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सुधीर जैन

सागर विश्वविद्यालय से अपराधशास्त्र व न्यायालिक विज्ञान में स्नातकोत्तर के बाद उसी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर रहे, Ph.D. के लिए 307 सज़ायाफ़्ता कैदियों पर छह साल तक शोधकार्य, 27 साल 'जनसत्ता' के संपादकीय विभाग में रहे, सीएसई की नेशनल फैलोशिप पर चंदेलकालीन तालाबों के जलविज्ञान का शोध अध्ययन, देश की पहली हिन्दी वीडियो मैगज़ीन के संस्थापक निदेशक, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनोलॉजी एंड फॉरेंसिक साइंस और सीबीआई एकेडमी के अतिथि व्याख्याता, विभिन्न विषयों पर टीवी पैनल डिबेट. विज्ञान का इतिहास, वैज्ञानिक शोधपद्धति, अकादमिक पत्रकारिता और चुनाव यांत्रिकी में विशेष रुचि.

  • जिस दिन नोटबंदी का ऐलान हुआ था तब पता नही चल पा रहा था कि सरकार के मन में क्या है. लेकिन उसके कारणों को अब जरूर समझा जा सकता है. सबको पता है कि अपनी सरकार शुरू से ही जिस तरह की मुश्किल में पड़ी है उससे निजात के लिए उसे बस ढेर सारे पैसे की जरूरत थी, उसी से वादे पूरे होने थे. लेकिन नोटबंदी के जरिए ढेर सारा काला धन बरामद करने में सरकार फेल हो गई
  • आमतौर पर देश के सालाना बजट पर सोचने विचारने का काम डेढ़ दो महीने पहले से शुरू हो जाता था. लेकिन इस साल नोटबंदी ने देश को इस कदर उलझाए रखा कि यह काम रह ही गया. वैसे नवंबर के दूसरे हफ्ते में नोटबंदी करते समय सरकार के सामने इस साल का बजट ही रहा होगा. सबको पता है कि पिछले साल बजट बनाने में सरकार कितनी मुश्किल में पड़ गई थी.
  • राहुल गांधी का भाषण देखकर लगता है कि उन्‍होंने संभवतया आज सुबह अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा का भाषण जरूर सुना होगा क्‍योंकि जिस अंदाज में ओबामा ने अपने भाषण में लोकतंत्र, लोकतांत्रिक संस्‍थाओं की मजबूती पर जोर दिया, कमोबेश वैसा ही चिंता भारत के संदर्भ में राहुल के भाषण में भी दिखी.
  • प्रदेशों की राजनीतिक हलचल को देखें तो महत्व और रोचकता के लिहाज से एकदम किसी नेता का नाम सामने नहीं आता. ठहरकर याद करें, तो पीएम नरेंद्र मोदी व कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के अलावा थोड़ी-बहुत नज़र अरविंद केजरीवाल पर पड़ती है.
  • उनके लिए कोई उपमा नहीं सोची जा सकती. वह वाकई अनुपम थे. उनसे मेरी पहचान प्रभाष जोशी ने करवाई थी. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के लिए भारतीय जल प्रबंधन पर शोध के सिलसिले में अनुपम जी से पहली मुलाकात हुई, और फिर उनसे राग हो गया.
  • निर्भया कांड की चौथी बरसी पर एक बार फिर पलटकर देखने का मौका है. उस वीभत्स, भयानक और घिनौने अपराध ने देश को इतना झकझोर दिया था. कानून तो तब भी हमारे पास पर्याप्त थे लेकिन उस मामले के बाद हमने अलग से कानून बनाने की कवायद भी की थी. कुछ ऐसी संजीदगी जताई गई थी जैसे आगे से महिलाओं पर जोरजुल्म पर रोक लग जाएगी. लेकिन रोज खबरें मिलती हैं कि महिलाओं के प्रति अपराध और अत्याचार की स्थिति आज भी ठीक नहीं है.
  • अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज एक देश दूसरे देश से अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं कर पा रहा है. अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां दिन पर दिन कृषकाय होती जा रही हैं. सिर्फ अपने देश को देखें तो जहां मानवोचित भोजन, पानी, कपड़ा और मकान को सुनिश्चित करने में सरकारें हांफने लगी हों वहां सुरक्षा जैसी द्वितीयक आवश्यकता या अधिकार बहुत दूर की बात है.
  • नोटबंदी की मियाद खत्म होने के बाद जितने नोट जमा नहीं होंगे, उतनी रकम के नए नोट रिजर्व बैंक बेधड़क छाप लेगा, क्योंकि उतना सोना पहले से सरकारी तिजोरी में जमा है. जिनका काला धन रद्दी का टुकड़ा बना दिया गया, वे चाहे फेंकें या जलाएं या बहाएं, यह उनका सिरदर्द था. काले धन वालों का यह दर्द सरकार अपने सिर क्यों ले रही है. ऐसा करना क्या अपने आप में एक घोटाला साबित नहीं हो जाएगा.
