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सुधीर जैन

सागर विश्वविद्यालय से अपराधशास्त्र व न्यायालिक विज्ञान में स्नातकोत्तर के बाद उसी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर रहे, Ph.D. के लिए 307 सज़ायाफ़्ता कैदियों पर छह साल तक शोधकार्य, 27 साल 'जनसत्ता' के संपादकीय विभाग में रहे, सीएसई की नेशनल फैलोशिप पर चंदेलकालीन तालाबों के जलविज्ञान का शोध अध्ययन, देश की पहली हिन्दी वीडियो मैगज़ीन के संस्थापक निदेशक, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनोलॉजी एंड फॉरेंसिक साइंस और सीबीआई एकेडमी के अतिथि व्याख्याता, विभिन्न विषयों पर टीवी पैनल डिबेट. विज्ञान का इतिहास, वैज्ञानिक शोधपद्धति, अकादमिक पत्रकारिता और चुनाव यांत्रिकी में विशेष रुचि.

  • दुनिया के तमाम देशों में आर्थिक वृद्धि की संभावना की अटकल लगाना बहुत ही मुश्किल काम है. यही काम रेटिंग एजेंसी मूडी करती है. यह दुनिया की तीन बड़ी एजेंसियों में से एक है और अपने शोध सर्वेक्षण के ज़रिए निवेशकों का मूड बनाने बिगाड़ने का काम करती है. यह एजेंसी 14 साल से भारत की रेटिंग बहुत ही खराब बताती आ रही थी. इस बार उसने सुधरी हालत का अनुमान दिखाया है.
  • जीएसटी की भी नोटबंदी जैसी गत बन रही है. नोटबंदी में जिस तरह से रोज़रोज़ रद्दोबदल करने पड़े थे उसी तरह से जीएसटी में भी शुरू हो गए. नोटबंदी में जैसी बार बार बदनामी हुई थी वैसी अब जीएसटी में होने लगी.
  • गुजरात चुनावी सनसनी फैलाने में शुरू से मशहूर रहा है. एक समय था जब गुजरात को सांप्रदायिक विचारों के क्रियान्वयन की प्रयोगशाला कहा जाता था. गुजरात ही है जहां धर्म आधारित मुद्दों को ढूंढने और ढूंढकर पनपाने के लिए एक से एक विलक्षण प्रयोग हमें देखने को मिले. लेकिन यह भी एक समयसिद्ध तथ्य है कि चुनावी राजनीति में एकरसता नहीं चल पाती.
  • अगर यह मानकर चलें कि विदेशी निवेशक किसी देश की रैंकिंग देखकर निवेश करते हैं तो 190 देशों के बीच भारत का रैंक टॉप टेन या टॉप फिफ्टी नहीं बल्कि सौवां है. सो इसी आधार पर किसी कारोबारी को किसी देश में निवेश का फैसला लेना हो तो वे रैंकिग में हमसे बेहतर दूसरे 99 देशों को पहले क्यों नहीं सोचेंगे. हां, अगर यह माना जाए कि विदेशी निवेश के लिए बहुत सारी बातों के अलावा ये सुगमता वाला पहलू भी एक है फिर जरूर विश्‍व बैंक की यह रैंकिग हमारे काम आ सकती है.
  • सालभर होने को आया लेकिन अब तक पुराने नोटों की गिनती का काम चालू बताना पड़ रहा है. पुराने नोटों के असली नकली होने के सत्यापन का काम भी अधूरा है. जब आंकड़े ही न हों तो नोटबंदी की सफलता विफलता की बात कैसे हो? सरकार अपने फैसले के सही होने का प्रचार कर रही है. और विपक्ष इस फैसले के भयावह असर होने के तर्क दे रही है. नोटबंदी के एक साल गुज़रने के दिन यानी आठ नवंबर को विपक्ष काला दिवस मनाएगी और सरकार जश्न. जनता इस विवाद की चश्मदीद बनेगी. वैसे शुरू से ही भुक्तभोगी जनता इस प्रकरण में मुख्य पक्ष है. सो उसे नोटबंदी के फायदे और नुकसान का हिसाब लगाने में ज्यादा दिक्कत आएगी नहीं. मसला इतना लंबा चौड़ा है कि जनता लाखों करोड़ की संख्या का अनुमान तक नहीं लगा सकती. इसीलिए इस हफ्ते कालादिवस और जश्न के दौरान होने वाले तर्क वितर्क के दौरान उसे जागरूक होने का मौका एकबार फिर मिलेगा.
  • सरकारी अफसरों और नेताओं को आसानी से कटघरे में न लाया जा सके इसकी तैयारी राजस्थान सरकार की तरफ से शुरू हो रही है.
  • बुधवार को बैठक हुई. उम्मीद थी कि इस बैठक के बाद किसी गेम चेंजर कार्यक्रम चालू करने की सलाह निकलकर आएगी. लेकिन बैठक के बाद इसके अध्यक्ष विवेक देबराय ने जो बताया उसे सुनकर मीडिया चौंक गया.
