को राम मंदिर निर्माण के लिए बनने वाले ट्रस्ट में इसे पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने का निर्देश दिया था. निर्णय के बाद एक महीने से अधिक समय बीत चुका है लेकिन अब तक इसकी भूमिका और प्रतिनिधित्व को परिभाषित नहीं किया गया है. अखाड़ा इस संबंध में स्पष्टीकरण चाहता है.याचिका में विवादित अधिगृहीत 2.77 एकड़ जमीन के बाहर इसके स्वामित्व वाले कई मंदिरों को वापस करने की मांग की भी की गई है.

पीस पार्टी ने भी  सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में पुनर्विचार याचिका दाखिल की है. याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला पूरी तरह से एएसआई रिपोर्ट पर आधारित है न कि तथ्यों पर. सन 1949 तक कब्ज़ा हमेशा मुस्लिमों के पास था और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 110 का  इसमें पालन नहीं किया गया. हिंदू पक्षकारों द्वारा झूठ बोला गया. केंद्रीय गुंबद के नीचे मस्जिद में 1949 तक नमाज अदा की गई थी, और 1949 से पहले वहां कोई मूर्ति नहीं थी. 1949 से पहले कोई भी हिंदू प्रार्थना नहीं करता था. एएसआई द्वारा कोई सबूत नहीं दिया गया है कि वहां मंदिर था जो राम को समर्पित था. सन 1885 में राम चबूतरा राम मंदिर था जो बाबरी मस्जिद का बाहरी आंगन है. इसमें मुस्लिम पक्ष का आंतरिक आंगन का  अधिकार था. लेकिन हाल के फैसले में यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित नहीं किया गया है.

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अयोध्या मामले में शिया वक्फ बोर्ड ने भी सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में पुनर्विचार याचिका दाखिल की है. इसमें सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए पांच एकड़ जमीन देने का विरोध किया गया है. कहा गया है कि अगर जमीन दी भी जाती है तो वह अयोध्या से बाहर हो और मस्जिद के लिए नहीं बल्कि अस्पताल आदि के लिए हो.

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