  • नोटबंदी से अब जो हमें हासिल होने की उम्मीद बंधाई गई है उसके सहारे एक महीना और भी काटा जा सकता है, लेकिन इसके दूसरे जोखिमों और अंदेशों को देखकर उनका पहले से इंतजाम करके रख लेना चाहिए. ऐसा ही एक अंदेशा है कि देश अपराध बढ़ने को लेकर संवेदनशील हो चुका है.
  • नोटबंदी दो हफ्ते के भीतर ही आज़ाद भारत के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व सिद्ध हो गई है. राष्ट्रहित के बैनर पर मीडिया ने सरकार से भी दो कदम आगे आकर जिस तरह नोटबंदी को सराहा है, और एक राष्ट्रभक्त कार्यकर्ता की तरह सरकार का साथ दिया है, उसे सिर्फ देश में नहीं, पूरी दुनिया में बड़े कौतूहल से देखा गया होगा.
  • अभी यह तो पता नहीं चल रहा है कि कालेधन की मुहिम मोटे-ताजे भ्रष्टाचारियों पर दूर से कितना डर बैठा पा रही है. लेकिन ये जरूर दिखने लगा है कि अब तक जो खुद को भ्रष्टाचारी नहीं समझता था उसके भीतर भी डर बैठ रहा है कि अपनी आमदनी और खर्चे का पूरा हिसाब कैसे बताए.
  • बड़ा सवाल है कि काला धन यानी नंबर दो का पैसा नोटों की शक्ल में कितने लोग रखते होंगे. कालाधन रखने का मुनाफेदार जरिया सोना और बेनामी जमीन जायदाद होती है.
  • जेएनयू के छात्र नजीब का मामला देश में उपलब्ध अपराधशास्त्री भी जान समझ रहे होंगे. यह अलग बात है कि अपराध शास्त्रियों की भूमिका अपने देश में अभी तक तय नहीं हो पाई है.
  • धार्मिक कानून कायदों से उपजे विवादों ने आपराधिक न्याय प्रणाली के सामने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं. धार्मिक रीति रिवाजों खासतौर पर तीन तलाक के मुद्दे पर जिस तरह की आक्रामक बहस होने लगी हैं उनसे यह चुनौती ज्यादा ही बड़ी हो गई है.
  • आमतौर पर जब कोई नेता एक पार्टी छोड़कर दूसरी में जाता है तो अपने फैसले के औचित्य का प्रचार करने के लिए कुछ पहले से पेशबंदी करने लगता है. यहां रीता बहुगुणा जोशी की तरफ से यह पहल नहीं दिखाई दी.
  • हमारा अपना देश ही इतना बड़ा बाजार है कि कई बड़े देश हमारे इस बाजार से पल रहे हैं. हमें दिक्कत यह आ रही है कि चीन या दूसरे देशों के माल के सस्ते होने के कारण हमारा बनाया उत्पाद घर की दुकानों में बिना बिके रखा रह जा रहा है.
  • बॉब डिलेन को साहित्य का नोबेल मिलने से दुनिया के साहित्यकार हैरत में पड़ गए. पुरस्कार देने वाली संस्था स्वीडिश अकादमी ने भी उनके बारे में यह कहा है कि लोक गीतकार के रूप में डिलेन की लोकप्रियता के कारण उन्हें चुना गया. वैसे डिलेन लोक संगीत, पटकथा लेखक और अभिनेता के रूप में भी उतने ही लोकप्रिय रहे हैं.
  • विपक्ष के लगभग सभी दलों ने कम से कम इस एक मसले पर एकजुट होकर सरकार के साथ खड़े होने की पेशकश की है. मौजूदा सरकार के पास विपक्ष के इस रचनात्मक सहयोग का लाभ उठाने का मौका है.
  • इस समय युद्ध के नफे नुकसान, उसकी नीति अनीति और उसके इतिहास भूगोल पर खुलकर चर्चाएं हो रही हैं. एक सभ्य समाज के लिए इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है. वैसे अब तो तेज तर्रारी की मुद्रा बनाकर सत्ता में आई सरकार भी सोच समझकर, सही समय पर सही कार्रवाई की बात करने लगी है.
  • अच्छे दिन लाने का वायदा मोदी सरकार के गले में फंसी हड्डी बन गया. हैरत यह है ये बात किसी और ने नहीं बल्कि खुद मोदी सरकार के एक बहुत बड़े मंत्री नितिन गडकरी ने पिछले हफ्ते कही है. पिछले साल पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने हरेक के खाते में 15 लाख रुपए जमा करवाने वाले वायदे को चुनावी जुमला बताकर मेट दिया था.
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