  • मोटे तौर पर साहित्य को हम कला का एक रूप मानते हैं. जिस तरह कला की समीक्षा के आधार नहीं बन पाए हैं, उसी तरह साहित्य की समीक्षा के लिए भी स्पष्‍ट आधार उपलब्ध नहीं हैं. एक अवधारणा रूपी आधार जरूर मिलता है कि कला का सौंदर्य पक्ष और उपयोगिता या उपादेयता वाला पक्ष देख लिया जाए.
  • संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि ने पूरे पाकिस्तान को 'टेररिस्तान' कह दिया. भले ही यह सिर्फ कूटनीतिक बात हो लेकिन अपने देश के कई विद्वानों और वरिष्ठ पत्रकारों ने बड़ी संजीदगी से इसका आगा-पीछा देखा है.
  • राजनीति में भाषा की मर्यादा पर अब चिंता जताने वालों की तादाद बढ़ने लगी है. लोकतंत्र के भविष्य के लिए यह प्रवृत्ति कितनी घातक थी.
  • कोई भाषा यह दावा नहीं कर सकती कि उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है. क्योंकि भाषा संप्रेषण का एक माध्यम है. संप्रेषण का मतलब है कि जिससे बात की जाए उसकी समझ में आए. इसीलिए दो अलग अलग भाषाओं के बीच संप्रेषण की पहली शर्त है कि दोनों के बीच की एक और भाषा का निर्माण हो. कालक्रम में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश के रूप बदलती हुई आज हिंदी तक आई अपनी भाषा कोई अपवाद नहीं है.
  • गौरी की हत्या के पीछे क्या चोरी, लूट या डकैती का मकसद दिखता है? अब तक के परिस्थिति जन्य साक्ष्यों में ऐसी कोई बात नज़र नहीं आती. रंजिश के लिहाज़ से देखें तो कुछ अंदेशे जरूर जताए जा सकते हैं. लेकिन ये रंजिश रुपए पैसे या ज़मीन जा़यदाद को लेकर हो इसका भी कोई संकेत अभीतक नहीं मिला. इस हत्याकांड से जो लोग चिंतित हैं वे बार बार यही कह रहे हैं कि गौरी एक पत्रकार थीं और उनकी पत्रकारिता से कुछ लोग नाराज़ थे.
  • जो भी निष्ठावान शिक्षक समाज है वह अपने को दुविधा में पाता है. उसे जब खुद ही लगने लगता है कि उसका किया शिक्षाकर्म न तो समाज के काम आ रहा है और और न ही उसके छात्र को रोजगार या आजीविका का साधन दे पा रहा है वैसी स्थिति में अपनी शिक्षा प्रणाली और उसकी धुरी शिक्षक की दुविधा पर विमर्श क्यों नहीं होना चहिए.
  • डेरा सच्‍चा सौदा प्रमुख बाबा गुरमीत राम रहीम को सज़ा ने देश के माहौल में कितना फर्क़ डाला है? इस सवाल पर सोचना शुरू करें तो हमें अपनी दंड नीति की समीक्षा करनी पड़ेगी. एक अपराधशास्त्री की हैसियत से यहां सिर्फ उन बातों की चर्चा करना ठीक होगा जो विवादास्पद न हों.
  • राजसत्ता और धर्म सत्ता के बीच की जटिलताओं का एक भरा पूरा राजनीतिक इतिहास है. अब तक यह राजनीतिक चिंतन का ही विषय था लेकिन डेरा प्रकरण ने इसे न्यायिक क्षेत्र का विषय भी बना दिया. अब तक यह गंभीर विषय माना जाता था.
  • देश में आए दिन बड़े-बड़े ट्रेन हादसे वाकई चिंता की बात है. खतौली में भयावह ट्रेन हादसे से असुरक्षा का डर बैठ गया था. लेकिन हद ये हो गई कि तीन दिन के भीतर औरैया में एक और ट्रेन पटरी से उतर गई. खतौली हादसे का ठीकरा फोड़ने के लिए सिरों की तलाश हो ही रही थी कि एक और हादसा होने से सरकार की छवि पर और बड़ा संकट आ गया.
  • गोरखपुर कांड में बच्चों के मरने के बाद सरकार अपने गुनाह को नकारती जा रही है. लेकिन उसे अपनी छवि की चिंता जरूर परेशान करती रही.
  • नए विश्वविद्यालय के ऐलान से माहौल में उम्मीद के रूप में एक स्फूर्ति तो आती ही है. यह उम्मीद और बढ़ जाती है जब प्रस्तावित विश्वविद्यालयों के आगे विश्वस्तरीय लगा हो...
  • बिहार में अचानक राजनीतिक तूफान आया और कुछ ही घंटों में सरकार बदल गई. वैसे बाहर से दिखने में ऐसा लगता नहीं है क्योंकि मुख्यमंत्री वही हैं और मुख्यमंत्री की अपनी पार्टी जेडीयू अभी भी बिहार सरकार में है. बस गठबंधन का नाम बदला है.
  • हमने दसियों दंतविहीन नियामक ज़रूर बनाए, लेकिन उनकी असरदारी को हम आज तक महसूस नहीं कर पाए. लेकिन आज जब पत्रकारिता के सामने अपनी विश्वसनीयता का ही सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया हो, तो वह अपने इस संकट से निपटने के लिए आचार संहिता की बात मान भी सकती है.
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